Wednesday, April 27, 2011

भविष्य की सभ्यता स्त्री के आसपास बनेगी




बुनियादी भूल जो सारी शिक्षा और सारी सभ्यता को खाए जा रही है, वह यह है कि अब तक के जीवन का सारा निर्माण पुरुष के आसपास हुआ है, स्त्री के आसपास नहीं। अब तक की सारी सभ्यता, सारी संस्कृति, सारी शिक्षा पुरुष ने निर्मित की है, पुरुष के ढंग से निर्मित हुई है, स्त्री के ढंग से नहीं।

पुरुष के जो गुण हैं, सभ्यता ने उनको ही सब कुछ मान रखा है। स्त्री की जो संभावना है, स्त्री के जो मन के भीतर छिपे हुए बीज हैं, वे जैसे विकसित हो सकते हैं, उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया है। पुरुष बिलकुल अधूरा है, स्त्री के बिना तो बहुत अधूरा है। और पुरुष अगर अकेला ही सभ्यता को निर्मित करेगा तो वह सभ्यता भी अधूरी होगी; न केवल अधूरी होगी, बल्कि खतरनाक भी होगी।

वह खतरनाक इसलिए होगी कि पुरुष के मन की जो तीव्र आकांक्षा है वह एंबीशन है, महत्वाकांक्षा है। पुरुष के मन में प्रेम बहुत गहराई पर नहीं है, महत्वाकांक्षा! और जहां महत्वाकांक्षा है वहां ईर्ष्या होगी, जहां महत्वाकांक्षा है वहां हिंसा होगी, जहां महत्वाकांक्षा है वहां घृणा होगी, जहां महत्वाकांक्षा है वहां युद्ध होगा। पुरुष का सारा चित्त एंबीशन से भरा हुआ है। स्त्री के चित्त में एंबीशन नहीं है, महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि प्रेम है। और हमारी पूरी सभ्यता प्रेम से बिलकुल शून्य है, प्रेम से बिलकुल रिक्त है, प्रेम की उसमें कोई जगह नहीं है। पुरुष ने अपने ही ढंग से पूरी बात निर्मित कर ली है। उसकी सारी शिक्षा भी उसने अपने ढंग से निर्मित कर ली है। उसने जीवन की जो संरचना की है वह अपने ही ढंग से की है। उसमें युद्ध प्रमुख है, उसमें संघर्ष प्रमुख है, उसमें तलवार प्रमुख है।

यहां तक कि अगर कोई स्त्री भी तलवार लेकर खड़ी हो जाती है तो पुरुष उसे बहुत आदर देता है। जोन ऑफ आर्क को, झांसी की रानी लक्ष्मी को पुरुष बहुत आदर देता है। इसलिए नहीं कि वे बहुत कीमती स्त्रियां थीं, बल्कि इसलिए कि वे पुरुष जैसी स्त्रियां थीं। वह उनकी मूर्तियां खड़ी करता है चौरस्तों पर। वह गीत गाता है: खूब लड़ी मर्दानी, झांसी वाली रानी थी। वह कहता है कि वह मर्दानी थी, इसलिए आदर देता है। लेकिन अगर कोई पुरुष जनाना हो तो अनादर करता है, आदर नहीं देता। स्त्री मर्दानी हो तो आदर देता है। स्त्री तलवार लेकर लड़ती हो, सैनिक बनती हो, तो पुरुष के मन में सम्मान है। पुरुष के मन में हिंसा के और महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त किसी बात का कोई सम्मान नहीं है।

यह जो पुरुष अधूरा है, सारी शिक्षा भी उसी पुरुष के लिए निर्मित हुई है। हजारों वर्षों तक स्त्री को कोई शिक्षा नहीं दी गई। एक बड़ी भूल थी कि स्त्री अशिक्षित रह जाए। फिर कुछ वर्षों से स्त्री को शिक्षा दी जा रही है। और अब दूसरी भूल की जा रही है कि स्त्री को पुरुषों जैसी शिक्षा दी जा रही है। यह अशिक्षित स्त्री से भी खतरनाक स्त्री को पैदा करेगी। अशिक्षित स्त्री कम से कम स्त्री थी। शिक्षित स्त्री पुरुष के ज्यादा करीब आ जाती है, स्त्री कम रह जाती है। क्योंकि जिस शिक्षा से गुजरती है उसका मौलिक निर्माण पुरुष के लिए हुआ है। एक ऐसी स्त्री पैदा हो रही है सारी दुनिया में, जो अगर सौ दो सौ वर्ष इसी तरह की शिक्षा चलती रही तो अपने समस्त स्त्री-धर्म को खो देगी। उसके जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसकी प्रतिभा में जो भी कीमती है, उसके स्वभाव में जो भी सत्य है, वह सब विनष्ट हो जाएगा।

स्त्री शिक्षित होनी चाहिए। लेकिन उस तरह की शिक्षा में नहीं जो पुरुष की है। स्त्री के लिए ठीक स्त्री जैसी शिक्षा विकसित होनी जरूरी है। यह हमारे ध्यान में नहीं है और अभी मनुष्य-जाति के किन्हीं विचारकों के ध्यान में बहुत स्पष्ट नहीं है कि नारी की शिक्षा पुरुष से बिलकुल ही भिन्न शिक्षा होगी।

नारी भिन्न है।

मैं आपको यह कहना चाहता हूं, स्त्री और पुरुष समान आदर के पात्र हैं, लेकिन समान बिलकुल भी नहीं हैं, बिलकुल असमान हैं। स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है। और उन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। इस फर्क को अगर ध्यान में न रखा जाए तो जो भी शिक्षा होगी वह स्त्री के लिए बहुत आत्मघाती होने वाली है। वह स्त्री को नष्ट करने वाली होगी। स्त्री और पुरुष मौलिक रूप से भिन्न हैं। और उनकी यह जो मौलिक भिन्नता है, यह जो पोलेरिटी है, जैसे उत्तर और दक्षिण ध्रुव भिन्न हैं, जैसे बिजली के निगेटिव और पाजिटिव पोल भिन्न हैं, यह जो इतनी पोलेरिटी है, इतनी भिन्नता है, इसी की वजह से उनके बीच इतना आकर्षण है। इसी के कारण वे एक-दूसरे के सहयोगी और साथी और मित्र बन पाते हैं। यह असमानता जितनी कम होगी, यह भिन्नता जितनी कम होगी, यह दूरी जितनी कम होगी, उतना ही खतरनाक है मनुष्य के लिए।

मेरी दृष्टि में, स्त्रियों को पुरुषों जैसा बनाने वाली शिक्षा, सारी दुनिया में हर, एक-एक बच्चे तक पहुंचाई जा रही है। पुरुष तो पहले से ही विक्षिप्त सभ्यता को जन्म दिया है। एक आशा है कि स्त्री एक नई सभ्यता की उन्नायक बने। लेकिन वह आशा भी समाप्त हो जाएगी अगर स्त्री भी पुरुष की भांति दीक्षित हो जाती है।

मेरी दृष्टि में, स्त्री को गणित की नहीं, संगीत की और काव्य की शिक्षा ही उपयोगी है। उसे इंजीनियर बनाने की कोई भी जरूरत नहीं। इंजीनियर वैसे ही जरूरत से ज्यादा हैं। पुरुष पर्याप्त हैं इंजीनियर होने को। स्त्री को कुछ और होने की जरूरत है। क्योंकि अकेले इंजीनियरों से और अकेले गणितज्ञों से जीवन समृद्ध नहीं होता। उनकी जरूरत है, उनकी उपयोगिता है। लेकिन वे ही जीवन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। जीवन की खुशी किन्हीं और बातों पर निर्भर करती है। बड़े से बड़ा इंजीनियर और बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी जीवन में उतनी खुशी नहीं जोड़ पाता जितना गांव में एक बांसुरी बजाने वाला जोड़ देता है।

मनुष्य-जाति की खुशी बढ़ाने वाले लोग, मनुष्य के जीवन में आनंद के फूल खिलाने वाले लोग वे नहीं हैं जो प्रयोगशालाओं में जीवन भर प्रयोग ही करते रहते हैं। उनसे भी ज्यादा वे लोग हैं जो जीवन के गीत गाते हैं और जीवन के काव्य को अवतरित करते हैं।

मनुष्य जीता किसलिए है? काम के लिए? फैक्ट्री चलाने के लिए? रास्ते बनाने के लिए? मनुष्य रास्ते बनाता है, फैक्ट्री भी चलाता है, दुकान भी चलाता है, इसलिए कि इन सब से एक व्यवस्था बन सके और उस व्यवस्था में वह आनंद, शांति और प्रेम को पा सके। वह जीता हमेशा प्रेम और आनंद के लिए है। लेकिन कई बार ऐसा हो जाता है कि साधनों की चेष्टा में हम इतने संलग्न हो जाते हैं कि साध्य ही भूल जाता है।

मेरी दृष्टि में, पुरुष की सारी शिक्षा साधन की शिक्षा है। स्त्री की सारी शिक्षा साध्य की शिक्षा होनी चाहिए, साधन की नहीं। ताकि वह पुरुष के अधूरेपन को पूरा कर सके। वह पुरुष के लिए परिपूरक हो सके। वह पुरुष के जीवन में जो अधूरापन है, जो कमी है, उसे भर सके। पुरुष फैक्ट्रियां खड़ी कर लेगा, बगीचे कौन लगाएगा? पुरुष बड़े मकान खड़े कर लेगा, लेकिन उन मकानों में गीत कौन गुंजाएगा? पुरुष एक दुनिया बना लेगा जो मशीनों की होगी, लेकिन उन मशीनों के बीच फूलों की जगह कौन बनाएगा?

स्त्री के व्यक्तित्व के प्रेम को कितना गहरा कर सके, ऐसी शिक्षा चाहिए। ऐसी शिक्षा चाहिए जो उसके जीवन को और भी सृजनात्मक प्रेम की तरफ ले जा सके।

ओशो

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