Friday, March 8, 2013

महिला सशक्तीकरण के वास्ते- केपी सिंह


अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला सशक्तीकरण की बात करना फैशन नहीं, जरूरत है। इक्कीसवीं शताब्दी में भी महिलाएं संविधान-प्रदत्त मूलभूत अधिकारों को पाने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। यह जद्दोजहद नई नहीं, सहस्राब्दियों पुरानी है। मानव-सभ्यता जब पृथ्वी पर पनपने लगी तो पुरुष ने अपनी शारीरिक सामर्थ्य का फायदा उठाते हुए पहला अधिकार स्त्री पर जताया था। महिलाओं के शोषण की कहानी वहीं से शुरू हो गई थी। संपत्ति पर अधिकार का सिलसिला उसके बाद शुरू हुआ। वर्ष 1848 में सोनेका फाल्स में आयोजित महिला-अधिकार सम्मेलन में जारी किए गए घोषणा-पत्र में कहा गया था कि मानवता का इतिहास पुरुष द्वारा स्त्री पर लगातार अत्याचार और उस पर आधिपत्य जमाने की गाथा मात्र है।
प्राचीन रोमन साम्राज्य में महिलाओं को पुरुष के स्वामित्व वाला प्राणी समझा जाता था। फ्रांस में उन्हें आधी आत्मा वाला जीव समझा जाता था, जो समाज के विनाश के लिए जिम्मेदार था। चीनवासी महिलाओं में शैतान की आत्मा के दर्शन करते थे। इस्लाम के प्रचार से पहले अरबवासी लड़कियों को जिंदा दफ्न कर दिया करते थे। भारत में भी सीता से लेकर द्रौपदी तक स्त्रियां विभिन्न प्रकार की अग्नि-परीक्षा से गुजरती रही हैं। कन्या हत्या के पाप से जब भारतवासी मुक्त होने लगे थे तो सहज ही कन्या-भ्रूण हत्या सामाजिक व्यवस्था में स्थापित हो गई थी। मापदंड और तरीके भिन्न हो सकते हैं, पर महिलाओं के प्रति भेदभाव और शोषण एक विश्वव्यापी सामाजिक परिदृश्य है। इसे सभ्यता-दोष मान कर सभी को इसके निराकरण के उपाय ढूंढ़ने की जरूरत है।
महिला सशक्तीकरण की बात करने से पहले इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने की आवश्यकता है कि क्या वास्तव में महिलाएं अशक्त हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अज्ञानवश या निहित स्वार्थों ने एक षड्यंत्र के तहत एक असत्य को बार-बार सत्य बता कर उसे सत्य के रूप में स्थापित कर दिया गया हो? मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक तथ्य यह साबित करते हैं कि वह प्राणी जिसे हम ‘औरत’ कहते हैं, जन्म से औरत नहीं होती, उसे समाज द्वारा ‘औरत’ बनाया जाता है। वह अशक्त नहीं, अशक्त बताई जाती है।
प्रकृति ने स्त्री और पुरुष दोनों को अलग-अलग प्रकार की शक्तियां देकर एक समान रूप से सशक्त बनाया है। पुरुष में अगर शारीरिक सामर्थ्य थोड़ी ज्यादा है तो स्त्री में शारीरिक शक्ति का संवरण करने की शक्ति पुरुष से अधिक होती है। इसका प्रमाण है कि भारत में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों की औसत आयु से लगभग पांच वर्ष अधिक है।
भावनात्मक रूप से महिलाएं पुरुषों से अधिक संतुलित होती हैं। विषम परिस्थितियों से शीघ्र बाहर निकल कर संयमित हो जाने और दर्द सहने की क्षमता स्त्रियों में पुरुषों से अधिक होती है। मानसिक प्रबलता और कार्य-निपुणता में महिलाएं अगर पुरुषों से इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं। फिर यह समझने की जरूरत है कि स्त्री क्यों पुरुष के अधीन होती चली गई?
सभ्यता के प्रारंभ में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का सिद्धांत स्थापित हो जाना स्वाभाविक था। बौद्धिक क्षमता और भावनात्मक दृढ़ता के मापदंड उस समय अज्ञात थे। इसीलिए शारीरिक सामर्थ्य ने जीवों के बीच परस्पर संबंधों को परिभाषित करने में अहम भूमिका निभाई थी। जंगल की प्रवृत्ति को परिभाषित करता ‘बलशाली को ही अधिकार है’ का सिद्धांत सभ्य समाज के शुरुआती दौर में ही मानव-समाज में अपनी जगह पक्की कर चुका था।
शायद यही कारण था कि पुरुष ने स्त्री की तनिक सापेक्ष शारीरिक दुर्बलता को उसके आजीवन शोषण की गाथा बना डाला। पर आधुनिक सभ्य समाज में शारीरिक क्षमता के मुकाबले मानसिक प्रबलता, सृजनात्मक शक्ति और भावनात्मक परिपूर्णता ज्यादा मायने रखती है। सर्वविदित सत्य यही है कि आधुनिक सभ्यता के श्रेष्ठता के स्थापित मानकों पर महिलाएं पुरुषों से कहीं भी पीछे नहीं हैं। ऐसे में महिला सशक्तीकरण की चर्चा और अधिक सार्थक हो जाती है।
प्रसिद्ध दार्शनिक मज्जिनी (1805-1872) ने कहा था कि पुरुष को अपने दिमाग से यह विचार निकाल देना चाहिए कि वह महिला से श्रेष्ठ होता है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन की पत्नी नैन्सी रेगन ने एक बार बताया था कि स्त्री चाय की पुड़िया (टी बैग) के समान होती है। और ‘टी बैग’ की गुणवत्ता का तब तक पता नहीं चलता, जब तक उसे गरम पानी में डाल कर परखा नहीं जाता। महिलाओं के संदर्भ में गरम पानी में डालने से उनका अभिप्राय था अवसरों की उपलब्धता। यानी महिलाओं की क्षमता का अंदाजा उन्हें उपलब्ध अवसरों के परिप्रेक्ष्य में ही लगाया जाना चाहिए।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से महिलाओं को राष्ट्र और समाज के विकास में भागीदारी के उतने अवसर नहीं मिल पाए जिनकी वे हकदार थीं। धीरे-धीरे महिलाओं ने समाज में अपनी उस भूमिका को स्वीकार कर लिया जो पुरुष से कमतर आंकी जाती रही है। पुरुष द्वारा बनाए गए सामाजिक और राजनीतिक कानून जो पुरुष को केंद्र में रख कर बनाए गए थे, महिलाओं पर ज्यों के त्यों लागू होते चले गए।
स्त्री घर की चारदीवारी के अंदर घरेलू परिस्थितियों की दासी बन गई और घर के बाहर उसकी भूमिका सीमित होती चली गई। घरेलू और सार्वजनिक गतिविधियां लिंग के आधार पर वर्गीकृत हो गर्इं। महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों ने अपने पास ही रखा। घर से बाहर की सारी भूमिकाएं पुरुषों ने हथिया लीं। इस लैंगिक भेदभाव ने महिलाओं को और कमजोर बना दिया और सर्वत्र पुरुष का वर्चस्व स्थापित होता चला
गया।
समाज में पुरुष के वर्चस्व की कीमत सभी सभ्यताओं ने सदैव चुकाई है। जनसंख्या के आधे भाग के योगदान के अभाव में समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति की दर उतनी नहीं बढ़ पाई, जितनी शायद संभव थी। वर्ष 2011 के इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार प्रदान करते समय भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि राष्ट्र की आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की उचित भागीदारी के बिना सामाजिक प्रगति की अपेक्षा रखना तर्कसंगत नहीं होगा। 
वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया की सबसे बड़ी पांच सौ कंपनियों (फारचून 500) में महिलाओं की भागीदारी को लेकर एक सर्वेक्षण कराया था। निष्कर्ष यह निकला था कि जिन कंपनियों के प्रबंधन में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिला था उनमें निवेशकों को तिरपन प्रतिशत अधिक लाभांश और चौबीस प्रतिशत अधिक बिक्री का फायदा मिला था। जाहिर है, महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके आर्थिक प्रगति की रफ्तार बढ़ाई जा सकती है।
भारत सरकार महिला सशक्तीकरण के प्रति सदैव सकारात्मक रही है। वर्ष 2001 में महिला सशक्तीकरण से संबंधित राष्ट्रीय नीति की घोषणा की गई थी। इस बहुआयामी नीति में महिलाओं के विकास का वातावरण तैयार करने, समानता के साथ राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में भागीदारी सुनिश्चित करने, भेदभाव समाप्त करने, महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकने और सभी क्षेत्रों में विकास और भागीदारी के एक समान अवसर उपलब्ध कराने का आह्वान किया गया है।
राष्ट्रीय नीति के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए वर्ष 2010 में महिला सशक्तीकरण राष्ट्रीय मिशन ‘मिशन पूर्ण शक्ति’ की स्थापना की गई थी। संयुक्त राष्ट्र ने भी महिला सशक्तीकरण के पांच-आयामी दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों में महिलाओं को राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णायक भूमिका निभाने, विकास के समान अवसरों की उपलब्धता, व्यक्तित्व की महत्ता और स्वेच्छा से जीवन के फैसले करने के अधिकार को अधिमान दिया गया है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिला सशक्तीकरण के नियामकों को सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में निर्धारित करने की जरूरत है। दो तिहाई मजदूरी के कार्यों को करने के बाद भी महिलाएं केवल दस प्रतिशत संपत्ति और संसाधनों की मालिक हैं। भूमि पर मालिकाना हक से संबंधित अधिकारों में महिलाओं के हक को जमीनी सतह पर स्थापित करने की आवश्यकता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करके पुश्तैनी जमीन में लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार दे दिया गया है। पर लड़कियों को इस अधिकार की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इसके लिए एक सामाजिक क्रांति की जरूरत होगी।
महिलाएं समाज के हाशिये पर ढकेल दिया गया वर्ग हैं, इसमें मतभेद नहीं। भारतीय संविधान में पीड़ित और शोषित वर्गों के लिए समानता के अधिकार से ऊपर उठ कर उनके पक्ष में सकारात्मक भेदभाव करने की अवधारणा को स्थापित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के अनुसार शिक्षण संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और प्रशासन में सभी उपेक्षित वर्गों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने की परिकल्पना की गई है। फिर यह समझ से बाहर है कि अभी तक किसी ने भी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण की मांग क्यों नहीं की है? राजनीति में अब भी एक तिहाई भागीदारी की मांग की जा रही है, जबकि महिलाएं राजनीति में भी आधे हिस्से की हकदार हैं।
अपनी जिंदगी के बारे में सभी प्रकार के फैसले, जिनमें जीवन-साथी और व्यवसाय चुनने के फैसले महत्त्वपूर्ण हैं, करने की मुहिम को और गति देने की आवश्यकता है। श्रम और सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लैंगिक वर्गीकरण की दीवार को गिराने से ही महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को बल मिल सकता है।
संपूर्ण विश्व में परंपरागत पुरुष-प्रधान समाज में एक और कटु सत्य को आत्मसात करने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के तीन सिद्धांतों पर टिकी वर्ष 1789 की ‘फ्रांस की क्रांति’ में महिलाओं की स्वतंत्रता और पुरुषों के साथ उनके बराबरी के अधिकार का कहीं भी जिक्र नहीं है। कार्ल मार्क्स का समानता का सिद्धांत भी पुरुष और स्त्री की बराबरी की जद्दोजहद का कभी साक्षी नहीं बन सका। आधुनिक युग में भी जब सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों के अधिकारों की वकालत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर की गई तो औरत के अधिकारों की पूरी वकालत नहीं हो पाई। शायद पुरुष वर्चस्व का उद्घोष इसमें आड़े आता रहा।
पर महिला सशक्तीकरण के आंदोलन को पुरुषों के अधिकार छीनने की कवायद नहीं समझा जाना चाहिए। न ही इसे पुरुष बनाम स्त्री मुद्दा बनने देना चाहिए। महिला सशक्तीकरण का हामीदार बनने के लिए पुरुष विरोधी बनना कतई जरूरी नहीं है। सशक्तीकरण अधिकारों का बंटवारा नहीं, बल्कि परिस्थितियों और मापदंडों के सुधार का पर्यायवाची है। अगर महिलाओं की स्थिति में सुधार होता है तो पुरुष की स्थिति में भी सुधार होना स्वाभाविक है।
शर-शैया पर लेटे हुए भीष्म ने पांडवों को राजनीति के पाठ पढ़ाते हुए नसीहत दी थी कि किसी राजा की कुशलता इस तथ्य की मोहताज होती है कि उसके राज्य में महिलाओं का सम्मान होता है या अपमान। इसलिए महिला सशक्तीकरण किसी भी राज-सत्ता की उपलब्धियों का सार्थक मापदंड होना चाहिए। अंत में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में सभी को समर्पित उद्गार- ‘मैं औरत हूं/ आकाश मेरी बैसाखियों पर टिका है/ इंद्रधनुष मेरी आंखों का काजल है/ सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है/ बादलों में मेरे विचार घुमड़ते हैं/ पर अफसोस/ मेरी अभिव्यक्ति की बयार अभी आना बाकी है।’
- जनसत्ता से साभार 

Monday, March 4, 2013

Movie शब्द का प्रचलन कैसे शुरू हुआ?/ मिर्ज़ा एबी बेग


अगर आप से ये पूछा जाए कि आपकी पसंदीदा वीटास्कोप क्या है तो आप शायद इसका जबाव न दे पाएँ. लेकिन अगर इसके बजाए ये पूछा जाए कि आपकी पसंदीदा मूवी कौन सी है तो आप तुरंत ही किसी फ़िल्म का नाम लेंगे.
फ़िल्मों को लेकर कहीं न कहीं हम मूवी शब्द का प्रयोग करते हैं लेकिन क्या आपको मालूम है कि फ़िल्मों को मूवी का नाम कैसे दिया गया.
आज हम जिस शब्द की चर्चा कर रहें हैं वह शब्द है:

MOVIE (मूवी)

1912 में न्यूयॉर्क के एक प्रकाशन में "Movies' and the Law" के शीर्षक को इस बात का श्रेय जाता है कि वहीं मूवी शब्द पहली बार प्रयोग में आया और फिर लोगों ने फ़िल्मों को आम तौर पर मूवी कहना शुरू कर दिया.
इसी लेख से
हिंदी में हमने इसका सीधा सीधा अनुवाद चलचित्र के तौर पर कर लिया है लेकिन पहली बार इसका प्रयोग अमरीका के लोगों ने किया था.
नामकरण या नाम रखने को हमारे समाज में काफ़ी महत्वपूर्ण माना जाता है और जब ये किसी आविष्कार को लेकर हो तो उसकी अहमियत और भी बढ़ जाती है और बहुत सोच बिचार के बाद ही नाम रखा जाता है.
लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि मज़ाक़-मज़ाक में कोई नाम चल निकलता है और वही उसकी पहचान बन जाता है.
1912 में न्यूयॉर्क के एक प्रकाशन में "Movies' and the Law" के शीर्षक को इस बात का श्रेय जाता है कि वहीं मूवी शब्द पहली बार प्रयोग में आया और फिर लोगों ने फ़िल्मों को आम तौर पर मूवी कहना शुरू कर दिया.
फ़िल्म निर्माण की कला से जुड़े लोगों, ख़ास कर फ़िल्म निर्माताओं ने अपनी इस उत्कृष्ट कला को ऐसे बाज़ारी और चालू नाम दिए जाने पर खेद प्रकट किया.
उन्होंने मूवी शब्द को अपनाने से इंकार कर दिया क्योंकि 19वीं शताब्दी में नाम रखने का अपना ही भव्य अंदाज़ था.
19वीं सदी में काफ़ी आविष्कार हुए और उनके महत्व को दिखाने और उन्हें क्लासिकी रंग देने के लिए उनके नाम रखने में यूनानी शब्दों के प्रयोग को बहुत अहमियत दी जाती थी.

नामकरण

इसी लिए थॉमस एडीसन ने जब कैमरे (Camera) का आविष्कार किया तो अपने कैमरे का नाम काइनेटोग्राफ़ (kinetograph) रखा, जोकि यूनानी मूल के शब्द‘Kinetic’ (गति) और ‘graph’ (लिखने) को मिला कर बनाया गया था.
इसी प्रकार जब उन्होंने प्रॉजेक्टर बनाया तो उसका नाम काइनेटोस्कोप (kinetoscope) रखा जो कि यूनानी मूल के शब्द ‘kinetic’ (गति) और ‘scope’ (दृश्य) को मिला कर बनाया गया था.
एक दशक बाद एक और यंत्र बना जिसे बॉयोग्राफ़ (biograph) कहा गया जो ‘जीवन’ (bio) और ‘लिखने’ (graph) को लेकर बना था.
उन्नीसवीं शताब्दी में नामकरण की यही प्रथा प्रचलित रही और हमें टेलीग्राफ़ (telegraph -1805), फ़ोटोग्राफ़ (photograph -1839), टेलीफ़ोन (telephone -1876), फ़ोनोग्राफ़ (phonograph -1877), काईनेटिक्स (kinetics -1864), काईनेसिओलोजी (kinesiology -1894), लीथोग्राफ़ (lithograph -1825), सीज़मोग्राफ़ (seismograph -1858), कैलेडिस्कोप (kaleidoscope -1817), पेरिस्कोप (periscope -1879) आदि शब्द मिले जो यूनानी मूल से बने हैं.
1920 के दशक में टॉकीज़ शब्द का इस्तेमाल कम हो गया और फिर जब हर फ़िल्म में आवाज़ का इस्तेमाल होने लगा तो फिर से फ़िल्मों के लिए आम तौर पर ‘मूवी’ शब्द का ही प्रयोग होने लगा.
इसी लेख से
हालांकि मोशन पिक्चर का आविष्कार 1889 में हो चुका था लेकिन थॉमस एडीसन ने इसे अपने आविष्कार को वीटास्कोप (Vitascope) नाम दिया था जिसका मूल यूनानी भाषा में था.
लेकिन सारी कोशिशों के बाद भी फिल्मों को दिखाने और बनाने वाले इसे इसके नए नाम मूवी को नहीं हटा सके.
कुछ दिनों बाद उन्होंने अपनी फ़िल्मों में आवाज़ भी शामिल कर दी. इसके बाद फ़िल्मों को कुछ दिनों तक टाकीज़ (talkies) कहा जाने लगा.
1920 के दशक में टॉकीज़ शब्द का इस्तेमाल कम हो गया और फिर जब हर फ़िल्म में आवाज़ का इस्तेमाल होने लगा तो फिर से फ़िल्मों के लिए आम तौर पर ‘मूवी’ शब्द का ही प्रयोग होने लगा.
1920 के ही दशक में फ़िल्म जगत से जुड़े लोगों ने ‘अकादमी ऑफ़ मोशन पिक्चर आर्ट एंड साइंस’ (Academy of Motion Picture Arts and Sciences) की स्थापना की और हर वर्ष उसी की ओर से ऑस्कर पुरस्कार दिया जाने लगा.
सिनेमा एक ऐसी कला है जिसका संबंध आम लोगों से ज़्यादा है और ये वो माध्यम है जो उत्कृष्ट लोगों से ज़्यादा आम जनता के लिए है.
इसी लिए आज भी उस पर जनता का दिया हुआ नाम ‘मूवी’ यूनानी मूल के नाम ‘वीटास्कोप’ या ‘बाईस्कोप’ से ज़्यादा फबता है.

Friday, March 1, 2013

गुलज़ार की त्रिवेणियाँ .....




क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी 

''शुरू शुरू में तो जब यह फॉर्म बनाई थी, तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसीलिए दिया था कि पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती जो गुप्त है नज़र नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है 
तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है ।''


मैं सिगरेट तो नहीं पीता 

मगर हर आने वाले से पूछ लेता हूँ माचिस है ?
बहुत कुछ है जिसे मैं फूँक देना चाहता हूँ ...... 


गुलज़ार की त्रिवेणियाँ
१.
मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे
२.
सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें
सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।
३.
सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर
कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।
४.
शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को
तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?
'५.
ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी
खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!
६.
लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर
यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?
७.
आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!
चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा
८.
पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं
घर जाने का वक्‍़त हुआ है,पाँच बजे हैं
सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!
९.
बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख्‍़वाहिशें ऐसे दिल में
मेक्सीकनफ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।
थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्‍़वाहिशें मुझ से।
१०.
तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!
११.
कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे
ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।
१२.
वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
१३.
वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने
कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
१४.
कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे
शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!
१५.
इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा
छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!
१६.
बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।
अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।
१७.
चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में
बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!
१८.
चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था
बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!
१९.
कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से 
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!
२०.
कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं
क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं
२१.
कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!
२२.
कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है
क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।
२३.
आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।
दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से
२४.
नाप के वक्‍़त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको
उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?
२५.
तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शेर मिलते थे
ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?