| | मैंने निश्चित ही कहा है कि हिंसा आत्म-अज्ञान से पैदा होती है। और इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। आत्म-अज्ञान भी हमारा चुनाव है, हिंसा भी हमारा चुनाव है। हम होना चाहें अहिंसक, तो अब कोई हमें रोक नहीं सकता। मनुष्य जो भी होना चाहे, हो सकता है। मनुष्य का विचार ही उसका व्यक्तित्व है; उसका निर्णय ही, उसकी नियति है; उसकी आकांक्षा ही, उसकी अभीप्सा ही, उसका आत्मसृजन है।
इसलिए अब कोई आदमी अपने मन में यह कभी भूल कर भी न सोचे कि वह जो है, उसमें वह क्या कर सकता है? क्रोध है, तो क्या कर सकता है? हिंसा है, तो क्या कर सकता है? अज्ञान है, तो क्या कर सकता है? आदमी को यह कहने का हक नहीं है। जैसे ही आदमी कहता है कि मैं क्या कर सकता हूं, वह यह खबर दे रहा है कि कर सकता है, और अपने को समझाने की कोशिश कर रहा है कि क्या कर सकता हूं! कोई पशु नहीं कहता कि मैं क्या कर सकता हूं? यह सवाल ही नहीं है।
आदमी जिस दिन कहता है, मजबूरी है, मैं क्या कर सकता हूं? हिंसक मुझे होना ही पड़ेगा! उस दिन वह यह कह रहा है कि मैं चुन भी रहा हूं और चुनाव की जिम्मेवारी भी छोड़ रहा हूं। मैं हिंसक हो भी रहा हूं और हिंसक होने का दोष किसी और के कंधों पर--प्रकृति के, परमात्मा के कंधों पर छोड़ रहा हूं।
जिस आदमी ने अपनी आदमियत का बोझ किसी और पर छोड़ा, वह पशुता की दुनिया में वापस गिर जाता है। असल में वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। जो आदमी चुनने से इनकार कर रहा है, वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। वह यह कह रहा है कि नहीं, हम पशु बेहतर--जहां न कोई चुनाव है, न कोई जिम्मेवारी है, न कोई निर्णय है, न कोई परेशानी है। जो है, वह है। हम वापस लौटते हैं।
शराब पीकर आदमी पशु में वापस लौट जाता है। हिंसा करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है। क्रोध करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है।
इसलिए क्रोध से भरे व्यक्ति को अगर देखें तो उसमें सिर्फ आदमियत की रूपरेखा भर दिखाई पड़ती है, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हिंसा से भरी हुई आंखें देखें, तो उसमें आदमी की आंखें नहीं दिखाई पड़तीं, तत्काल आंखों में एक मेटामार्फोसिस हो जाती है। आंखें बदल जाती हैं। भीतर से कोई छिपा हुआ पशु तत्काल प्रगट हो जाता है। इसलिए क्रोध में, हिंसा में आदमी पशु जैसा व्यवहार करता है; काटता है, चीखता है, नोचता है।
आदमी के नाखून छोटे पड़ गए हैं, क्योंकि उनकी बहुत जरूरत नहीं रह गई है। जंगली जानवर के पास नाखून हैं, जो आपकी हड्डियों तक के मांस को बाहर खींच लायें। लाखों वर्षों से आदमी को अब किसी की हड्डियों तक के मांस को खींचने की जरूरत नहीं रह गई, तो नाखून छोटे हो गए हैं। तो फिर आदमी को छुरी, भाले, बर्छियां बनानी पड़ी हैं। वे सब्स्टीटयूट हैं, जिनसे वह जानवर का काम ले लेता है। क्योंकि नाखून उसके पास छोटे पड़ गये हैं। दांत उसके अब ऐसे नहीं रहे कि वे किसी के मांस को काटकर बाहर निकाल लें, तो उसने हथियार, औजार बनाए; गोलियां बनाई हैं जो आदमी की छाती में धंस जायें।
आदमी ने जितने अस्त्र-शस्त्र खोजे हैं, वह अपनी खो गई पशुता को सब्स्टीटयूट करने के लिए, परिपूरक करने के लिए खोजे हैं। जो जानवरों के पास है वह हमारे पास नहीं है, तो हमें बनाना पड़ा है।
निश्चित ही, जब हमने बनाया है तो जानवरों से बेहतर बना लिया है।
किस जानवर के पास एटम-बम है? किस जानवर के पास सैकड़ों मील दूर बम फेंकने के उपाय हैं? नहीं, जानवर के पास बड़े प्रकृति-प्रदत्त साधन हैं। और आदमी ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता का उपयोग करके--करोड़ों जानवरों को इकट्ठा करके भी जो न हो सके, वह एक आदमी कर सकता है। यह आदमी का अपना चुनाव है।
जिस दिन किसी आदमी को यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ जाती है कि जो भी मैं हूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, उसी दिन से परिवर्तन और रूपांतरण शुरू हो जाता है। जिस आदमी की जिंदगी में अभी यह खयाल है कि जो मैं हूं, हूं; उसमें मेरा कोई वश नहीं, उस आदमी की जिंदगी में धर्म के मंदिर का द्वार कभी भी नहीं खुल सकता।
उत्तरदायित्व मेरा है, और मैं ही निर्णायक हूं अपनी नियति का, इस बात का बोध मनुष्य की जिंदगी को परिवर्तित करता है।
इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है। जिम्मेवार इन अर्थों में कि वह तोड़ सकता है, और नहीं तोड़ रहा है; मिटा सकता है, और नहीं मिटा रहा है; मुक्त हो सकता है, और नहीं मुक्त हो रहा है।
आचार्य श्री, कृपया समझाएं कि ध्यान-साधना में हिंसक-वृत्तियों का विसर्जन और उदात्तीकरण अर्थात डिजोल्यूशन और सब्लीमेशन किस प्रकार घटित होता है?
हिंसा की वृत्ति अकेली वृत्ति ही नहीं है, हिंसा की वृत्ति के साथ हिंसा के अनेक वेगों का दमन भी संयुक्त है, सप्रेशन भी संयुक्त है। हिंसा की वृत्ति तो है ही, हिंसा करने की आकांक्षा भी है। लेकिन हजार मौकों पर हिंसा करने का उपाय नहीं होता है। हिंसा करना चाहते हैं और नहीं कर पाते हैं। क्योंकि संस्कृति है, सभ्यता है, जीवन की व्यवस्था है, परिस्थितियां हैं, प्रतिकूलताएं हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी क्षण में किसी दूसरे को मार डालने का विचार न किया हो! ऐसा आदमी भी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी क्षण में अपने को ही मार डालने का विचार न किया हो! दिन में न किया होगा, तो रात सपने में किया होगा। लेकिन सभी आदमी दूसरों को मार नहीं डालते, और सभी आदमी आत्महत्याएं नहीं कर लेते। सोचते हैं, प्रतिकूलताएं हैं...संभव नहीं हो पाता।
और जब एक बार हिंसा का भाव मन में उठ जाये और प्रगट न हो पाए, तो हिंसा की वृत्ति तो रहती ही है, हिंसा के भाव का वेग भी दमित हो जाता है। यह भी इकट्ठा होने लगता है। हिंसा की वृत्ति तो भीतर बनी ही रहती है, और न की गई हिंसा की, की गई भावनाएं भी संग्रहीत होती चली जाती हैं। एक जन्म की नहीं, अनेक जन्मों की भी इकट्ठी हो जाती हैं। उस संग्रह को भी हम अपने साथ लेकर चल रहे हैं। वृत्ति तो साथ है ही, दबाए हुए वेग भी साथ हैं। इधर वृत्ति रोज नये वेग पैदा करती है और उधर पुराने वेगों का संग्रह बढ़ता चला जाता है। और किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है।
इसलिए हिंसा की वृत्ति से जो मुक्ति है, उस मुक्ति के लिए दो बातें समझ लेनी जरूरी है: हिंसा की वृत्ति का तो विसर्जन होना ही चाहिए, हिंसा के दबे हुए, दबाए गए वेगों का विसर्जन भी जरूरी है। हिंसा की वृत्ति मिटेगी, तो मैं आने वाले भविष्य में हिंसा के वेगों को पैदा नहीं करूंगा, लेकिन मैंने जो अतीत में वेग दबाये हैं, उनका विसर्जन, उनका रेचन, उनकी कैथार्सिस भी होनी जरूरी है।
महावीर ने बहुत सुंदर शब्द कैथार्सिस के लिए प्रयोग किया है। पश्चिम में मनसशास्त्री जिसे कैथार्सिस कहते हैं, रेचन कहते हैं, महावीर ने उसे "निर्जरा' कहा है। वह बहुत अदभुत शब्द है।
निर्जरा का अर्थ है, विदरिंग अवे। निर्जरा का अर्थ है, किसी चीज का झड़ जाना। कोई चीज जो इकट्ठी है, उसका बिखर जाना। निर्जरा का अर्थ है, अगर ऊपर धूल इकट्ठी हो गई है, तो धूल के कणों को फेंककर अलग कर देना।
बहुत वेग हमारे भीतर इकट्ठे हैं। ध्यान में इनकी निर्जरा, इनकी कैथार्सिस की जा सकती है; और सिर्फ ध्यान में ही की जा सकती है। और कोई उपाय मनुष्य के दबे हुए वेगों की निर्जरा का नहीं है।
ध्यान में कैसे की जा सकती है?
जब आपके मन में किसी को घूंसा मारने की इच्छा पैदा होती है, तब आप एक छोटा सा प्रयोग करके देखेंगे और बहुत हैरान होंगे और यह प्रयोग मैं मजाक में नहीं कह रहा हूं। अमेरिका में एक बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला इस प्रयोग को आज कर रही है।
केलिफोर्निया में एक संस्था है, इसालेन इंस्टीटयूट। शायद अमेरिका में एक बहुत कीमती ऋषि आज मौजूद है। उसका नाम है, पर्ल्स। वह जिन लोगों के मन में बड़ी हिंसा है, उनकी आंखों पर पट्टियां बंधवा देता है, तकिए उनके सामने रख देता है, और कहता है, मारो घूंसे और समझो कि दुश्मन सामने है। जिसे तुम्हें मारना है, उसी को मारो!
पहले तो आदमी हंसता है कि तकिए को कैसे मारें! लेकिन किसी दूसरे आदमी को मारने में और तकिए को मारने में हाथ को कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। और किसी आदमी को मारने में और किसी तकिए को मारने में, खून में जो विष पैदा हो गया है, उसके निकलने में भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। दूसरा आदमी भी तकिए से ज्यादा और क्या है?
तो पर्ल्स अपने हिंसक मरीज को कहेगा कि मारो तकिए को!
पहले मरीज हंसेगा, लेकिन पर्ल्स कहेगा, हंसो मत, मारो! मरीज कहेगा, आप भी क्या मजाक करते हैं! लेकिन पर्ल्स कहेगा, थोड़ा मजाक ही सही, लेकिन मारो! मरीज तकिए को मारना शुरू करेगा और थोड़ी ही देर में आस-पास खड़े लोग देखकर हैरान होंगे कि न केवल मारने में उसकी गति आ गई, न केवल वह तकिए से जूझने लगा, न केवल तकिए से वह दुश्मनी निकाल रहा है, बल्कि वह तकिए को चीरेगा, फाड़ेगा, मुंह से काट डालेगा; तकिए के टुकड़े-टुकड़े कर देगा! और जिन लोगों को भी इन प्रयोगों से गुजरना पड़ा है, वे प्रयोग के बाद कहते हैं कि मन बहुत हल्का हो गया है। इतना हल्का कभी भी नहीं था।
ये पर्ल्स क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि तुमने अब तक हिंसा सकारण निकाली है, किसी पर निकाली है। अब तुम हवा में निकाल लो, किसी पर मत निकालो; क्योंकि जब भी किसी पर निकाली जायेगी, तो उसकी प्रतिक्रियाएं होंगी।
अगर मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो यह घूंसा आकाश में खो नहीं जायेगा, अंतरिक्ष इसको एबजार्ब नहीं कर लेगा। जिसको घूंसा मारूंगा, वह इसका उत्तर देगा। आज देगा, कल देगा, परसों देगा--प्रतीक्षा करेगा, लेकिन उत्तर देगा। और जब मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो हो सकता है वह बुद्ध जैसा, महावीर जैसा कोई आदमी हो, और उत्तर न भी दे, तो भी जैसे ही मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो मेरे मन में भी प्रतिक्रिया और पश्चाताप होगा।
और ध्यान रहे! क्रोध ही बुरा नहीं है, पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। क्योंकि पश्चात्ताप उल्टा हो गया क्रोध है, पश्चात्ताप शीर्षासन करता हुआ क्रोध है। पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। असल में पश्चात्ताप करके आदमी फिर से क्रोध करने की तैयारी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता है। जब एक आदमी रिपेंट करता है और कहता है, बहुत बुरा हुआ कि मैंने क्रोध किया, तब वह अपने मन को यह समझा रहा है कि मैं इतना बुरा आदमी नहीं हूं, एक बुरा काम हो गया है, यह दूसरी बात है।
पश्चात्ताप करके वह अपने अच्छे आदमी को वापस पुनर्स्थापित कर रहा है। वह रीइस्टेबलिश कर रहा है अपनी पुरानी इज्जत को, अपनी ही आंखों में। और जैसे ही वह पुनर्स्थापित हो जायेगा, कल फिर घूंसा मारने के लिए तैयार हो जायेगा। परसों फिर पश्चात्ताप, फिर घूंसा। क्रोध और पश्चात्ताप का एक दुष्ट-चक्र घूमता रहेगा।
और जब हम किसी व्यक्ति को घूंसा मारते हैं, तो न केवल पश्चात्ताप होता है, बल्कि वह घूंसे का उत्तर देगा, इसकी पुनः तैयारी भी शुरू हो जाती है। इसलिए हिंसा फिर एक दुष्ट-चक्र बन जाती है, जिसके बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है।
लेकिन तकिए को अगर एक आदमी घूंसा मार रहा है, तो ऐसा कुछ भी नहीं घटता। तकिए को घूंसा मारने में निर्जरा हो रही है। पर्ल्स तकिए को घूंसा मारने को कह रहा है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वह बहुत आब्जेक्टिव हो गई है। महावीर पच्चीस सौ साल पहले थे। वे कहते, हवा में ही घूंसा मार दो, तकिए की क्या जरूरत है? लेकिन हम कहेंगे, हवा में घूंसा? तकिए को तो फिर भी मारने जैसा लगता है। वह कम से कम आदमी की पीठ जैसा लगता है, पेट जैसा लगता है! तकिए को घूंसा छुयेगा तो ऐसा ही लगेगा कि किसी को छुआ, थोड़ा-सा तो तकिया भी उत्तर देगा।
दुनिया पच्चीस सौ साल में महावीर के बाद वस्तुगत हो गई है। महावीर ने जिस ध्यान की बात की है, उस ध्यान में तकिए की भी कोई जरूरत नहीं है। मैं भी जिस ध्यान की बात करता हूं, उसमें भी तकिए की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन शायद अमेरिका में तकिए के बिना घूंसा मारना और भी मुश्किल हो जायेगा। वस्तुगत कुछ तो होना ही चाहिए। आदमी न सही, तो तकिया ही सही।
महावीर तो तकिए को भी मारने को मना करेंगे। वे तो कहेंगे...पर्ल्स को वे तो कहेंगे, इसमें भी थोड़ी-सी हिंसा हो रही है। यह आदमी तकिए में अपने दुश्मन को प्रोजेक्ट कर रहा है। कोई दुश्मन नहीं है, जिसको चोट पहुंच रही है, लेकिन इस आदमी को किसी को मारने का मजा और रस आ रहा है। यह रस भी हिंसा की धारा को थोड़ा-बहुत जारी रखेगा। इससे हिंसा की पूर्ण निर्जरा नहीं हो जायेगी।
इसलिए पर्ल्स की लेबोरेटरी से गए लोग दो-चार-छह महीने बाद फिर वापस आ जाएंगे और कहेंगे कि हिंसा फिर मन में इकट्ठी हो गई। अब फिर उनको तकिया चाहिए और फिर उनको मारना पड़ेगा।
ध्यान की प्रक्रिया कहती है कि आप किसी की फिक्र छोड़ दें, सब्जेक्टिव वायलेंस कर लें। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब अपने साथ हिंसा करना नहीं है। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब है, सिर्फ हिंसा को हो जाने दें--बिना किसी आब्जेक्ट के, बिना किसी विषय के, बिना किसी वस्तु के।
एक आदमी अगर ध्यान में चीख मारकर चिल्लाये, घूंसे मारे, नाचे, कूदे, तो उसके भीतर जो हिंसा के दबे हुए वेग हैं, उनकी निर्जरा होती है। वे गिर जाते हैं। एक घंटे भर के किसी भी दिन के प्रयोग के बाद आप इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि आपके भीतर के दबे हुए वेग उड़ गए, आप हल्के होकर कमरे के बाहर आ गए। उस दिन दिनभर आप क्रोध न कर पायेंगे, उतनी आसानी से जितनी आसानी से कल किया था। उतनी आसानी से किसी को घूंसा न बांध पायेंगे, जितनी आसानी से सदा बांधा था। वे ही कारण, जो कल आपकी आंखों को लाल खून से भर देते, आज आपकी आंखों को झील की तरह नीला ही छोड़ जायेंगे। और एक हंसी भी अपने पर आनी शुरू होगी कि जिस हिंसा की ऐसे ही निर्जरा हो सकती थी, उसके लिए अकारण ही मैंने दूसरों को पीड़ा देकर दुष्ट-चक्र निर्मित किये, विसीयस सर्किल बनाए।
महावीर एक गांव के पास खड़े थे और कुछ लोगों ने आकर उन्हें बहुत पीटा। किसी ने उनके कान में खीलें ठोंक दीं। वे खड़े देखते रहे। पीछे किसी ने उनसे पूछा, आपने कुछ भी न कहा? आप कुछ तो बोलते, इतना तो कहते कि अकारण मुझे क्यों मार रहे हो?
तो महावीर ने कहा, अकारण वे नहीं मार रहे थे। उनके भीतर मारने की बात का जरूर ही कोई कारण रहा होगा। हो सकता है, मुझसे संबंधित न हो कारण, लेकिन उनके भीतर तो कारण रहा ही होगा। और फिर मैंने सोचा कि वे मुझे ही मार लें तो बेहतर है, वे किसी दूसरे को मारेंगे, तो बिना मार का उत्तर पाए वापस न लौटेंगे। उनकी हिंसा की निर्जरा हो जाये। तो मुझसे बेहतर आदमी उन्हें खोजना मुश्किल है।
महावीर तकिए की तरह ही व्यवहार किये उन लोगों के साथ।
ध्यान में, दबे हुए समस्त-वेगों की निर्जरा होती है--वे चाहे हिंसा के हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे काम के हों, चाहे लोभ के हों--ध्यान में समस्त दबे वेगों की निर्जरा होती है। और जब वेगों की निर्जरा हो जाये, जब सप्रेस्ड, दबी हुई शक्तियां बिखर जायें, तो वृत्ति से छुटकारा पाने में बड़ी आसानी हो जाती है। जब किसी के घर की तिजोरी का सारा धन फिंक जाये, तो तिजोरी को फेंकने में बहुत देर नहीं लगती। तिजोरी को तो आदमी बचाता ही इसलिए है कि उसके भीतर जो धन इकट्ठा है। अगर तिजोरी का सारा धन बांट दिया गया हो, तो तिजोरी को दान करने में बहुत कठिनाई नहीं पड़ती।
हिंसा की वृत्ति से छुटकारा पाना उतना कठिन नहीं पड़ेगा। हिंसा के वेग, जो हिंसा की वृत्ति को तिजोरी बनाकर बैठ गए हैं, उनसे छुटकारा पाना ही पहला सवाल है। और जिस दिन सारे वेग मुक्त हो जाते हैं, उस दिन हिंसा अपनी नग्नता में, अपनी टोटल नेकेडनेस में दिखाई पड़ती है। और जब कोई व्यक्ति हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखने में समर्थ हो जाता है, तो वह एक क्षण भी हिंसक नहीं रह सकता। क्योंकि हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखना, उससे मुक्त हो जाना है। वह इतनी पीड़ा है, वह इतनी कुरूपता है, वह इतनी गंदगी है, कि उसमें कोई एक क्षण भी रुकने को राजी नहीं होगा। वह ऐसा ही है हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखना, जैसे किसी के घर में आग लग गई हो, और लपटों में घर घिर जाए, और फिर कोई आदमी जब लपटों को देख ले, तो एक क्षण भी उस घर में रुकना संभव न हो। वह छलांग लगाये और बाहर निकल जाये। ठीक ऐसे ही हिंसा की लपटों में घिरा आदमी बाहर कूद पड़ता है। लेकिन हिंसा की लपटें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि हिंसा की वृत्ति और स्वयं के बीच में न-मालूम कितनी पर्तें हैं दबे हुए वेगों की। उन वेगों के कारण हिंसा की वृत्ति का दर्शन नहीं हो पाता। उसके कारण नेकेड वायलेंस दिखाई नहीं पड़ती। उसके कारण हमेशा ही हमें यही दिखाई पड़ता है कि हिंसा भी हमारी मित्र है, क्योंकि हिंसा का हमें उपयोग करना है। कल कोई दुश्मन होगा, कल कोई हमला करेगा, तो जवाब कैसे देंगे? वे जो बीच में दबे हुए वेग हैं, उनकी लंबी धुएं की पर्तों के कारण हिंसा की नग्नता दिखाई नहीं पड़ती।
ध्यान, वेगों से मुक्ति दिलाकर हिंसा का आमना-सामना, एनकाउंटर करा देता है। और जिस आदमी ने भी हिंसा को देख लिया, वह अहिंसक हो गया। जिस आदमी ने भी हिंसा को पहचान लिया, उसके हिंसक होने के फिर उपाय नहीं रह जाते। क्योंकि कोई भी आदमी जान कर नर्क में उतरने को कभी राजी नहीं होता है। और अगर कभी कोई नर्क में उतरता है, तो वह नर्क को स्वर्ग समझकर ही उतरता है। कोई आदमी कभी आग की लपटों में नहीं उतरता और अगर उतरता है तो आग की लपटों को स्वर्ग का द्वार समझकर ही उतरता है।
ध्यान विसर्जन है, निर्जरा है, कैथार्सिस है। ध्यान का अर्थ है: आपके भीतर जो हो रहा है, उसे अकारण प्रकट हो जाने दें--किसी पर नहीं, शून्य में। उसे शून्य को समर्पित कर दें।
अब जब क्रोध आये, तो एक छोटा-सा प्रयोग करके देख लें। जब क्रोध आये, तो द्वार बंद कर लें और खाली कमरे में क्रोधित हो जायें। पूरा क्रोध कर लें खाली कमरे में। बहुत हंसी आयेगी, क्योंकि बड़ा अजीब मालूम पड़ेगा, एबसर्ड मालूम पड़ेगा। सदा क्रोध दूसरों पर किया है, लेकिन एक बार अकेले में करके देख लें और तब दूसरे पर करना मुश्किल होता जायेगा। पहली दफे अकेले में हंसी आयेगी और दूसरी दफे से दूसरे पर करने में हंसी आने लगेगी। क्योंकि जो पागलपन आप अकेले में भी नहीं कर सकते, वह पागलपन आप सबके सामने कैसे कर सकते हैं? और जो पागलपन अकेले में भी हंसी लाता है, वह चार आदमियों के सामने करके लोगों के मन में आपकी क्या तस्वीर बनाता होगा? इसकी कल्पना कमरे में आईना रखकर और दिल खोलकर क्रोध कर के देख लें। तोड़ना ही हो, तो आईने को तोड़ देना। और उस सारे विध्वंस के बीच खड़े होकर देखना कि आपके भीतर किस तरह के जहर हैं! इनकी निर्जरा होगी। इनकी कैथार्सिस होगी। ये गिर जायेंगे। और इनके गिरने के बाद आप अपनी हिंसा को देखने में समर्थ हो सकेंगे।
हिंसा से मुक्ति के लिए हिंसा का दर्शन अनिवार्य है। | |