घुमक्कड़
को दुनिया में विचरना है,
उसे अपने जीवन को नदी के प्रवाह की तरह सतत प्रवाहित रखना है, इसीलिए उसे प्रवाह में बाधा डालने वाली
बातों से
सावधान रहना है। ऐसी बाधक बातों में कुछ के बारे में
कहा जा चुका है, लेकिन जो सबसे बड़ी बाधा तरुण के मार्ग में आती है, वह है प्रेम। प्रेम का अर्थ है स्त्री और पुरुष का पारस्परिक स्नेह, या शारीरिक और मानसिक लगाव। कहने को तो
प्रेम को एक
निराकार मानसिक लगाव कह दिया जाता है, लेकिन वह इतना निर्बल नहीं है। वह नदी जैसे प्रचंड प्रवाह को रोकने की भी सामर्थ्य रखता
है। स्वच्छंद मनुष्य की सबसे भारी निर्बलता
इसी प्रेम में निहित है। घुमक्कड़ के सारे जीवन में मनुष्यमात्र के साथ मित्रता और प्रेम व्याप्त है। इस
जीवन-नियम का वह कहीं भी अपवाद नहीं मानता।
स्नेह जहाँ पुरुष-पुरुष का है,
वहाँ वह उसी निराकार सीमा में सीमित रह सकता है, लेकिन पुरुष और स्त्री का स्नेह कभी
प्लातोनिक-प्रेम तक सीमित नहीं रह सकता।
घुमक्कड़ अपनी यात्रा में घूमते-घामते किसी स्थान पर पहुँचता है। उसके स्निग्ध व्यवहार से उस अपरिचित स्थान के
नर-नारियों का भी उसके साथ मधुर संबंध स्थापित
हो जाता है। यदि घुमक्कड़ उस स्थान पर कुछ अधिक रह जाता है, और किसी अगलितवयस्का अनतिकुरूपा स्त्री से ज्यादा
घनिष्ठता हो जाती है,
तो निश्चय ही वह साकार-प्रेम के रूप में
परिणत होकर रहेगी। बहुतों ने पवित्र, निराकार, अभौतिक प्लातोनिक-प्रेम की बड़ी-बड़ी
महिमा गाई है, और समझाने की कोशिश की है कि स्त्री-पुरुष का प्रेम
सात्विक-तल तक सीमित रह सकता है। लेकिन यह व्याख्या आत्मसम्मोहन और परवंचना से अधिक महत्व
नहीं रखती। यदि कोई यह कहे कि ऋण और
धन विद्युत तरंग मिलकर प्रज्वलित नहीं होंगे, तो
यह मानने की बात नहीं
है।
जैसा
कि मैंने पहले ही कहा है, घुमक्कड़ को केवल अपने स्वाभाविक स्नेह या मैत्रीपूर्ण भाव से ही इस खतरे का डर नहीं है। डर तब उत्पन्न
होता है, जब वह स्नेह
ज्यादा घनिष्ठता और अधिक कालव्यापी
हो जाय, तथा पात्र भी अनुकूल हो। अधिक घनिष्ठता न
होने देने के लिए ही कुछ घुमक्कड़ाचार्यों ने नियम बना दिया था, कि घुमक्कड़ एक रात से अधिक एक बस्ती में न रहे। निरुद्देश्य
घूमनेवालों के लिए यह नियम अच्छा भी हो सकता है, किंतु घुमक्कड़ को
घूमते हुए दुनिया को आँखें खोलकर
देखना है,
स्थान-स्थान की चीजों और व्यक्तियों
का अध्ययन करना है। यह सब एक नजर देखते चले जाने से नहीं हो सकता। हर महत्वपूर्ण स्थान
पर उसे समय देना
पड़ेगा,
जो दो-चार महीने से दो-एक बरस तक हो
सकता है। इसलिए वहाँ घनिष्ठता उत्पन्न होने का भय अवश्य है। बुद्ध ने ऐसे स्थान
के लिए दो और संरक्षकों की बात
बतलाई है - ह्री (लज्जा) और अपत्रपा
(संकोच)। उन्होंने लज्जा और संकोच
को शुक्ल, विशुद्ध या महान धर्म
कहा है, और उनके माहात्म्य को बहुत गाया है। उनका कहना है, कि इन दोनों शुक्लधर्मों की सहायता से पतन से बचा जा सकता है। और बातों की तरह बुद्ध की इस साधारण-सी बात में भी महत्व है। लज्जा
और संकोच बहुत
रक्षा करते हैं, इसमें संदेह नहीं, जिस व्यक्ति को अपनी, अपने देश और समाज की प्रतिष्ठा का ख्याल होता है, उसे लज्जा और संकोच
करना ही होता है। उच्च श्रेणी
के घुमक्कड़ कभी ऐसा कोई कार्य नहीं कर
सकते, जिससे उनके व्यक्तित्व या देश पर लांछन लगे।
इसलिए ही और अपत्रपा के महत्व को कम से नहीं किया जा सकता। इन्हें घुमक्कड़ में अधिक मात्रा में होना चाहिए। लेकिन भारी कठिनाई
यह है कि अन्योन्यपूरक व्यक्तियों में एक दूसरे के साथ जितनी ही अधिक
घनिष्ठता बढ़ती जाती है,
उसी के अनुसार संकोच दूर होता जाता है, साथ ही दोनों
एक-दूसरे को समझने लगते हैं, जिसके परिणामस्वरूप लज्जा भी हट जाता है। इस प्रकार लज्जा और संकोच एक हद तक
ही रक्षा कर सकते हैं।
स्त्री-पुरुष
का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण और उसका परिणाम मानव की सनातन समस्या है। इसे हल
करने की हर तरह से कोशिश की गई है। आदिम समाज में यह कोई समस्या ही नहीं थी, क्योंकि वहाँ दोनों का संपर्क-संसर्ग बिलकुल स्वाभाविक रूप से होता था और समाज द्वारा उसमें कई आपत्ति नहीं उठाई जाती थी।
लेकिन जैसे-जैसे समाज का
विकास हुआ और विशेषकर स्त्री नहीं
पुरुष समाज का स्वामी बन गया, तब से
उसने इस स्वाभाविक संसर्ग में बहुत तरह
की बाधाएँ डालनी शुरू कीं। बाधाओं
को रखकर पहले उसने जहाँ-तहाँ
गुंजाइश भी रखी थी। कितनी ही जातियों में - जिन्हें एकदम आदिम अवस्था में
नहीं कह सकते - अतिथि सेवा में स्त्री का प्रस्तुत करना भी सम्मिलित था। ग्रीक विचारक ने अपने अतिथि की इस तरह सेवा की थी।
देहरादून जिले के जौनसार इलाके में इस शताब्दी के आरंभ तक अतिथि की इस प्रकार
से सेवा आम बात थी। इस तरह
के यौन-स्वेच्छाचार के जब सभी आदिम
तरीके उठा दिये गये, तो भी सारे
बंधनों को तोड़कर बहा ले जाने के डर से
लोगों ने दोहरे सदाचार का प्रचार
शुरू किया - ''प्रवृत्ते भैरवीचक्रे, निवृत्ते भैरवीचक्रे''। साधारण समाज के
सामने सदाचार का दूसरा रूप रखा गया,
और एकांत में स्वगोष्ठी वालों के सामने दूसरा ही सदाचार
माना जाने लगा। यह काम सिर्फ भारतवर्ष
में बौद्ध या ब्राह्मणतांत्रिकों ने
ही नहीं किया, बल्कि दूसरे देशों
में भी यह प्रथा देखी गई है। भारत में भी
यह प्रथा पुराण-पंथियों तक ही
संबंधित नहीं रही, बल्कि कितने ही पूज्य आधुनिक महापुरुषों ने इसे
आध्यात्मिक-साधना का एक आवश्यक अंग माना है। यौन-संसर्ग को उसके स्वाभाविक रूप तक में लेना कोई वैसी बात नहीं हैं, लेकिन आध्यात्मिक सिद्धि का उसे साधन मानना,
यह मनुष्य की निम्नकोटि की
प्रवृत्तियों से अनुचित लाभ उठाना
मात्र है,
मनुष्य की बुद्धि का उपहास करना है।
प्रथम
श्रेणी के घुमक्कड़ से यह आशा नहीं रखी जा सकती,
कि आध्यात्म सिद्धि, दर्शन, यौगिक चमत्कार की
भूल-भुलैया में पड़कर वह प्राचीन या नवीन
वाममार्ग की मोहक व्याख्याओं को
स्वीकार करेगा। शायद उसके असली आदिम रूप में स्वीकार करने में उसे उतनी
आपत्ति नहीं होगी, किंतु उसे अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष और दुनिया की सारी ऋद्धि-सिद्धियों का साधन मनवाना,
यह अति में जाना है। लेकिन स्वाभाविक मानने का यह अर्थ नहीं है,
कि घुमक्कड़ उसे बिलकुल हल्के दिल से
स्वीकार करे। वस्तुत:
उसे अपनी व्याख्या का स्वयं लाभ उठाने
की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और ख्याल रखना चाहिए,
कि वैसा करने पर उसका पंख कट जायगा, और फिर वह आकाशचारी विहग नहीं रह
सकेगा।
ह्री
और अपत्रपा के अतिरिक्त और भी चीजें हैं,
जिनको ध्यान रखते हुए घुमक्कड़ आत्म-रक्षा कर सकता है। यह मालूम है कि यौन-संबंध
जहाँ सुलभ है, वहाँ रतिज रोगों
की भरमार होती है। उपदंश और मूत्रकृच्छ
के भयानक रोग उन स्थानों पर
सर्वत्र फैले दीख पड़ते हैं। अल्पविकसित
समाज में यौन-संबंधों पर उतना
प्रतिबंध नहीं रहता, और जहाँ ऐसे समाज का
संबंध अधिक प्रतिबंध वाले तथा अधिक विकसित समाज के व्यक्तियों से होता
है, वहाँ रतिज रोगों का भयंकर प्रसार हो पड़ता है। हिमालय के लोग
यौन-संबंध में बहुत कुछ दो-ढाई हजार
वर्ष पहले के लोगों जैसे थे।
अंग्रेजों ने हिमालय के कुछ स्थानों पर
गोरों के लिए छावनियाँ स्थापित
कीं,
जहाँ मैदानी लोग भी पहुँच गये।
छावनियों ने रतिज रोगों के वितरण का काम बड़े जोर से किया। आज इन छावनियों के
पास के गाँवों में 70 प्रतिशत तक नर-नारी
रतिज-रोग-ग्रस्त हैं। शिमला के पास के कुछ गाँव तो उजड़ने को तैयार है। एक गाँव में
मूत्रकृच्छ के कारण कई घर निर्वंश हो चुके हैं। मूत्रकृच्छ वंश उच्छेद
करता और व्याधिग्रस्त
व्यक्ति को कष्ट देता है, साथ ही वह उपदंश की भाँति
ही एक से दो-से-चार, चार से सोलह करके शीघ्रता से बढ़ता जाता है, इसलिए एक शताब्दी भी
नहीं हुई और
छावनियों के पास के गाँवों की ऐसी हालत
हो गई। उपदंश और भी भयंकर रोग है।
वह फैलने ही में तेज नहीं हैं, बल्कि अपने साथ कुछ
और पागलपन की आनुवंशिक बीमारियाँ लिए
चलता है। उपदंश का रोगी संतानोत्पत्ति
से वंचित नहीं होता, अर्थात् वह
अपने रोग को अगली पीढ़ियों तक के लिए
छोड़ जाता है, जिससे व्यक्ति ही नहीं
जाति के लिए भी वह भयंकर चीज है।
मूत्रकृच्छ की तो पेनिसिलीन जैसी कुछ रामबाण औषधियाँ भी निकल आई हैं, लेकिन उपदंश तो अब भी
असाध्य-सा है। घुमक्कड़ को इस बात
पर सावधानी से विचार करना होगा
और ध्यान रखना होगा, जिसमें वह किसी भारी भूल का शिकार नहीं हो जाय।
जहाँ यौन-संबंध सुलभ है, वहाँ यदि रतिजरोगों की भयंकरता का ख्याल रखा जाय और जहाँ दुर्लभ है,
वहाँ लज्जा और संकोच का कवच पास में
रहे, तो कितनी ही हद तक तरुण घुमक्कड़ अपनी रक्षा कर सकता है।
स्त्री-पुरुष
का पारस्परिक आकर्षण बहुत प्रबल है। सवाल हो सकता है, क्या घुमक्कड़ के लिए ऐसा रास्ता निकल आ सकता है, जिसमें वह अपने धर्म
से पतित हुए बिना
जीवन-यात्रा को पूरा कर सके? हाँ, इस का एक ही उपाय है,
जिसकी ओर हम संकेत भी कर चुके हैं। वह
है दो घुमक्कड़ व्यक्तियों में प्रेम का होना,
जिसके लिए वह यह शर्त रख सकते हैं,
कि प्रेम उनके लिए पाश बनने का कारण न
होगा। ऐसा प्रेम या तो नदी या नाव का संयोग होगा या दो सह-यात्रियों का प्रेम होगा।
लेकिन दोनों
अवस्थाओं में यह तो ध्यान रखना होगा, कि संख्या चतुष्पाद
से अधिक नहीं हो। शर्त कठिन है,
लेकिन जिसने घुमक्कड़ का व्रत लिया है, उसे ऐसी शर्तों के लिए तैयार
रहना चाहिए।
कई
घुमक्कड़ों ने जरा-सी असावधानी से अपने लक्ष्य को खो दिया, और बैल बनकर खूँटे से बँध गये। कहाँ उनका वह जीवन, जब कि वह सदा
चलते-घूमते अपने मुक्त जीवन और
व्यापक ज्ञान से दूसरों को लाभ
पहुँचाते रहे, और कहाँ उनका चरम पतन?
मुझे आज भी अपने एक मित्र
की करुण-कहानी याद आती है। उसकी घुमक्कड़ी भारत से बाहर नहीं हुई थी, लेकिन भारत में वह काफी घूमा था,
यदि भूल न की होती, तो बाहर भी बहुत घूमता। वह प्रतिभाशाली विद्वान था। मैं उसका सदा प्रशंसक रहा, यद्यपि न जानने के कारण
एक बार उसकी ईर्ष्या हो गई थी।
घूमते-घूमते वह गुड़ की मक्खी बन गया,
पंख बेकार हो गये, फिर क्या था, द्विपाद से चतुष्पाद
तक हो थोड़े रुक सकता था। षट्पद, अष्टापद शायद द्वादशपाद तक पहुँचा। सारी चिंताएँ अब उसके सिर
पर आ गई। उसका वह निर्भीक और स्वतंत्र स्वभाव सपना हो चला, जब कि नून तेल लड़की
की चिंता का वेग
बढ़ा। नून-तेल-लकड़ी जुटाने की चिंता ने
उसके सारे समय को ले लिया और अब
वह गगन-बिहारी हारिल जमीन पर तड़फड़ा
रहा था। चिंताएँ उसके स्वास्थ्य को
खाने लगीं और मन को भी निर्बल करने
लगीं। वह अद्भुत प्रतिभाशाली स्वतंत्रचेता विद्वान - जिसका अभाव मुझे
कभी-कभी बहुत खिन्न कर देता है - अंत में अपनी बुद्धि खो बैठा, पागल हो गया। खैरियत यही हुई कि एक-दो साल ही में उसे इस दुनिया और
उसकी चिंता से मुक्ति मिल गई। यदि वह असाधारण मेधावी पुरुष न होता, यदि वह बड़े-बड़े स्वप्नों को
देखने की शक्ति नहीं रखता, तो साधारण मनुष्य की
तरह शायद कैसे ही जीवन बिता देता। उसको ऐसा भयंकर दंड इसीलिए मिला कि उसने जीवन के
सामने जो उच्च लच्य रखा था, जिसे अपनी गलती के कारण उसे छोड़ना पड़ा था, वही अंत में चरम
निराशा और आत्मग्लानि का कारण बना। घुमक्कड़ तरुण अब अपने महान आदर्श
के लिए जीवन समर्पित करे, तो उसे पहले सोच और समझ लेना होगा कि गलतियों के कारण आदमी को
कितना नीचे गिरना पड़ता है और परिणाम क्या होता है।
इन
पंक्तियों के लिखने से शायद किसी को यह ख्याल आए,
कि घुमक्कड़ पंथ के पथिकों के लिए भी वही ब्रह्मचर्य चिरपरिचित किंतु अव्यवहार्य, वही आकाश-फल तोड़ने का
प्रयास बतलाया जा रहा है। मैं समझता हूँ, उन सीमाओं और बंधनों
को न मानकर फूँक से उड़ा देना केवल मन की कल्पना-मात्र होगी, जिन्हे कि आज के
समाज ने बड़ी कड़ाई
के साथ स्वीकार कर लिया है। हो सकता है
यह रूढ़ियाँ कुछ सालों बाद बदल
जायँ - बड़ी-बड़ी रूढ़ियाँ भी बदलती
देखी जा रही हैं - उस वक्त घुमक्कड़
के रास्ते की कितनी ही कठिनाइयाँ
स्वत: हल हो जायँगी। लेकिन इस समय तो घुमक्कड़ को बहुत कुछ आज के बाजार में
भाव से चीजों को खरीदना पड़ेगा, इसीलिए लज्जा और
संकीर्ण को हटा फेंकना अच्छा नहीं
होगा। यह अब मानते हुए भी यह भी मानना पड़ेगा कि प्रेम में स्वभावत: कोई ऐसा
दोष नहीं है। वह मानव-जीवन को शुष्क से सरस बनाता है, वह अद्भुत आत्म-त्याग का भी पाठ पढ़ाता है। दो स्वच्छंद व्यक्ति एक
दूसरे से प्रेम करें यह मनुष्य की उत्पत्ति के आरंभ से होता आया है, आज भी हो रहा है, भविष्य में
भी ऐसे किसी समय की कल्पना नहीं की जा
सकती, जब कि मानव और मानवी एक
दूसरे के लिए आकर्षक और पूरक न हों। वस्तुत:
हमारा झगड़ा प्रेम से नहीं
है,
प्रेम रहे, किंतु पंख भी साथ में
रहें। प्रेम यदि पंखों को गिराकर ही रहना चाहता है,
तब तो कम-से-कम घुमक्कड़ को इसके बारे
में सोचना क्या, पहले ही उसे हाथ
जोड़ देना होगा। दोनों-प्रेमियों के
घुमक्कड़ी धर्म पर दृढ़ आरूढ़ होने पर बाधा का कम डर रहता है। एक हिमालय
का घुमक्कड़ कई सालों तक चीन से भारत की सीमा तक पैदल चक्कर लगाता रहा, उसके साथ उसी तरह की सहयात्रिणी थी। लेकिन कुछ सालों बाद न
जाने कैसे मतिभ्रम में पड़े,
और वह चतुष्पाद से षट्पद ही गये, फिर उसके पुराने सारे गुण जाते
रहे - न वह जोश रहा, न वह तेज।
प्रेम
के बारे में किस-किस दृष्टि से सोचने की आवश्यकता है, इसे हमने कुछ यहाँ रख दिया है। घुमक्कड़ को परिस्थिति देखकर इस पर विचार
करना और रास्ता स्वीकार
करना चाहिए। शरीर में पौरुष और बल
रहते-रहते यदि भूल हो तो कम-से-कम आदमी
एक घाट का तो हो सकता है। समय बीत जाने
पर शक्ति के शिथिल हो जाने पर भार
का कंधे पर आना अधिक दु:ख का
कारण होता है। फिर यह भी समझ लेना है,
कि घुमक्कड़ का अंतिम जीवन पेंशन
लेने का नहीं है। समय के साथ-साथ आदमी का ज्ञान और अनुभव बढ़ता जाता है, और उसको अपने ज्ञान
और अनुभव से दुनिया को लाभ पहुँचाना है,
तभी वह अपनी जिम्मेदारी और हृदय
के भार को हल्का कर सकता है। इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए, कि समय के साथ दिन और
रातें छोटी होती जाती हैं। बचपन के दिनों और महीनों पर ख्याल दौड़ाइए, उन्हें आज के दिनों
से मुकाबला कीजिए, मालूम होगा, आज के दस दिन के
बराबर उस समय का एक दिन हुआ करता था। वह
दिन युगों में वैसे ही बीते, जैसे तेज बुखार आए आदमी का दिन। अंतिम समय में, जहाँ दिन-रात इस
प्रकार छोटे हो जाते हैं, वहाँ करणीय कामों की संख्या और बढ़ जाती है। जिस वक्त अपनी
दूकान समेटनी है, उस समय के मूल्य का ज्यादा ख्याल करना होगा और अपनी
घुमक्कड़ी की सारी देनों को
संसार को देकर महाप्रयाण के लिए तैयार
रहने की आवश्यकता है। भला ऐसे समय
पंथ की सीमाओं के बाहर जाकर प्रेम करने
की कहाँ गुंजाइश रह जाती है? इस प्रकार
घुमक्कड़ी से पेंशन लेकर प्रेम करने की
साघ भी उचित नहीं कहीं जा सकती।
तो
क्या कहना पड़ेगा, कि मेघदूत के यक्ष की तरह और एक वर्ष नहीं बल्कि सदा के लिए प्रेम से अभिशप्त होकर रहना घुमक्कड़ के भाग्य में बदा
है। बात वस्तुत: बहुत
कुछ ऐसी ही मालूम होती है। घुमक्कड़
चाहे मुँह से कहे या न कहे, लेकिन
दूसरों को समझ लेना चाहिए, कि उससे प्रेम करके
कोई व्यक्ति सुखी नहीं रह
सकता। वह अपने संपूर्ण हृदय को किसी
दूसरी प्रेयसी - घुमक्कड़ी - को दे चुका है। उसके दो हृदय तो नहीं हैं। कि
एक-एक को एक-एक में बाँट दे। घुमक्कड़ों की
प्रेमिकाओं का बहुत पुराना तजर्बा है - ''परदेशी की प्रीत,
भुस का तापना। दिया कलेजा फूँक, हुआ नहीं आपना।'' हमारे देश में बंगाल
और कामाख्या जादूगर महिलाओं के देश
माने जाते रहे हैं, कोई-कोई कटक को भी
उसमें शामिल करते थे और कहा जाता था,
कि वहाँ की जादूगरनियाँ आदमी को
भेड़ा बनाकर रख लेती हैं। घुमक्कड़ों की परंपरा में ऐसे और कई स्थान शामिल किए गये थे,
जिनकी बातें मौखिक परंपरा से एक से
दूसरे के पास पहुँच जाती थीं। एक आजन्म घुमक्कड़ साधु कुल्लू की सीमा के
भीतर इसलिए नहीं गये, कि उन्हें किसी गुरु ने बतला दिया था - ''जो जाये कुल्लू, हो जाये उल्लू।'' हमारे आज के घुमक्कड़ को सिर्फ भारत की सीमा के ही भीतर नहीं
रह पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण चारों खूँट पृथ्वी को त्रिविक्रम की तरह अपने
पैरों से नापना है, फिर उसके रास्ते में न जाने कितने कामाख्या, बंगाल और कुल्लू मिलेंगे, और न जाने कितनी जगह मंत्र पढ़कर पीली सरसों उस पर फेंकी जायगी।
इसलिए उसके पास दृढ़ मनोबल की वैसी ही अत्यधिक आवश्यकता है जैसे दुर्गम पथों
में साहस और निर्भीकता
की।
-राहुल सांकृत्यायन के ''घुमक्कड़ शास्त्र'' से,www.hindisamay.com से साभार ॥