चाँद तो तुम भी नहीं पाओगी 
शायद प्रेम भी खो बैठो 
दुख भी छू नहीं पाएगा तुम्हें 
दिल के टूटने की बात तो दूर है 
बहुत संभव है जीवन कट जाए ठीक-ठीक
हंसी मे गुजर जाये दिन 
और जिसे तुम यथार्थ कहती हो 
उस सपने मे रातें 
एक निरापद जीवन जी लेने के बाद 
शायद तुम सोचो 
कुछ दार्शनिक लहजे मे 
बीते दिनों और छूटे सम्बन्धों के बारे मे 
शायद तुम थोड़ा दुखी भी होओ 
थोड़ा उदास भी 
पर तुम्हारे खयाल से बहुत दूर होगा 
उस आदमी का दुख 
जो शब्द मे ,खंडहर मे ,नदी–तट,
किसी जंगल ,किसी भीड़ ,किसी गाँव ,
किसी शहर 
सिर्फ तुम्हारे होने को जीता रहा 
गढ़ता रहा अपनी कल्पना मे तुम्हें 
तुम्हें उठाए-उठाए अपने वजूद मे 
थकाता रहा ख़ुद को
वह इस जमाने का सिसिफ़स 
नायक नहीं था किसी प्रेमकथा का
जिस तंत्र में बिना प्रेम के भी 
सुखी जिंदा रही हो तुम 
उसी तंत्र मे निरर्थक ख़त्म हुआ 
एक हतास जीवन था ।    
                      -आलोक श्रीवास्तव        
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