Friday, May 31, 2013

Special report (The Jung, Pakistan.)

Editorial

The debate was whether the celebrations in India were about hundred years of Bollywood or of Indian cinema. The clumsiness of the situation was nothing new for us in Pakistan; we who already have seen our history subjected to this clumsiness, understanding it with reference to geography alone.

Truth is that May 3, 2013, marks a century of Indian cinema. We in Pakistan as well as those in the country we know as Bangladesh (East Bengal of yore), too, have remained a major part of this history that has brought us to this historic occasion. May 3, 1913, it was when the first ever film Raja Harish Chandar was released in what was then united India. Soon, Lahore became one of the three biggest centres of film production in the subcontinent and persisted with a mutually beneficial relationship especially with Bombay and less so with Calcutta.

To say that Pakistani film industry began with the release of the first film after 1947 may be true for some narrow nationalistic or academic purpose but the ties that bind this part with that could not have been severed so easily. Why should Pakistan not celebrate one hundred years of cinema in the subcontinent is then a legitimate question.

We have partially tried to address this question in today’s Special Report by remembering the Indian cinema’s contribution in providing entertainment to billions of people, and looking once again at the connections we had with wonder and awe, one must admit.

Till the mid-1960s, the Indian films were shown in Pakistani cinemas, and the ultimate of all connections — between the viewer and the film — remained. However, the thirst for Indian films did not die, and antennas and television brought them back for us on Doordarshan. The VCRs and the video films filled the gap till the Indian films were allowed in Pakistani cinemas again a few years ago.

Music, the distinguishing feature of the subcontinental cinema, kept the people of this region united on a spiritual level because we have all hummed the same tunes.

Come Ziaul Haq’s time, and the ideological battle that we were fighting with the enemy state cost us our own film industry — known as Lollywood — and has not been able to recover ever since.
Yet we feel that May 3, 2013, is a celebration of a shared past of subcontinental cinema. So here’s to Cinema’s Century.The debate was whether the celebrations in India were about hundred years of Bollywood or of Indian cinema. The clumsiness of the situation was nothing new for us in Pakistan; we who already have seen our history subjected to this clumsiness, understanding it with reference to geography alone.
Truth is that May 3, 2013, marks a century of Indian cinema. We in Pakistan as well as those in the country we know as Bangladesh (East Bengal of yore), too, have remained a major part of this history that has brought us to this historic occasion. May 3, 1913, it was when the first ever film Raja Harish Chandar was released in what was then united India. Soon, Lahore became one of the three biggest centres of film production in the subcontinent and persisted with a mutually beneficial relationship especially with Bombay and less so with Calcutta.
To say that Pakistani film industry began with the release of the first film after 1947 may be true for some narrow nationalistic or academic purpose but the ties that bind this part with that could not have been severed so easily. Why should Pakistan not celebrate one hundred years of cinema in the subcontinent is then a legitimate question.
We have partially tried to address this question in today’s Special Report by remembering the Indian cinema’s contribution in providing entertainment to billions of people, and looking once again at the connections we had with wonder and awe, one must admit.
Till the mid-1960s, the Indian films were shown in Pakistani cinemas, and the ultimate of all connections — between the viewer and the film — remained. However, the thirst for Indian films did not die, and antennas and television brought them back for us on Doordarshan. The VCRs and the video films filled the gap till the Indian films were allowed in Pakistani cinemas again a few years ago.
Music, the distinguishing feature of the subcontinental cinema, kept the people of this region united on a spiritual level because we have all hummed the same tunes.
Come Ziaul Haq’s time, and the ideological battle that we were fighting with the enemy state cost us our own film industry — known as Lollywood — and has not been able to recover ever since.
Yet we feel that May 3, 2013, is a celebration of a shared past of subcontinental cinema. So here’s to Cinema’s Century.
For full report ,click on the following link-


http://jang.com.pk/thenews/Apr2013-weekly/nos-28-04-2013/spr.htm#1 

Monday, May 27, 2013

बदलाव

दुख पैदा होता है क्योंकि हम बदलाव को होने नहीं देते। हम पकड़ते हैं, हम चाहते हैं कि चीजें स्थिर हों। यदि तुम स्त्री को प्रेम करते हो तो तुम उसे आने वाले कल भी चाहते हो, वैसी ही जैसी कि वह तुम्हारे लिए आज है। इस तरह से दुख पैदा होता है। कोई भी आने वाले क्षण के लिए सुनिश्चित नहीं हो सकता--आने वाले कल कि तो बात ही क्या करें?

होश से भरा व्यक्ति जानता है कि जीवन सतत बदल रहा है। जीवन बदलाहट है। यहां एक ही चीज स्थायी है, और वह है बदलाव। बदलाव के अलावा हर चीज बदलती है। जीवन की इस प्रकृति को स्वीकारना, इस बदलते अस्तित्व को उसके सभी मौसम और मूड के साथ स्वीकारना, यह सतत प्रवाह जो एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता, आनंदपूर्ण है। तब कोई भी तुम्हारे आनंद को विचलित नहीं कर सकता। स्थाई हो जाने की तुम्हारी चाह तुम्हारे लिए तकलीफ पैदा करती है। यदि तुम ऐसा जीवन जीना चाहते हो जिसमें कोई बदलाव न हो--तुम असंभव बात करना चाहते हो।

होश से भरा व्यक्ति इतना साहसी होता है कि इस बदलती घटना को स्वीकार लेता है। उस स्वीकार में आनंद है। तब सब कुछ शुभ है। तब तुम कभी भी विषाद से नहीं भरते।

विश्वास
 
यदि तुम विश्वास करते हो, तुम कभी भी जान नहीं पाओगे। यदि तुम सचमुच जानना चाहते हो, विश्वास मत करो। इसका यह मतलब नहीं होता है कि अविश्वास करो, क्योंकि अविश्वास अलग तरह का विश्वास है। विश्वास मत करो, पर प्रयोग करो। अपने पर जाओ, और यदि तुम देख सको, यदि तुम महसूस कर सको, तो ही विश्वास करो। लेकिन तब यह विश्वास नहीं रहता; तब यह श्रद्धा होती है। यह श्रद्धा और विश्वास में फर्क है: श्रद्धा अनुभव से आती है; विश्वास पूर्वाग्रह है जो अनुभव के सहारे के बिना है।

इसलिए विश्वास मत करो कि शास्त्र कहते हैं, और इसलिए विश्वास मत करो सम्माननीय लोग कहते हैं, क्योंकि हो सकता है कि वे यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यह कहने से वे सम्माननीय हो जाते हैं। इसलिए विश्वास मत करो कि पंडित-पुजारी कहते हैं, क्योंकि पंडित सभी तरह का व्यवसाय कर रहे हैं। उन्हें वैसा कहना ही है; वे विक्रेता हैं । वे कुछ अदृश्य उपयोग की वस्तुएं बेच रहे हैं, जो कि देखी नहीं जा सकती पर तुम्हें विश्वास करना होता है ।

प्रयोग करो, सभी बातों के लिए अस्तित्वगत अनुभव के लिए जाओ। प्रयोगशाला बन जाओ--तुम्हारी अपनी प्रयोगशाला। और जब तक कि यह तुम्हारी अपनी समझ ना बने, विश्वास मत करो। जब जक कि यह तुम्हारी अपनी समझ ना बने, विश्वास मत करो, और तब ही तुम श्रद्धा बन सकते हो। जिस सत्य पर विश्वास किया जाता है वह झूठ है। अनुभव का सत्य पूरी अलग ही घटना है। यह वैज्ञानिक मन का ढंग है। 

- ओशो 

Tuesday, May 7, 2013

गाली प्रेमी सामंतों के खिलाफ बगावत है "पान सिंह तोमर"...- अरविंद शेष

स्पष्टीकरणः "आप फिल्म को फिल्म की तरह देखतें हैं। आप समाज को भी फिल्म की तरह देखते हैं। ...मैं फिल्म को समाज की तरह देखता हूं। और समाज को राजनीति की तरह देखता हूं।"

 "देल्ही बेली" बनाने के बाद अगर आमिर खान या "गैंग्स ऑफ... " बनाने के बाद अनुराग कश्यप के हाथ में "पान सिंह तोमर" गई होती तो यह फिल्म कैसी बनी होती? यह खयाल मुझे "पान सिंह तोमर" के आखिरी दृश्य में "पान सिंह तोमर" यानी इरफान की मौत के साथ ही आया।

तिग्मांशु धूलिया की दूसरी फिल्में कैसी हैं, इसके बारे में कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। उनकी "पान सिंह तोमर" के कला या सरोकारी पहलू पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन मेरे दिमाग में इस फिल्म के खत्म होती ही "देल्ही बेली" या आमिर खान या अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों का ही नाम क्यों आया? "देल्ही बेली" अगर किसी वजह से याद रह जाती है तो सिर्फ इसलिए कि "गरीबी" का पाखंड जीते तीनों एलीट हीरो एक दूसरे को मां-बहन की सबसे वीभत्स गालियां ऐसे सहज भाव बोलते हैं जैसे किसी को तोहफे में फूल दे रहे हों; "देल्ही बेली" का एक "हीरो" एक स्त्री की कीमत लगाता है और पूरी सहजता से उसकी छातियां दबा कर चला जाता है; एक हीरो अपनी "प्रेमिका" की जांघों के बीच मुंह लगाए हुए दूसरी "प्रेमिका" का फोन सुनता है और बीच में ही उठ कर उसकी "सेवा" में चला जाता है; एक हीरो बड़ी सहजता से यह डायलॉग चिल्लाता है कि "ये शादी इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि इसने मेरा चूसा है और मैने भी इसकी ली है..."। ("मैंने भी इसकी ली है... " की जगह वास्तव में क्या है, इसे समझना मुश्किल नहीं है; वही हीरो अपनी "प्रेमिका" को दर्जनों बार "चुड़ैल-चुड़ैल" कहता है; और एक (आधुनिक और "इम्पावर्ड") हीरोइन को महज यौन-ताजगी के लिए अपने "प्रेमी" के साथ फूहड़ हो जाने की हद तक "जहां-तहां" मुंह में मुंह लगा कर मग्न हो जाने में कोई परेशानी नहीं होती...।

इसके अलावा, "देल्ही बेली" की कहानी क्या है, और इसके उपर्युक्त दृश्यों की जरूरत क्या थी, उसका जवाब नहीं मिलता है। अब इसे अगर कुछ "महान" समीक्षक स्त्री के पक्ष में खड़ी फिल्म तक घोषित करते हैं तो उनकी कुंठाओं या नफे-नुकसान का सिरा भी समझा जा सकता है। (गैंग्स ऑफ... पर बहस चल रही है।)

बहरहाल, आमिर खान और अक्षत वर्मा या अनुराग कश्यप को "पान सिंह तोमर" बनाना होता तो यह फिल्म कैसी बनती?

गांव का पान सिंह तोमर, फौजी पान सिंह तोमर, फौजी अधिकारियों से सजा पाता और उनसे पूरे भोलेपन के साथ जवाब-तलब करता पान सिंह तोमर, अपने दबंग और सामंती ठसक वाले रिश्तेदारों के अत्याचार झेलता पान सिंह तोमर, बागी पान सिंह तोमर, अपने गिरोह के साथ बीहड़ में जीता-मरता या धनपतियों का अपहरण करता और उनसे फिरौती वसूलता पान सिंह तोमर... । यानी अक्षत वर्मा और आमिर खान या अनुराग कश्यप जैसों के हिसाब से देखें तो पूरी फिल्म में संवाद या डायलॉग के नाम पर अगर कुछ होता तो बस मां-बहन की गालियां होतीं। शुरू से लेकर आखिर तक इस फिल्म में जो सामंती सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश मौजूद है, अक्षत वर्मा, आमिर खान, सुधीर मिश्रा या अनुराग कश्यप जैसे तमाम "महान" फिल्मकार इस फिल्म को गालियों की "गंगा" में डुबा देते और यह फिल्म भी समाज और संस्कृति के यथार्थ निरूपण का तमगा हासिल कर लेती!

लेकिन वे कौन-सी वजहें होंगी कि तिग्मांशु धूलिया को पूरी फिल्म में न केवल गाली जरूरी नहीं लगी, बल्किल एक जगह तिग्मांशु गालियों के खिलाफ खड़े होते हैं, जब पूरी फिल्म में एकमात्र जगह गाली का जवाब पान सिंह तोमर से दिलवाते हैं कि "हमारे यहां गाली पर गोली चल जाती है...।"

यह मेरे लिए हैरान कर देने वाली हकीकत है कि "पान सिंह तोमर" के पूरे परिवेश में अगर गालियां भर दी जातीं, तब भी उसे एक पैमाने पर जरूरी (सही नहीं) ठहराया जा सकता था, लेकिन तिग्मांशु धूलिया को पूरी फिल्म में यह गैर जरूरी लगा और इसके बावजूद फिल्म का एक मिनट का भी कोई दृश्य अपने असर में कमजोर नहीं रहा और दर्शकों में गहरे पैठा रहा।

मैं नहीं जानता कि तिग्मांशु की बाकी फिल्मों की सामाजिकता कैसी है, या आगे की फिल्मों में कैसी होगी। लेकिन मुझे लगता है कि "पान सिंह तोमर" के जरिए उस फिल्मकार के बारे में बात होनी चाहिए कि अगर वह ईमानदार है, जवाबदेह है, उसे अपनी क्षमता पर भरोसा है, उसमें कहीं सरोकार बचा हुआ है, वह खालिस दुकानदार नहीं हो गया है या वह व्यवस्था का एक एजेंट नहीं है तो वह विषय भी ढूंढ़ लेगा, कलाकार भी खोज लेगा और "पान सिंह तोमर" जैसी फिल्म भी बना लेगा, जो न केवल कहानी और प्रस्तुति के स्तर पर एक स्थायी असर से लबरेज होगी, बल्कि कारोबार के स्तर पर भी निराश नहीं होने देगी। (इस फिल्म ने साबित किया है कि वे फिल्मकार झूठ बोलते हैं जो यह कहते हैं कि दर्शक जो पसंद करता है, हम वही दिखाते हैं।)

दरअसल, हाल की कुछ फिल्मों में "यथार्थ का स्पर्श" देने के नाम पर जिस तरह गालियों से लैस संवादों को सहज स्वीकार्य बनाने की कोशिश की जा रही है, वह "यथार्थ" के निरूपण के नाम पर एक साजिश से ज्यादा कुछ भी नहीं। समाज में जहां-तहां पसरी यौन-कुंठाओं का शोषण करके मकसद भले ज्यादा-से-ज्यादा कमाई करना हो, लेकिन इस रास्ते होता यह है कि एक सामंती, मर्दवादी, पितृसत्तात्मक और भारतीय सामाजिक संदर्भों में ब्राह्मणवादी सत्ता की कुर्सी के पाए और मजबूत होते हैं। स्त्रियों और शूद्र जातियों के खिलाफ जलील करने वाली भाषा या गालियों का सहज इस्तेमाल दरअसल इस सत्ता को बनाए रखने के अहम औजार हैं। गालियों को सहज सामाजिक अभिव्यक्ति मानने वाले या तो खुद एक साजिश के सूत्रधार होते हैं या फिर शायद अंदाजा भी नहीं लगा पाते कि ऐसी भाषा का सुनने या बोलने के स्तर पर इस्तेमाल करते हुए वे किस बारीक साजिश का एक हिस्सा हैं या फिर शिकार हैं।

सच तो यह है कि गालियों के जरिए एक ऐसा समाज मनोविज्ञान और ऐसी राजनीति का जाल बनाया गया है, जो आखिरकार जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर सत्ताधारी, शासक और शोषक वर्गों का हित इस रूप में साधता है कि इससे सामाजिक हैसियत का मनोविज्ञान ज्यों-का-त्यों बना रहता है। यानी इस रास्ते शासित वर्गों को अपमानित करके उसका मनोबल गिराए रखना और उस पर मानसिक नियंत्रण बनाए रखना शासन का सबसे ताकतवर औजार बना। इसमें एक तरफ स्त्री की देह को ही उसकी अस्मिता का पर्याय बना दिया गया तो दूसरी ओर समाज के कमजोर तबकों की सामाजिक हैसियत, यानी वर्णक्रम पर आधारित जाति-व्यवस्था में नीची कही जाने वाली जाति की पहचान। यहां स्त्री के यौन की उनकी इज्जत का दूसरा नाम और उसे अपने नियंत्रण में रखने के लिए उसके यौन के खिलाफ शारीरिक या शाब्दिक हमला-हिंसा सामाजिक सत्ताओं का मूल चरित्र इसलिए बना, क्योंकि इससे एक साथ शूद्र जातियों और स्त्रियों- दोनों पर मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक नियंत्रण रखने में सबसे ज्यादा मदद मिली।

जाहिर है, ऐसे मनोवैज्ञानिक ढांचे-सांचे में जीते-मरते समाज की कुंठाओं का शोषण वैसी ही नई कुंठाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन के जरिए करना सबसे आसान है। और आमिर खान या सुधीर मिश्रा जैसे तमाम फिल्मकारों का मकसद केवल इन कुंठाओं का शोषण करके कुबेर बनना भर नहीं है, बल्कि उस साजिश को कामयाब बनाना भी है, जिसमें यह सामंती, मर्दवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था कायम रहे।

भदेसपन और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा होने की दलील देकर जो लोग गालियों का बचाव करते हैं या उन्हें महिमामंडित करते हैं, वे भी दरअसल अनजाने में या फिर जान-बूझ कर इस साजिश का हिस्सा बनते हैं। दलील भले ही जनतांत्रिक होने और लोकभाषाओं के प्रति सहनशील होने की हो...।

http://www.filmanchal.com/2013/02/blog-post.html से साभार 

- समीक्षक से  https://www.facebook.com/arvind.shesh?ref=ts&fref=ts  मिलिए .