Monday, February 21, 2011

बहुत संभव है ........................



चाँद तो तुम भी नहीं पाओगी
शायद प्रेम भी खो बैठो
दुख भी छू नहीं पाएगा तुम्हें
दिल के टूटने की बात तो दूर है

बहुत संभव है जीवन कट जाए ठीक-ठीक
हंसी मे गुजर जाये दिन
और जिसे तुम यथार्थ कहती हो
उस सपने मे रातें
एक निरापद जीवन जी लेने के बाद
शायद तुम सोचो
कुछ दार्शनिक लहजे मे
बीते दिनों और छूटे सम्बन्धों के बारे मे
शायद तुम थोड़ा दुखी भी होओ
थोड़ा उदास भी

पर तुम्हारे खयाल से बहुत दूर होगा
उस आदमी का दुख
जो शब्द मे ,खंडहर मे ,नदी–तट,
किसी जंगल ,किसी भीड़ ,किसी गाँव ,
किसी शहर
सिर्फ तुम्हारे होने को जीता रहा
गढ़ता रहा अपनी कल्पना मे तुम्हें
तुम्हें उठाए-उठाए अपने वजूद मे
थकाता रहा ख़ुद को

वह इस जमाने का सिसिफ़स
नायक नहीं था किसी प्रेमकथा का
जिस तंत्र में बिना प्रेम के भी
सुखी जिंदा रही हो तुम
उसी तंत्र मे निरर्थक ख़त्म हुआ
एक हतास जीवन था ।   
                      -आलोक श्रीवास्तव       

Wednesday, February 16, 2011

स्वतंत्रता प्रेम का दूसरा नाम है .................


मैं अपनी प्रेमिका को जितनी स्वतंत्रता संभव है, देता हूं, लेकिन कभी कभार जब भी मुझे पीड़ा होती है, मैं बेचैन हो जाता हूं, क्या इसका अर्थ यह है कि मैं खुद को इतना प्रेम नहीं करता, और तभी मैं खुद को दूसरे के बाद रखता हूं?
शायद जितना तुम सोचते हो, यह उससे कहीं जटिल है।

पहली बात; अपनी प्रेमिका को स्वतंत्रता तुम देते हो यह बात ही गलत है। अपनी प्रेमिका को स्वतंत्रता देने वाले तुम कौन होते हो?तुम प्रेम कर सकते हो, और प्रेम का अर्थ है स्वतंत्रता। यह कोई ऐसी चीज नहीं जो दी जा सके, और अगर यह दे सकने वाली बात है तो वे सभी समस्याएं आएंगी जो तुम भुगत रहे हो।

तो पहली बात तो यही है कि तुम कुछ कर रहे हो। तुम सच में स्वतंत्रता देना नहीं चाहते, तुम सदा चाहोगे कि ऐसी कोई परिस्थिति न बने जब तुम्हें स्वतंत्रता देनी पड़े। परंतु तुमने मुझे बार-बार एक बात कहते सुना है कि प्रेम स्वतंत्रता देता है इसलिए तुम अचेतन रूप में स्वतंत्रता देने के लिए खुद को मजबूर करते हो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम फिर प्रेम ही नहीं।

तुम एक पीड़ादायी परिस्थिति में हो; अगर तुम स्वतंत्रता नहीं देते हो, तो तुम्हें अपने पर शक होने लगता है, अगर तुम स्वतंत्रता देते हो।,जो कि तुम दे नहीं सकते तो अहंकार बड़ा ईर्षालु है और यह हजारों प्रश्न उठाएगा: "क्या तुम अपने प्रेमी-प्रेमिका के लिए काफी नहीं हो कि उसे स्वतंत्रता चाहिए--तुम से स्वतंत्र होकर किसी और के पास जाने के लिए? यह बात पीड़ा देती है, और इसीलिए तुम यह महसूस करते हो, मैं तो खुद को दूसरे के बाद रखता हूं।

उसे स्वतंत्रता देने में तुमने अपने आगे किसी और को रखा है, और खुद को बाद में, यह अहं के विरोध में है, इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है, क्योंकि जो स्वतंत्रता तुमने दी है, तुम उसका बदला लोगे ही। वही स्वतंत्रता तुम अपने लिए भी चाहोगे-भले ही तुम्हें उसकी जरूरत है या नहीं-यह बात ही नहीं है। बस यह सिद्ध करने के लिए कि तुम्हें धोखा नहीं दिया जा रहा।

दूसरी बात: क्योंकि तुम्हारी प्रेमिका किसी और के साथ है तो तुम्हें अपना उसको साथ देना अटपटा सा लगता है, वह तुम्हारे और उसके बीच खड़ा होगा। उसने तुम्हें छोड़ा और किसी दूसरे को अपनाया है; उसने तुम्हारा अपमान किया है। और तुमने इतना कुछ किया है; तुम इतने उदार रहे हो कि उसे स्वतंत्रता दी, क्योंकि तुम्हें पीड़ा हो रही है तो तुम उसे किसी न किसी कारण से पीड़ा दोगे।

लेकिन यह पूरी बात किसी नासमझी से उठती है। मैंने यह नहीं कहा कि अगर तुम प्रेम करो तो तुम्हें स्वतंत्रता देनी ही होगी, नहीं मैंने कहा है कि प्रेम स्वतंत्रता है। लीली यह प्रश्न देने का नहीं है। अगर तुम्हें देना पड़ता है तो बेहतर है न देना। वैसे ही रहो जैसे हर कोई है। बेकार के झंझट क्यों पैदा करना? वैसे भी वे बहुत हैं।

अगर तुम्हारे प्रेम में वह गुणवत्ता आ गई है कि स्वतंत्रता उसी का एक अंग है, कि तुम्हारी प्रेमिका को तुम्हारी आज्ञा की जरूरत नहीं है... वास्तव में अगर मैं तुम्हारी जगह होता और मेरी प्रेमिका मुझसे आज्ञा मांगती तो मुझे पीड़ा होती। इसका अर्थ है कि उसे मेरे प्रेम पर भरोसा नहीं है। मेरा प्रेम स्वतंत्रता है। मैंने उसे प्रेम किया है, इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे सभी दरवाजे खिड़कियां बंद कर देनी चाहिए कि वह किसी और के साथ हंस न सके, नाच न सके प्रेम न कर सके..क्योंकि हम कौन हैं?

यही मूल प्रश्न है जो हर व्यक्ति को पूछना होगा: हम कौन हैं? हम सभी अजनबी हैं, और किस अधिकार से हम इतने हावी हो जाते हैं कि हम कह सकें, "मैं तुम्हें स्वतंत्रता दूंगा' या "मैं तुम्हें स्वतंत्रता नहीं दूंगा' या "अगर तुम मुझे प्रेम करते हो,तो तुम किसी और से प्रेम नहीं कर सकते?' यह सभी नादान धारणाएं हैं, लेकिन उन्होंने मनुष्य जाति को शुरू से ही प्रभावित किया है, और हम अभी भी कठोर हैं, हमें अभी भी पता नहीं कि प्रेम क्या है।

अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं तो मैं अनुगृहीत होऊंगा कि उस व्यक्ति ने मेरा प्रेम स्वीकार किया और मुझे ठुकराया नहीं, यही बहुत पर्याप्त है। लेकिन मैं उसके इर्द-गिर्द दीवार खडी कर रहा हूं; उसने मुझसे प्रेम किया और उसका पुरस्कार मैं उसके चारों ओर कैदखाना बनाकर दे रहा हूं। या मैंने उससे प्रेम किया और परिणाम स्वरूप वह मेरे चारों ओर दीवार बना रही है। हम एक-दूसरे को बड़े पुरस्कार दे रहे हैं।

अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं तो मैं अनुगृहीत हूं और उसकी स्वतंत्रता पर आंच नहीं आती। यह मेरे द्वारा नहीं दी जा सकती। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, और मेरा प्रेम इसे छीन नहीं सकता। प्रेम किसी की स्वतंत्रता को कैसे छीन सकता है, खास तौर पर जिसे तुम प्रेम करते हो उसकी? यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम तो यह भी नहीं कह सकते, "मैं उसे स्वतंत्रता देता हूं'। तुम होते कौन हो? बस एक अजनबी, तुम रास्ते पर मिले हो, अचानक ऐसे ही और उसने गरिमापूर्वक तुम्हारा प्रेम स्वीकार किया, बस अनुगृहीत हो जाओ, और उसे उसका मनचाहा जीवन जीने दो, और खुद भी अपना मनचाहा जीवन जीओ। तुम्हारी जीवन शैली में बाधा नहीं पडनी चाहिए।

स्वतंत्रता इसे कहते हैं। तब प्रेम तुम्हारे तनाव, तुम्हारी चिंताएं, तुम्हारी वेदना को क्षीण करने में और तुम्हें अधिक उल्लासपूर्ण होने में सहायक होगा।

लेकिन संसार में जो हो रहा है वह इसके बिलकुल विपरीत है। प्रेम इतना दुख, इतनी पीड़ा पैदा करता है कि लोग अंत में यही निर्णय लेते हैं कि बेहतर यही होगा कि अब प्रेम में नहीं पड़ेंगे। वे अपने हृदय के द्वार बंद कर लेते हैं, क्योंकि यह बस नरक है और कुछ नहीं।

लेकिन प्रेम के प्रति द्वार बंद करना सत्य के प्रति, अस्तित्व के प्रति बंद द्वार करने जैसा है ; इसलिए मैं इसका समर्थन नहीं करता। मैं कहूंगा: प्रेम का पूरा ढांचा बदल डालो। तुमने प्रेम को बड़ी कुरूप परिस्थिति में धकेल दिया है- परिस्थिति को बदलो।

अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए प्रेम को सहायक होने दो। प्रेम को अपने हृदय का पोषक होने दो और एक साहस ताकि तुम तुम्हारा हृदय खोल सको। किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि समस्त जगत के लिए।

ओशो, बियॉण्ड सायकॉलॉजी , प्रवचन #25