Monday, December 31, 2012

साल मुबारक !




जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुछ ऐसे आया...

जैसे दिल के फ़िक़रे से
एक अक्षर बुझ गया
जैसे विश्वास के काग़ज़ पर
सियाही गिर गयी
जैसे समय के होंटो से
एक गहरी साँस निकल गयी
और आदमज़ात की आँखों में
जैसे एक आँसू भर आया
नया साल कुछ ऐसे आया...

जैसे इश्क़ की ज़बान पर
एक छाला उठ आया
सभ्यता की बाँहों में से
एक चूड़ी टूट गयी
इतिहास की अंगूठी में से
एक नीलम गिर गया
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास सा ख़त पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया...
-    - अमृता प्रीतम

Friday, December 28, 2012

स्‍त्री घुमक्कड़/घुमक्कड़-शास्त्र/राहुल सांकृत्यायन

स्‍त्री घुमक्कड़


घुमक्कड़-धर्म सार्वदैशिक विश्‍वव्‍यापी घर्म है। इस पंथ में किसी के आने की मनादी नहीं है, इसलिए यदि देश की तरुणियाँ भी घुमक्कड़ बनने की इच्‍छा रखें, तो यह खुशी की बात है। स्‍त्री होने से वह साहसहीन है, उसमें अज्ञात दिशाओं और देशों में विचरने के संकल्‍प का अभाव है - ऐसी बात नहीं है। जहाँ स्त्रियों को अधिक दासता की बेड़ी में जकड़ा नहीं गया, वहाँ की स्त्रियाँ साहस-यात्राओं से बाज नहीं आतीं। अमेरिकन और यूरोपीय स्त्रियों का पुरुषों की तरह स्वतंत्र हो देश-विदेश में घूमना अनहोनी सी बात नहीं है। यूरोप की जातियाँ शिक्षा और संस्‍कृति में बहुत आगे हैं, यह कहकर बात को टाला नहीं जा सकता। अगर वे लोग आगे बढ़े हें, तो हमें भी उनसे पीछे नहीं रहना है। लेकिन एसिया में भी साहसी यात्रिणियों का अभाव नहीं है। 1934 की बात है, मैं अपनी दूसरी तिब्बत-यात्रा में ल्‍हासा से दक्षिण की ओर लौट रहा था। ब्रह्मपुत्र पार करके पहले डांडे को लाँघकर एक गाँव में पहुँचा। थोड़ी देर बाद तो तरुणियाँ वहाँ पहुँची। तिब्‍बत के डांडे बहुत खतरनाक होते हैं, डाकू वहाँ मुसाफिरों की ताक में बैठे रहते हैं। तरुणियाँ बिना किसी भय के डांडा पार करके आईं। उनके बारे में शायद कुछ मालूम नहीं होता, किंतु जब गाँव के एक घर में जाने लगीं, तो कुत्ते ने एक के पैर में काट खाया। वह दवा लेने हमारे पास आईं, उसी वक्‍त उनकी कथा मालूम हुई। वह किसी पास के इलाके से नहीं, बल्कि बहुत दूर चीन के कन्‍सू प्रदेश में ह्वांग-हो नदी के पास अपने जन्‍मस्‍थान से आई थीं। दोनों की आयु पच्‍चीस साल से अधिक नहीं रही होगी। यदि साफ सफेद पहना दिये जाते, तो कोई भी उन्‍हें चीन की रानी कहने के लिए तैयार हो जाता। इस आयु और बहुत-कुछ रूपवती होने पर भी वह ह्वांग-हो के तट से चढ़कर भारत की सीमा से सात-आठ दिन के रास्‍ते पर पहुँची थीं। अभी यात्रा समाप्‍त नहीं हुई थी। भारत को वह बहुत दूर का देश समझती थीं, नहीं तो उसे भी अपनी यात्रा में शामिल करने की उत्‍सुक होतीं। पश्चिम में उन्‍हें मानसरोवर तक और नेपाल में दर्शन करने तो अवश्य जाना था। वह शिक्षिता नहीं थीं, न अपनी यात्रा को उन्‍होंने असाधारण समझा था। यह अम्‍दो तरुणियाँ कितनी साहसी थीं? उनको देखने के बाद मुझे ख्‍याल आया, कि हमारी तरुणियाँ भी घुमक्कड़ अच्छी तरह कर सकती हैं।
जहाँ तक घुमक्कड़ी करने का सवाल है, स्‍त्री का उतना ही अधिकार है, जितना पुरुष का। स्‍त्री क्‍यों अपने को इतना हीन समझे? पीढ़ी के बाद पीढ़ी आती है, और स्‍त्री भी पुरुष की तरह ही बदलती रहती है। किसी वक्‍त स्वतंत्र नारियाँ भारत में रहा करती थीं। उन्‍हें मनुस्‍मृति के कहने के अनुसार स्वतंत्रता नहीं मिली थी, यद्यपि कोई-कोई भाई इसके पक्ष में मनुस्‍मृति के श्‍लोक को उद्धृत करते हैं-
''यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यंते रमंते तत्र देवता:।''
लेकिन यह वंचनामात्र है। जिन लोगों ने गला फाड़-फाड़कर कहा - ''न स्‍त्री स्वातंत्र्यमर्हति'' उनकी नारी-पूजा भी कुछ दूसरा अर्थ रखती होगी। नारी-पूजा की बात करने वाले एक पुरुष के सामने एक समय मैंने निम्‍न श्‍लोक उद्धृत किया -
''दर्शने द्विगुणं स्वादु परिवेषे चतुर्गुणम्।
सहभोजे चाष्‍टगुणमित्‍येतन्‍मनुरब्रवीत्॥''
(स्‍त्री के दर्शन करते हुए यदि भोजन करना हो तो वह स्वाद में दुगुना हो जाता है, यदि वह श्रीहस्‍त से परोसे तो चौगुना और यदि साथ बैठकर भोजन करने की कृपा करे तो आठ गुना - ऐसा मनु ने कहा है।) इस पर जो मनोभाव उनका देखा उससे पता लग गया कि वह नारी-पूजा पर कितना विश्‍वास रखते हैं। वह पूछ बैठे, यह श्‍लोक मनुस्‍मृति के कौन से स्‍थान का है। वह आसानी से समझ सकते थे कि वह उसी स्‍थान का हो सकता है जहाँ नारी-पूजा की बात कही गई है, और यह भी आसानी से बतलाया जा सकता था कि न जाने कितने मनु के श्‍लोक महाभारत आदि में बिखरे हुए हैं, किंतु वर्तमान मनुस्‍मृति में नहीं मिलते। अस्‍तु! हम तो मनु की दुहाई देकर स्त्रियों को अपना स्‍थान लेने की कभी राय नहीं देंगे।
हाँ, यह मानना पड़ेगा कि सहस्राब्दियों की परतंत्रता के कारण स्‍त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई है। वह अपने पैरों पर खड़ा होने का ढंग नहीं जानती। स्‍त्री सचमुच लता बना के रखी गई है। वह अब भी लता बनकर रहना चाहती है, यद्यपि पुरुष की कमाई पर जीकर उनमें कोई-कोई 'स्वतंत्रता' 'स्वतंत्रता' चिल्‍लाती हैं। लेकिन समय बदल रहा है। अब हाथ-भर का घूँघट काढ़ने वाली माताओं की लड़कियाँ मारवाड़ी जैसे अनुदार समाज में भी पुरुष के समकक्ष होने के लिए मैदान में उतर रही हैं। वह वृद्ध और प्रौढ़ पुरुष धन्‍यवाद के पात्र हैं, जिन्‍होंने निराशापूर्ण घड़ियों में स्त्रियों की मुक्ति के लिए संघर्ष किया, और जिनके प्रयत्‍न्‍ा का अब फल भी दिखाई पड़ने लगा है। लेकिन साहसी तरुणियों को समझना चाहिए कि एक के बाद एक हजारों कड़ियों से उन्‍हें बाँध के रखा गया है। पुरुष ने उसके रोम-रोम पर काँटी गाड़ रखी है। स्‍त्री की अवस्‍था को देखकर बचपन की एक कहानी याद आती है - न सड़ी न गली एक लाश किसी निर्जन नगरी के प्रासाद में पड़ी थी। लाश के रोम-रोम में सूइयाँ गाड़ी हुई थीं। उन सूइयों को जैसे-जैसे हटाया गया, वैसे-ही-वैसे लाश में चेतना आने लगी। जिस वक्‍त आँख पर गड़ी सूइयों को निकाल दिया गया उस वक्‍त लाश बिलकुल सजीव हो उठ बैठी और बोली ''बहुत सोये।'' नारी भी आज के समाज के उसी तरह रोम-रोम में परतंत्रता की उन सूइयों से बिंधी है, जिन्‍हें पुरुषों के हाथों ने गाड़ा है। किसी को आशा नहीं रखनी चाहिए कि पुरुष उन सूइयों को निकाल देगा।
उत्‍साह और साहस की बात करने पर भी यह भूलने की बात नहीं है, कि तरुणी के मार्ग में तरुण से अधिक बाधाओं के मारे किसी साहसी ने अपना रास्‍ता निकालना छोड़ दिया। दूसरे देशों की नारियाँ जिस तरह साहस दिखाने लगी हैं, उन्‍हें देखते हुए भारतीय तरुणी क्‍यों पीछे रहे?
हाँ, पुरुष ही नहीं प्रकृति भी नारी के लिए अधिक कठोर है। कुछ कठिनाइयाँ ऐसी हैं, जिन्‍हें पुरुषों की अपेक्षा नारी को उसने अधिक दिया है। संतति-प्रसव का भार स्‍त्री के ऊपर होना उनमें से एक है। वैसे नारी का ब्‍याह, अगर उसके ऊपरी आवरण को हटा दिया जाय तो इसके सिवा कुछ नहीं है कि नारी ने अपनी रोटी-कपड़े और वस्‍त्राभूषण के लिए अपना शरीर सारे जीवन के निमित्त किसी पुरुष को बेच दिया है। यह कोई बहुत उच्‍च आदर्श नहीं है, लेकिन यह मानना पड़ेगा, कि यदि विवाह का यह बंधन भी न होता, तो अभी संतान के भरण-पोषण में जो आर्थिक और कुछ शारीरिक तौर से भी पुरुष भाग होता है, वह भी न लेकर वह स्वच्छंद विचरता और बच्‍चों की सारी जिम्‍मेवारी स्‍त्री के ऊपर पड़ती। उस समय या तो नारी को मातृत्‍व से इंकार करना पड़ता। या सारी आफत अपने ऊपर मोल लेनी पड़ती। यह प्रकृ़ति का नारी के ऊपर अन्‍याय है, लेकिन प्रकृति ने कभी मानव पर खुलकर दया नहीं दिखाई, मानव ने उसकी बाधाओं के रहते उस पर विजय प्राप्‍त की।
नारी के प्रति जिन पुरुषों ने अधिक उदारता दिखाई, उनमें मैं बुद्ध को भी मानता हूँ। इनमें शक नहीं, कितनी ही बातों में वह समय से आगे थे, लेकिन तब भी जब स्‍त्री को भिक्षुणी बनाने की बात आई, तो उन्‍होंने बहुत आनाकानी की, एक तरह गला दबाने पर स्त्रियों को संघ में आने का अधिकार दिया। अपने अंतिम समय, निर्वाण के दिन, यह पूछने पर कि स्‍त्री के साथ भिक्षु को कैसा बर्ताव करना चाहिए, बुद्ध ने कहा - ''अदर्शन'' (नहीं देखना)। और देखना ही पड़े तो उस वक्‍त दिल और दिमाग को वश में रखना। लेकिन मैं समझता हूँ, यह एकतरफा बात है और बुद्ध के भावों के विपरीत है, क्‍योंकि उन्‍होंने अपने एक उपदेश में और निर्वाण-दिन से बहुत पहले कहा था - (''...नाहं भिक्‍खवे, अञ्ञं एकरूपं पि समनुपस्‍सापि, यं एवं पुरिसस्‍स चित्तं परियोदाय तिट्ठति यथयिदं भिक्‍खवे, इत्थिरूपम्...,इत्थिसद्दो...,इत्थिफोट्ठब्‍बो...। नाहं भिक्‍खे, अंञ्ञं एकरूपंपि समनुपस्‍सामि यं एवं इत्थियाचित्तम् परियोदाय तिट्ठति यथयिदम् भिक्‍खवे, पुरिसरूपं...पुरिस-सद्दो...., पुरिस-गंधो..., पुरिसरसो..., पुरिसफोट्ठब्‍बो...।) - अंगुत्तर निकाय 1।1।1
''भिक्षुओ! मैं ऐसा एक भी रूप नहीं देखता, जो पुरुष के मन को इस तरह हर लेता है जैसा कि स्‍त्री का रूप... स्‍त्री का शब्‍द ...स्‍त्री की गंध... स्‍त्री का रस... स्‍त्री का स्‍पर्श...।'' इसके बाद उन्‍होंने यह भी कहा - ''भिक्षुओं! मैं ऐसा एक भी रूप नहीं देखता, जो स्‍त्री के मन को इस तरह हर लेता है, जैसा कि पुरुष का रूप... पुरुष का शब्‍द... पुरुष की गंध... पुरुष का रस... पुरुष का स्‍पर्श...।'' बुद्ध ने जो बात यहाँ कही है, वह बिलकुल स्वाभाविक तथा अनुभव पर आश्रित है। स्‍त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे की पूरक इकाइयाँ हैं। 'अदर्शन' उन्‍होंने इसीलिए कहा था, कि दर्शन से दोनों को उनके रूप, शब्‍द, गंध, रस, स्‍पर्श एक दूसरे के लिए सबसे अधिक मोहक होते हैं। सारी प्रकृति में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। स्‍त्री के साथ पुरुष की अधिक घनिष्‍ठता या पुरुष के साथ स्‍त्री की अधिक घनिष्‍ठता यदि एक सीमा से पार होती है, तो परिणाम केवल प्‍लातोनिक प्रेम तक ही सीमित नहीं रहता। इसी खतरे की ओर अपने वचन में बुद्ध ने संकेत किया है। इसका यही अर्थ है कि जो एक ऊँचे आदर्श और स्वतंत्र जीवन को लेकर चलने वाले हैं, ऐसे नर-नारी अधिक सावधानी से काम लें। पुरुष प्‍लातोनिक प्रेम कहकर छुट्टी ले सकता है, क्‍योंकि प्रकृति ने उसे बड़ी जिम्‍मेदारी से मुक्‍त कर दिया है, किंतु स्‍त्री कैसे वैसा कर सकती है?
स्‍त्री के घुमक्कड़ होने में बड़ी बाधा मनुष्‍य के लगाये हजारों फंदे नहीं हैं, बल्कि प्रकृति की निष्‍ठुरता ने उसे और मजबूर बना दिया है। लेकिन जैसा मैने कहा, प्रकृति की मजबूरी का अर्थ यह हर्गिज नहीं है, कि मानव प्रकृति के सामने आत्‍म-समर्पण कर दे। जिन तरुणियों को घुमक्कड़ी-जीवन बिताना है, उन्‍हें मैं अदर्शन की सलाह नहीं दे सकता और न यही आशा रख सकता हूँ, कि जहाँ विश्‍वामित्र-पराशर आदि असफल रहे, वहाँ निर्बल स्‍त्री विजय-ध्‍वजा गाड़ने में अवश्य सफल होगी, यद्यपि उससे जरूर यह आशा रखनी चाहिए, कि ध्‍वजा को ऊँची रखने की वह पूरी कोशिश करेगी। घुमक्कड़ तरुणी को समझ लेना चाहिए, कि पुरुष यदि संसार में नए प्राणी के लाने का कारण होता है, तो इससे उसके हाथ-पैर कटकर गिर नहीं जाते। यदि वह अधिक उदार और दयार्द्र हुआ तो कुछ प्रबंध करके वह फिर अपनी उन्‍मुक्‍त यात्रा को जारी रख सकता है, लेकिन स्‍त्री यदि एक बार चूकी तो वह पंगु बनकर रहेगी। इस प्रकार घुमक्कड़-व्रत स्वीकार करते समय स्‍त्री को खूब आगे पीछे सोच लेना होगा और दृढ़ साहस के साथ ही इस पथ पर पग रखना होगा। जब एक बार पग रख दिया तो पीछे हटाने का नाम नहीं लेना होगा।
घुमक्कड़ों और घुमक्कड़ाओं, दोनों के लिए अपेक्षित गुण बहुत-से एक-से हैं, जिन्‍हें कि इस शास्‍त्र के भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों में बतलाया गया है, जैसे स्‍त्री के लिए भी कम-से-कम 18 वर्ष की आयु तक शिक्षा और तैयारी का समय है, और उसके लिए भी 20 के बाद यात्रा के लिए प्रयाण करना अधिक होगा। विद्या और दूसरी तैयारियाँ दोनों की एक-सी हो सकती हैं, किंतु स्‍त्री चिकित्‍सा में यदि विशेष योग्‍यता प्राप्‍त कर लेती है, अर्थात् डाक्‍टर बनके साहस-यात्रा के लिए निकलती है, तो वह सबसे अधिक सफल और निर्द्वंद्व रहेगी। वह यात्रा करते हुए लोगों का बहुत उपकार कर सकती है। जैसा कि दूसरी जगह संकेत किया गया, यदि तरुणियाँ तीन की संख्‍या में इकट्ठा होकर पहली यात्रा आरंभ करें, तो उन्‍हें बहुत तरह का सुभीता रहेगा। तीन की संख्‍या का आग्रह क्‍यों? इस प्रश्‍न का जवाब यही है कि दो की संख्‍या अपर्याप्‍त है, और आपस मे मतभेद होने पर किसी तटस्‍थ हितैषी की आवश्‍यकता पूरी नहीं हो सकती। तीन की संख्‍या में मध्‍यस्‍थ सुलभ हो जाता है। तीन से अधिक संख्‍या भीड़ या जमात की है, और घुमक्कड़ी तथा जमात बाँधकर चलना एक दूसरे के बाधक हैं। यह तीन की संख्‍या भी आरंभिक के लिए है, अनुभव बढ़ने के बाद उसकी कोई आवश्‍यकता नहीं रह जाती। ''एको चरे खग्‍ग विसाण-कप्‍पो'' (गैंडे के सींग की तरह अकेले विचरे), घुमक्कड़ के सामने तो यही मोटो होना चाहिए।
स्त्रियों को घुमक्कडी के लिए प्रोत्‍साहित करने पर कितने ही भाई मुझसे नाराज होंगे, और इस पथ की पथिका तरुणियों से तो और भी। लेकिन जो तरुणी मनस्विनी और कार्यार्थिनी है, वह इसकी पर्वाह नहीं करेगी, यह मुझे विश्‍वास है। उसे इन पीले पत्तों की बकवाद पर ध्‍यान नहीं देना चाहिए। जिन नारियों ने आँगन की कैद छोड़कर घर से बाहर पैर रखा है, अब उन्‍हे बाहर विश्‍व में निकलना है। स्त्रियों ने पहले-पहल जब घूँघट छोड़ा तो क्या कम हल्‍ला मचा था, और उन पर क्या कम लांछन लगाये गये थे? लेकिन हमारी आधुनिक-पंचकन्‍याओं ने दिखला दिया कि साहस करने वाला सफल होता है, और सफल होने वाले के सामने सभी सिर झुकाते हैं। मैं तो चाहता हूँ, तरुणों की भाँति तरुणियाँ भी हजारों की संख्‍या में विशाल पृथ्‍वी पर निकल पड़े और दर्जनों की तादाद में प्रथम श्रेणी की घुमक्कड़ा बनें। बड़ा निश्‍चय करने के पहले वह इस बात को समझ लें, कि स्‍त्री का काम केवल बच्‍चा पैदा करना नहीं है। फिर उनके रास्‍ते की बहुत कठिनाइयाँ दूर हो सकती है। यह पंक्तियाँ कितने ही धर्मधुरंधरों के दिल में काँटे की तरह चुभेंगी। वह कहने लगेंगे, यह वज्रनास्तिक हमारी ललनाओं को सती-सावित्री के पथ से दूर ले जाना चाहता है। मैं कहूँगा, वह काम इस नास्तिम ने नहीं किया, बल्कि सती-सावित्री के पथ से दूर ले जाने का काम सौ वर्ष से पहले ही हो गया, जब कि लार्ड विलियम बेंटिक के जमाने में सती प्रथा को उठा दिया गया। उस समय तक स्त्रियों के लिए सबसे ऊँचा आदर्श यही था, कि पति के मरने पर वह उसके शव के साथ जिंदा जल जायँ। आज तो सती-सावित्री के नाम पर कोई धर्मधुरंधर - चाहे वह श्री 108 करपात्री जी महाराज हों, या जगद्गुरु शंकराचार्य - सती प्रथा को फिर से जारी करने के लिए सत्‍याग्रह नहीं कर सकता, और न ऐसी माँग के लिए कोई भगवा झंडा उठा सकता है। यदि सती-प्रथा-अर्थात् जीवित स्त्रियों का मृतक पति के साथ जाय तो, मैं समझता हूँ, आज को स्त्रियाँ सौ साल पहले की अपनी नगड़दादियों का अनुसरण करके उसे चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगी, बल्कि वह सारे देश में खलबली मचा देंगी। फिर यदि जिंदा स्त्रियों को जलती चिता पर बैठाने का प्रयत्‍न हुआ, तो पुरुष समाज को लेने-के-देने पढ़ जायँगे। जिस तरह सती-प्रथा बार्बरिक तथा अन्‍याय मूलक होने के कारण सदा के लिए ताक पर रख दी गई, उसी तरह स्‍त्री के उन्‍मुक्‍त-मार्ग की जितनी बाधाएँ हैं, उन्‍हें एक-एक करके हटा फेंकना होगा।
स्त्रियों को भी माता-पिता की संपत्ति में दायभाग मिलना चाहिए, जब यह कानून पेश हुआ, तो सारे भारत के कट्टर-पंथी उसके खिलाफ उठ खड़े हुए। आश्‍चर्य तो यह है कि कितने ही उदार समझदार कहे जाने वाले व्‍यक्ति भी हल्‍ला-गुल्‍ला करने वालों के सहायक बन गये। अंत में मसौदे के खटाई में रख दिया गया। यह बात इसका प्रमाण है कि तथाकथित उदार पुरुष भी स्‍त्री के संबंध में कितने अनुदार हैं।
भारतीय स्त्रियाँ अपना रास्‍ता निकाल रही हैं। आज वह सैकड़ों की संख्‍या में इंग्लैंड, अमेरिका तथा दूसरे देशों में पढ़ने के लिए गई हुई हैं, और वह इस झूठे श्‍लोक को नहीं मानतीं -
''पिता रक्षति कौमारे भर्त्ता रक्षति यौवने।
पुत्रस्‍तु स्‍थाविरे भावे न स्‍त्री स्वातंत्र्यमर्हति।''
आज इंग्लैंड, अमेरिका में पढ़ने गयीं कुमारियों की रक्षा करने के लिए कौन संरक्षक भेजे गये हैं? आज स्‍त्री भी अपने आप अपनी रक्षा कर रही है, जैसे पुरुष अपने आप अपनी रक्षा करता चला आया है। दूसरे देशों में स्‍त्री के रास्‍ते की सारी रुकावटें धीरे-धीरे दूर होती गई हैं। उन देशों ने बहुत पहले काम शुरू किया, हमने बहुत पीछे शुरू किया है, लेकिन संसार का प्रवाह हमारे साथ है। पूछा जा सकता है, इतिहास में तो कहीं स्‍त्री की साहस-यात्राओं का पता नहीं मिलता। यह अच्छा तर्क है, स्‍त्री को पहले हाथ-पैर बाँधकर पटक दो और फिर उसके बाद कहो कि इतिहास में तो साहसी यात्रिणियों का कहीं नाम नहीं आता। यदि इतिहास में अभी तक साहस यात्रिणियों का उल्‍लेख नहीं आता, यदि पिछला इतिहास उनके पक्ष में नहीं है, तो आज की तरुणी अपना नया इतिहास बनायगी, अपने लिए नया रास्‍ता निकालेगी।
तरुणियों को अपना मार्ग मुक्‍त करने में सफल होने के संबंध में अपनी शुभ कामना प्रकट करते हुए मैं पुरुषों से कहूँगा - तुम टिटहरी की तरह पैर खड़ाकर आसमान को रोकने की कोशिश न करो। तुम्‍हारे सामने पिछले पच्‍चीस सालों में जो महान परिवर्तन स्‍त्री-समाज में हुए हैं, वह पिछली शताब्‍दी के अंत के वर्षों में वाणी पर भी लाने लायक नहीं थे। नारी की तीन पीढ़ियाँ क्रमश: बढ़ते-बढ़ते आधुनिक वातावरण में पहुँची हैं। यहाँ उसका क्रम-विकास कैसा देखने में आता है? पहली पीढ़ी ने परदा हटाया और पूजा-पाठ की पोथियों तक पहुँचने का साहस किया, दूसरी पीढ़ी ने थोड़ी-थोड़ी आधुनिक शिक्षा दीक्षा आरंभ की, किंतु अभी उसे कालेज में पड़ते हुए भी अपने सहपाठी पुरुष से समकक्षता करने का साहस नहीं हुआ था। आज तरुणियों की तीसरी पीढ़ी बिलकुल तरुणों के समकक्ष बनने को तैयार है - साधारण काम नहीं शासन-प्रबंध की बड़ी-बड़ी नौकरियों में भी अब वह जाने के लिए तैयार है। तुम इस प्रवाह को रोक नहीं सकते। अधिक-से-अधिक अपनी पुत्रियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से वंचित रख सकते हो, लेकिन पौत्री को कैसे रोकोगे, जो कि तुम्‍हारे संसार से कूच करने के बाद आने वाली है। हरेक आदमी पुत्र और पुत्री को ही कुछ वर्षों तक नियंत्रण में रख सकता है, तीसरी पीढ़ी पर नियंत्रण करने वाला व्‍यक्ति अभी तक तो कहीं दिखायी नहीं पड़ा। और चौथी पीढ़ी की बात ही क्या करनी, जब कि लोग परदादा का नाम भी नहीं जानते, फिर उनके बनाए विधान कहाँ तक नियंत्रण रख सकेंगे? दुनिया बदलती आई है, बदल रही है और हमारी आँखों के सामने भीषण परिवर्तन दिन-पर-दिन हो रहे हैं। चट्टान से सिर टकराना बुद्धिमान का काम नहीं है। लड़कों के घुमक्कड़ बनने में तुम बाधक होते रहे, लेकिन अब लड़के तुम्‍हारे हाथ में नहीं रहे। लड़कियाँ भी वैसा ही करने जा रही हैं। उन्‍हें घुमक्कड़ बनने दो, उन्‍हें दुर्गम और बीहड़ रास्‍तों से भिन्‍न-भिन्‍न देशों में जाने दो। लाठी लेकर रक्षा करने और पहरा देने से उनकी रक्षा नहीं हो सकती। वह सभी रक्षित होंगी जब वह खुद अपनी रक्षा कर सकेगी। तुम्‍हारी नीति और आचार-नियम सभी दोहरे रहे हैं - हाथी के दाँत खाने के और और दिखाने के और। अब समझदार मानव इस तरह के डबल आचार-विचार का पालन नहीं कर सकता, यह तुम आँखों के सामने देख रहे हो।

पूरा शास्त्र यहाँ पढ़ें
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1171&pageno=1

Why I am an Atheist ?/मैं नास्तिक क्यों हूँ ?



It is a matter of debate whether my lack of belief in the existence of an Omnipresent, Omniscient God is due to my arrogant pride and vanity. It never occurred to me that sometime in the future I would be involved in polemics of this kind. As a result of some discussions with my friends, (if my claim to friendship is not uncalled for) I have realised that after having known me for a little time only, some of them have reached a kind of hasty conclusion about me that my atheism is my foolishness and that it is the outcome of my vanity. Even then it is a serious problem. I do not boast of being above these human follies. I am, after all, a human being and nothing more. And no one can claim to be more than that. I have a weakness in my personality, for pride is one of the human traits that I do possess. I am known as a dictator among my friends. Sometimes I am called a boaster. Some have always been complaining that I am bossy and I force others to accept my opinion. Yes, it is true to some extent. I do not deny this charge. We can use the word ‘vainglory’ for it. As far as the contemptible, obsolete, rotten values of our society are concerned, I am an extreme sceptic. But this question does not concern my person alone. It is being proud of my ideas, my thoughts. It cannot be called empty pride. Pride, or you may use the word, vanity, both mean an exaggerated assessment of one’s personality. Is my atheism because of unnecessary pride, or have I ceased believing in God after thinking long and deep on the matter? I wish to put my ideas before you. First of all, let us differentiate between pride and vanity as these are two different things.
I have never been able to understand how unfounded, baseless pride or empty vanity can hinder a person from believing in God. I may refuse to acknowledge the greatness of a really great person only when I have got fame without doing any serious efforts or when I lack the superior mental powers necessary to become great. It is easy to understand but how is it possible that a believer can turn into a non-believer because of his vanity? Only two things are possible: either a man deems himself to be in possession of Godly qualities, or he goes a step further and declares himself to be a god. In both these states of mind he cannot be an atheist in the true sense of the word. In the first case, it is not an outright rejection of God’s existence; in the other, he is affirming the existence of some kind of supernatural power responsible for the working of universe. It does not harm our argument whether he claims to be a god or considers God to be a reality in existence above his own being. The real point, however, is that in both cases he is a theist, a believer. He is not an atheist. I want to bring home this point to you. I am not one of these two creeds. I totally reject the existence of an Omnipresent, all powerful, all knowing God. Why so? I will discuss it later in the essay. Here I wish to emphasise that I am not an atheist for the reason that I am arrogant or proud or vain; nor am I a demi-god, nor a prophet; no, nor am I God myself. At least one thing is true that I have not evolved this thought because of vanity or pride. In order to answer this question I relate the truth. My friends say that after Delhi bombing and Lahore Conspiracy Case, I rocketed to fame and that this fact has turned my head. Let us discuss why this allegation is incorrect. I did not give up my belief in God after these incidents. I was an atheist even when I was an unknown figure. At least a college student cannot cherish any sort of exaggerated notion of himself that may lead him to atheism. It is true that I was a favourite with some college teachers, but others did not like me. I was never a hardworking or studious boy. I never got an opportunity to be proud. I was very careful in my behaviour and somewhat pessimistic about my future career. I was not completely atheistic in my beliefs. I was brought up under the care and protection of my father. He was a staunch Arya Samaji. An Arya Samaji can be anything but never an atheist. After my elementary education, I was sent to D. A. V College, Lahore. I lived in the boarding house for one year. Besides prayers early in the morning and at dusk time, I sat for hours and chanted religious Mantras. At that time, I was a staunch believer. Then I lived with my father. He was a tolerant man in his religious views. It is due to his teachings that I devoted my life for the cause of liberating my country. But he was not an atheist. His God was an all-pervading Entity. He advised me to offer my prayers every day. In this way I was brought up. In the Non-cooperation days, I got admission to the National College. During my stay in this college, I began thinking over all the religious polemics such that I grew sceptical about the existence of God. In spite of this fact I can say that my belief in God was firm and strong. I grew a beard and ‘Kais’ (long head of hair as a Sikh religious custom). In spite of this I could not convince myself of the efficacy of Sikh religion or any religion at all, for that matter. But I had an unswerving, unwavering belief in God.
Then I joined the Revolutionary Party. The first leader I met had not the courage to openly declare himself an atheist. He was unable to reach any conclusion on this point. Whenever I asked him about the existence of God, he gave me this reply: “You may believe in him when you feel like it.” The second leader with whom I came in contact was a firm believer. I should mention his name. It was our respected Comrade Sachindara Nath Sanyal. He was sentenced to life imprisonment in connection with Karachi conspiracy case. Right from the first page of his only book, ‘Bandi Jivan’ (Incarnated Life) he sings praises to the Glory of God. See the last page of the second part of this book and you find praises showered upon God in the way of a mystic. It is a clear reflection of his thoughts.
According to the prosecution, the ‘Revolutionary Leaflet’ which was distributed throughout India was the outcome of Sachindara Nath Sanyal’s intellectual labour. So often it happens that in revolutionary activities a leader expresses his own ideas which may be very dear to him, but in spite of having differences, the other workers have to acquiesce in them.
In that leaflet, one full paragraph was devoted to the praises of God and His doings which we, human beings, cannot understand. This is sheer mysticism. What I want to point out is that the idea of denying the existence of God did not even occur to the Revolutionary Party. The famous Kakory martyrs, all four of them, passed their last day in prayers. Ram Parshad Bismal was a staunch Arya Samaji. In spite of his vast studies in Socialism and Communism, Rajan Lahiri could not suppress his desire to recite hymns from Upanishads and Gita. There was but only one person among them who did not indulge in such activities. He used to say, “Religion is the outcome of human weakness or the limitation of human knowledge.” He is also in prison for life. But he also never dared to deny the existence of God.
Till that time I was only a romantic revolutionary, just a follower of our leaders. Then came the time to shoulder the whole responsibility. For some time, a strong opposition put the very existence of the party into danger. Many leaders as well as many enthusiastic comrades began to uphold the party to ridicule. They jeered at us. I had an apprehension that some day I will also consider it a futile and hopeless task. It was a turning point in my revolutionary career. An incessant desire to study filled my heart. ‘Study more and more’, said I to myself so that I might be able to face the arguments of my opponents. ‘Study’ to support your point of view with convincing arguments. And I began to study in a serious manner. My previous beliefs and convictions underwent a radical change. The romance of militancy dominated our predecessors; now serious ideas ousted this way of thinking. No more mysticism! No more blind faith! Now realism was our mode of thinking. At times of terrible necessity, we can resort to extreme methods, but violence produces opposite results in mass movements. I have talked much about our methods. The most important thing was a clear conception of our ideology for which we were waging a long struggle. As there was no election activity going on, I got ample opportunity to study various ideas propounded by various writers. I studied Bakunin, the anarchist leader. I read a few books of Marx, the father of Communism. I also read Lenin and Trotsky and many other writers who successfully carried out revolutions in their countries. All of them were atheists. The ideas contained in Bakunin’s ‘God and State’ seem inconclusive, but it is an interesting book. After that I came across a book ‘Common Sense’ by Nirlamba Swami. His point of view was a sort of mystical atheism. I developed more interest in this subject. By the end of 1926, I was convinced that the belief in an Almighty, Supreme Being who created, guided and controlled the universe had no sound foundations. I began discussions on this subject with my friends. I had openly declared myself an atheist. What it meant will be discussed in the following lines.
In May 1927, I was arrested in Lahore. This arrest came as a big surprise for me. I had not the least idea that I was wanted by the police. I was passing through a garden and all of a sudden the police surrounded me. To my own surprise, I was very calm at that time. I was in full control of myself. I was taken into police custody. The next day I was taken to the Railway Police lockup where I spent a whole month. After many days’ conversation with police personnel, I guessed that they had some information about my connection with the Kakori Party. I felt they had some intelligence of my other activities in the revolutionary movement. They told me that I was in Lucknow during the Kakori Party Trial so that I might devise a scheme to rescue the culprits. They also said that after the plan had been approved, we procured some bombs and by way of test, one of those bombs was thrown into a crowd on the occasion of Dussehra in 1926. They offered to release me on condition that I gave a statement on the activities of the Revolutionary Party. In this way I would be set free and even rewarded and I would not be produced as an approver in the court. I could not help laughing at their proposals. It was all humbug. People who have ideas like ours do not throw bombs at their own innocent people. One day, Mr. Newman, the then senior Superintendent of CID, came to me. After a long talk which was full of sympathetic words, he imparted to me what he considered to be sad news, that if I did not give any statement as demanded by them, they would be forced to send me up for trial for conspiracy to wage war in connection with Kakori Case and also for brutal killings in Dussehra gathering. After that he said that he had sufficient evidence to get me convicted and hanged.
I was completely innocent, but I believed that the police had sufficient power to do it if they desired it to be so. The same day some police officers persuaded me to offer my prayers to God two times regularly. I was an atheist. I thought that I would settle it to myself whether I could brag only in days of peace and happiness that I was an atheist, or in those hard times I could be steadfast in my convictions. After a long debate with myself, I reached the conclusion that I could not even pretend to be a believer nor could I offer my prayers to God. No, I never did it. It was time of trial and I would come out of it successful. These were my thoughts. Never for a moment did I desire to save my life. So I was a true atheist then and I am an atheist now. It was not an easy task to face that ordeal. Beliefs make it easier to go through hardships, even make them pleasant. Man can find a strong support in God and an encouraging consolation in His Name. If you have no belief in Him, then there is no alternative but to depend upon yourself. It is not child’s play to stand firm on your feet amid storms and strong winds. In difficult times, vanity, if it remains, evaporates and man cannot find the courage to defy beliefs held in common esteem by the people. If he really revolts against such beliefs, we must conclude that it is not sheer vanity; he has some kind of extraordinary strength. This is exactly the situation now. First of all we all know what the judgement will be. It is to be pronounced in a week or so. I am going to sacrifice my life for a cause. What more consolation can there be! A God-believing Hindu may expect to be reborn a king; a Muslim or a Christian might dream of the luxuries he hopes to enjoy in paradise as a reward for his sufferings and sacrifices. What hope should I entertain? I know that will be the end when the rope is tightened round my neck and the rafters move from under my feet. To use more precise religious terminology, that will be the moment of utter annihilation. My soul will come to nothing. If I take the courage to take the matter in the light of ‘Reward’, I see that a short life of struggle with no such magnificent end shall itself be my ‘Reward.’ That is all. Without any selfish motive of getting any reward here or in the hereafter, quite disinterestedly have I devoted my life to the cause of freedom. I could not act otherwise. The day shall usher in a new era of liberty when a large number of men and women, taking courage from the idea of serving humanity and liberating them from sufferings and distress, decide that there is no alternative before them except devoting their lives for this cause. They will wage a war against their oppressors, tyrants or exploiters, not to become kings, or to gain any reward here or in the next birth or after death in paradise; but to cast off the yoke of slavery, to establish liberty and peace they will tread this perilous, but glorious path. Can the pride they take in their noble cause be called vanity? Who is there rash enough to call it so? To him I say either he is foolish or wicked. Leave such a fellow alone for he cannot realise the depth, the emotions, the sentiment and the noble feelings that surge in that heart. His heart is dead, a mere lump of flesh, devoid of feelings. His convictions are infirm, his emotions feeble. His selfish interests have made him incapable of seeing the truth. The epithet ‘vanity’ is always hurled at the strength we get from our convictions.
You go against popular feelings; you criticise a hero, a great man who is generally believed to be above criticism. What happens? No one will answer your arguments in a rational way; rather you will be considered vainglorious. Its reason is mental insipidity. Merciless criticism and independent thinking are the two necessary traits of revolutionary thinking. As Mahatmaji is great, he is above criticism; as he has risen above, all that he says in the field of politics, religion, Ethics is right. You agree or not, it is binding upon you to take it as truth. This is not constructive thinking. We do not take a leap forward; we go many steps back.
Our forefathers evolved faith in some kind of Supreme Being, therefore, one who ventures to challenge the validity of that faith or denies the existence of God, shall be called a Kafir (infidel), or a renegade. Even if his arguments are so strong that it is impossible to refute them, if his spirit is so strong that he cannot be bowed down by the threats of misfortune that may befall him through the wrath of the Almighty, he shall be decried as vainglorious. Then why should we waste our time in such discussions? This question has come before the people for the first time, hence the necessity and usefulness of such long discussions.
As far as the first question is concerned, I think I have made it clear that I did not turn atheist because of vanity. Only my readers, not I, can decide whether my arguments carry weight. If I were a believer, I know in the present circumstances my life would have been easier; the burden lighter. My disbelief in God has turned all the circumstances too harsh and this situation can deteriorate further. Being a little mystical can give the circumstances a poetic turn. But I need no opiate to meet my end. I am a realistic man. I want to overpower this tendency in me with the help of Reason. I am not always successful in such attempts. But it is man’s duty to try and make efforts. Success depends on chance and circumstances.
Now we come to the second question: if it is not vanity, there ought to be some sound reason for rejection of age-old belief in God. Yes, I come to this question. I think that any man who has some reasoning power always tries to understand the life and people around him with the help of this faculty. Where concrete proofs are lacking, [mystical] philosophy creeps in. As I have indicated, one of my revolutionary friends used to say that “philosophy is the outcome of human weakness.” Our ancestors had the leisure to solve the mysteries of the world, its past, its present and its future, its whys and its wherefores, but having been terribly short of direct proofs, every one of them tried to solve the problem in his own way. Hence we find wide differences in the fundamentals of various religious creeds. Sometimes they take very antagonistic and conflicting forms. We find differences in Oriental and Occidental philosophies. There are differences even amongst various schools of thoughts in each hemisphere. In Asian religions, the Muslim religion is completely incompatible with the Hindu faith. In India itself, Buddhism and Jainism are sometimes quite separate from Brahmanism. Then in Brahmanism itself, we find two conflicting sects: Aarya Samaj and Snatan Dheram. Charwak is yet another independent thinker of the past ages. He challenged the Authority of God. All these faiths differ on many fundamental questions, but each of them claims to be the only true religion. This is the root of the evil. Instead of developing the ideas and experiments of ancient thinkers, thus providing ourselves with the ideological weapon for the future struggle, – lethargic, idle, fanatical as we are – we cling to orthodox religion and in this way reduce human awakening to a stagnant pool.
It is necessary for every person who stands for progress to criticise every tenet of old beliefs. Item by item he has to challenge the efficacy of old faith. He has to analyse and understand all the details. If after rigorous reasoning, one is led to believe in any theory of philosophy, his faith is appreciated. His reasoning may be mistaken and even fallacious. But there is chance that he will be corrected because Reason is the guiding principle of his life. But belief, I should say blind belief is disastrous. It deprives a man of his understanding power and makes him reactionary.
Any person who claims to be a realist has to challenge the truth of old beliefs. If faith cannot withstand the onslaught of reason, it collapses. After that his task should be to do the groundwork for new philosophy. This is the negative side. After that comes in the positive work in which some material of the olden times can be used to construct the pillars of new philosophy. As far as I am concerned, I admit that I lack sufficient study in this field. I had a great desire to study the Oriental Philosophy, but I could get ample opportunity or sufficient time to do so. But so far as I reject the old time beliefs, it is not a matter of countering belief with belief, rather I can challenge the efficacy of old beliefs with sound arguments. We believe in nature and that human progress depends on the domination of man over nature. There is no conscious power behind it. This is our philosophy.
Being atheist, I ask a few questions from theists:
1. If, as you believe there is an Almighty, Omnipresent, Omniscient God, who created the earth or universe, please let me know, first of all, as to why he created this world. This world which is full of woe and grief, and countless miseries, where not even one person lives in peace.
2. Pray, don’t say it is His law. If He is bound by any law, He is not Omnipotent. Don’t say it is His pleasure. Nero burnt one Rome. He killed a very limited number of people. He caused only a few tragedies, all for his morbid enjoyment. But what is his place in history? By what names do we remember him? All the disparaging epithets are hurled at him. Pages are blackened with invective diatribes condemning Nero: the tyrant, the heartless, the wicked.
One Genghis Khan killed a few thousand people to seek pleasure in it and we hate the very name. Now, how will you justify your all powerful, eternal Nero, who every day, every moment continues his pastime of killing people? How can you support his doings which surpass those of Genghis Khan in cruelty and in misery inflicted upon people? I ask why the Almighty created this world which is nothing but a living hell, a place of constant and bitter unrest. Why did he create man when he had the power not to do so? Have you any answer to these questions? You will say that it is to reward the sufferer and punish the evildoer in the hereafter. Well, well, how far will you justify a man who first of all inflicts injuries on your body and then applies soft and soothing ointment on them? How far the supporters and organizers of Gladiator bouts were justified in throwing men before half starved lions, later to be cared for and looked after well if they escaped this horrible death. That is why I ask: Was the creation of man intended to derive this kind of pleasure?
Open your eyes and see millions of people dying of hunger in slums and huts dirtier than the grim dungeons of prisons; just see the labourers patiently or say apathetically while the rich vampires suck their blood; bring to mind the wastage of human energy that will make a man with a little common sense shiver in horror. Just observe rich nations throwing their surplus produce into the sea instead of distributing it among the needy and deprived. There are palaces of kings built upon the foundations laid with human bones. Let them see all this and say “All is well in God’s Kingdom.” Why so? This is my question. You are silent. All right. I proceed to my next point.
You, the Hindus, would say: Whosoever undergoes sufferings in this life, must have been a sinner in his previous birth. It is tantamount to saying that those who are oppressors now were Godly people then, in their previous births. For this reason alone they hold power in their hands. Let me say it plainly that your ancestors were shrewd people. They were always in search of petty hoaxes to play upon people and snatch from them the power of Reason. Let us analyse how much this argument carries weight!
Those who are well versed in the philosophy of Jurisprudence relate three of four justifications for the punishment that is to be inflicted upon a wrong-doer. These are: revenge, reform, and deterrence. The Retribution Theory is now condemned by all the thinkers. Deterrent theory is on the anvil for its flaws. Reformative theory is now widely accepted and considered to be necessary for human progress. It aims at reforming the culprit and converting him into a peace-loving citizen. But what in essence is God’s Punishment even if it is inflicted on a person who has really done some harm? For the sake of argument we agree for a moment that a person committed some crime in his previous birth and God punished him by changing his shape into a cow, cat, tree, or any other animal. You may enumerate the number of these variations in Godly Punishment to be at least eighty-four lack. Tell me, has this tomfoolery, perpetrated in the name of punishment, any reformative effect on human man? How many of them have you met who were donkeys in their previous births for having committed any sin? Absolutely no one of this sort! The so called theory of ‘Puranas’ (transmigration) is nothing but a fairy-tale. I do not have any intention to bring this unutterable trash under discussion. Do you really know the most cursed sin in this world is to be poor? Yes, poverty is a sin; it is a punishment! Cursed be the theoretician, jurist or legislator who proposes such measures as push man into the quagmire of more heinous sins. Did it not occur to your All Knowing God or he could learn the truth only after millions had undergone untold sufferings and hardships? What, according to your theory, is the fate of a person who, by no sin of his own, has been born into a family of low caste people? He is poor so he cannot go to a school. It is his fate to be shunned and hated by those who are born into a high caste. His ignorance, his poverty, and the contempt he receives from others will harden his heart towards society. Supposing that he commits a sin, who shall bear the consequences? God, or he, or the learned people of that society? What is your view about those punishments inflicted on the people who were deliberately kept ignorant by selfish and proud Brahmans? If by chance these poor creatures heard a few words of your sacred books, Vedas, these Brahmans poured melted lead into their ears. If they committed any sin, who was to be held responsible? Who was to bear the brunt? My dear friends, these theories have been coined by the privileged classes. They try to justify the power they have usurped and the riches they have robbed with the help of such theories. Perhaps it was the writer Upton Sinclair who wrote (Bhagat Singh is referring to Sinclair’s pamphlet ‘Profits of Religion’ – MIA transcriber) somewhere “only make a man firm believer in the immortality of soul, then rob him of all that he possesses. He will willingly help you in the process.” The dirty alliance between religious preachers and possessors of power brought the boon of prisons, gallows, knouts and above all such theories for the mankind.
I ask why your Omnipotent God does not hold a man back when he is about to commit a sin or offence. It is child’s play for God. Why did He not kill war lords? Why did He not obliterate the fury of war from their minds? In this way He could have saved humanity of many a great calamity and horror. Why does He not infuse humanistic sentiments into the minds of the Britishers so that they may willingly leave India? I ask why He does not fill the hearts of all capitalist classes with altruistic humanism that prompts them to give up personal possession of the means of production and this will free the whole labouring humanity from the shackles of money. You want to argue the practicability of Socialist theory, I leave it to your Almighty God to enforce it. Common people understand the merits of Socialist theory as far as general welfare is concerned but they oppose it under the pretext that it cannot be implemented. Let the Almighty step in and arrange things in a proper way. No more logic chopping! I tell you that the British rule is not there because God willed it but for the reason that we lack the will and courage to oppose it. Not that they are keeping us under subjugation with the consent of God, but it is with the force of guns and rifles, bombs and bullets, police and militia, and above all because of our apathy that they are successfully committing the most deplorable sin, that is, the exploitation of one nation by another. Where is God? What is He doing? Is He getting a diseased pleasure out of it? A Nero! A Genghis Khan! Down with Him!
Now another piece of manufactured logic! You ask me how I will explain the origin of this world and origin of man. Charles Darwin has tried to throw some light on this subject. Study his book. Also, have a look at Sohan Swami’s “Commonsense.” You will get a satisfactory answer. This topic is concerned with Biology and Natural History. This is a phenomenon of nature. The accidental mixture of different substances in the form of Nebulae gave birth to this earth. When? Study history to know this. The same process caused the evolution of animals and in the long run that of man. Read Darwin’s ‘Origin of Species.’ All the later progress is due to man’s constant conflict with nature and his efforts to utilise nature for his own benefit. This is the briefest sketch of this phenomenon.
Your next question will be why a child is born blind or lame even if he was not a sinner in his previous birth. This problem has been explained in a satisfactory manner by biologists as a mere biological phenomenon. According to them the whole burden rests upon the shoulders of parents whose conscious or unconscious deeds caused mutilation of the child prior to his birth.
You may thrust yet another question at me, though it is merely childish. The question is: If God does not really exist, why do people come to believe in Him? Brief and concise my answer will be. As they come to believe in ghosts, and evil spirits, so they also evolve a kind of belief in God: the only difference being that God is almost a universal phenomenon and well developed theological philosophy. However, I do disagree with radical philosophy. It attributes His origin to the ingenuity of exploiters who wanted to keep the people under their subjugation by preaching the existence of a Supreme Being; thus claimed an authority and sanction from Him for their privileged position. I do not differ on the essential point that all religions, faiths, theological philosophies, and religious creeds and all other such institutions in the long run become supporters of the tyrannical and exploiting institutions, men and classes. Rebellion against any king has always been a sin in every religion.
As regard the origin of God, my thought is that man created God in his imagination when he realized his weaknesses, limitations and shortcomings. In this way he got the courage to face all the trying circumstances and to meet all dangers that might occur in his life and also to restrain his outbursts in prosperity and affluence. God, with his whimsical laws and parental generosity was painted with variegated colours of imagination. He was used as a deterrent factor when his fury and his laws were repeatedly propagated so that man might not become a danger to society. He was the cry of the distressed soul for he was believed to stand as father and mother, sister and brother, brother and friend when in time of distress a man was left alone and helpless. He was Almighty and could do anything. The idea of God is helpful to a man in distress.
Society must fight against this belief in God as it fought against idol worship and other narrow conceptions of religion. In this way man will try to stand on his feet. Being realistic, he will have to throw his faith aside and face all adversaries with courage and valour. That is exactly my state of mind. My friends, it is not my vanity; it is my mode of thinking that has made me an atheist. I don’t think that by strengthening my belief in God and by offering prayers to Him every day, (this I consider to be the most degraded act on the part of man) I can bring improvement in my situation, nor can I further deteriorate it. I have read of many atheists facing all troubles boldly, so I am trying to stand like a man with the head high and erect to the last; even on the gallows.
Let us see how steadfast I am. One of my friends asked me to pray. When informed of my atheism, he said, “When your last days come, you will begin to believe.” I said, “No, dear sir, Never shall it happen. I consider it to be an act of degradation and demoralisation. For such petty selfish motives, I shall never pray.” Reader and friends, is it vanity? If it is, I stand for it.


 - Written: October 5–6, 1930
Source/Translated: Converted from the original Gurmukhi (Punjabi) to Urdu/Persian script by Maqsood Saqib; 
translated from Urdu to English by Hasan for marxists.org, 2006;



मैं नास्तिक क्यों हूँ
भगत सिंह

 



एक नई समस्‍या उठ खड़ी हुई है – क्‍या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान सर्वव्‍यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर विश्‍वास नहीं करता हूँ? मैंने कभी कल्‍पना भी न की थी कि मुझे इस समस्‍या का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने दोस्‍तों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कुछ दोस्‍त, यदि मित्रता का मेरा दावा गलत न हो, मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए उत्‍सुक हैं कि मैं ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्‍यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्‍वास के लिए उकसाया है। जी हाँ, यह एक गंभीर समस्‍या है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्‍य हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। एक कमजोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार मेरे स्‍वभाव का अंग है। अपने कामरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्‍यक्ति कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्‍त श्री बी.के. दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्‍वेच्‍छाचारी कहकर मेरी निन्‍दा भी की गई। कुछ दोस्‍तों को यह शिकायत है, और गंभीर रूप से है, कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्‍तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है, इससे मैं इंकार नहीं करता। इसे अहंकार भी कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्‍य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है, मुझे निश्‍चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्‍यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्‍वास के प्रति न्‍यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता। घमंड या सही शब्‍दों में अहंकार तो स्‍वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। तो फिर क्‍या यह अनुचित गर्व है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया, अथवा इस विषय का खूब सावधानी के साथ अध्‍ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्‍वर पर अविश्‍वास किया? यह प्रश्‍न है जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। लेकिन पहले मैं यह साफ कर दूँ कि आत्‍माभिमान और अहंकार दो अलग-अलग बातें हैं।
पहली बात तो मैं यह समझने में पूरी तरह से असमर्थ रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस प्रकार किसी व्‍यक्ति के ईश्‍वर में विश्‍वास करने के रास्‍ते में रोड़ा बन सकता है। मैं वास्‍तव में किसी महान व्‍यक्ति की महानता को मान्‍यता न दूँ यह तभी हो सकता है जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्‍त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्‍य नहीं हूँ या मेरे अंदर वो गुण नहीं है जोकि इसके लिए आवश्‍यक अथवा अनिवार्य है। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्‍यक्ति, जो ईश्‍वर में विश्‍वास रखता हो, सहसा अपने व्‍यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्‍वास करना बंद कर दे? दो ही रास्‍ते संभव हैं। या तो मनुष्‍य अपने को ईश्‍वर का प्रतिद्वंद्वी समझने लगे या वह स्‍वयं को ही ईश्‍वर मानना शुरू कर दे। इन दोनों ही अवस्‍थाओं में वह सच्‍चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्‍था में तो वह प्रतिद्वंद्वी के अस्तित्‍व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्‍था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्‍व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। हमारे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि वह अपने को ही परम आत्‍मा समझता है या यह समझता है कि वह परम चेतना उससे परे कुछ और है। मूल बात तो मौजूद है। या यह समझता है कि वह परम चेतना उससे परे कुछ और है। मूल बात तो मौजूद है। उसका विश्‍वास मौजूद है। वह किसी भी तरह एक नास्तिक नहीं है। तो मैं यह कहना चाहता था कि न तो मैं पहली श्रेणी में आता हूँ और न दूसरी में। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्‍मा के अस्तित्‍व से ही इंकार करता हूँ। मैं इससे क्‍यों इंकार करता हूँ इसको बाद में देखेंगे। यहाँ तो मैं एक बात यह स्‍पष्‍ट कर देना चाहता हूँ कि यह अहंकार नहीं है जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। न तो मैं एक प्रतिद्वंद्वी, न ही अवतार और न ही स्‍वयं परम आत्‍मा। एक बात निश्चित है, यह अहंकार नहीं है जो मुझे इस भाँति सोचने की ओर ले गया। इस अभियोग को अस्‍वीकार करने के लिए आइए, तथ्‍यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्‍तों के अनुसार, दिल्‍ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्‍यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ। तो फिर आइए, देखें कि क्‍या यह पक्ष सही है। मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्‍पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्‍वर पर विश्‍वास करना तब छोड़ दिया था जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था, जिसके अस्तित्‍व के बारे में मेरे उपरोक्‍त दोस्‍तों को कुछ पता भी न था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाए। यद्यपि मैं कुछ अध्‍यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्‍य को मैं अच्‍छा नहीं लगता था, पर मैं कभी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का तो कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्‍जालु स्‍वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्‍य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। और उन दिनों मैं पूर्ण नास्तिक नहीं था। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव से मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी हैं। एक आर्यसमाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी.ए.वी. स्‍कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्‍त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्‍त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्‍न है, वह एक उदारवादी व्‍यक्ति हैं। उन्‍हीं की शिक्षा से मुझे स्‍वतंत्रता के ध्‍येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किंतु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्‍वर में दृढ़ विश्‍वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिए प्रोत्‍साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आंदोलन के दिनों में मैंने राष्‍ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्‍याओं, यहाँ तक कि ईश्‍वर के बारे में उदारपूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्‍का आस्तिक था। उस समय तक मैंने अपने बिना काटे व सँवारे हुए लंबे बालों को रखना शुरू कर दिया था, यद्यपि मुझे कभी भी सिख या अन्‍य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्‍वास न हो सका था। किंतु मेरी ईश्वर के अस्तित्‍व में दृढ़ निष्‍ठा थी।
बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ पर जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ, वे तो पक्‍का विश्‍वास न होते हुए भी ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकारने का साहस नहीं कर सकते थे। ईश्‍वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, "जब इच्‍छा हो तब पूजा कर लिया करो।" यह नास्तिकता है जिसमें इस विश्‍वास को अपनाने के साहस का अभाव है। दूसरे नेता जिनके मैं संपर्क में आया वे पक्‍के श्रद्धालु थे। उनका नाम बता दूँ - आदरणीय कामरेड शचींद्रनाथ सान्‍याल, जोकि आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी अकेली प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘बंदी जीवन’ में पहले पेज से ही ईश्‍वर की महिमा का जोर-जोर से गान है। उस सुंदर पुस्‍तक के दूसरे भाग के अंतिम पेज में उन्‍होंने ईश्‍वर के ऊपर प्रशंसा के जो रहस्‍यात्‍मक वेदांत के कारण पुष्‍प बरसाए हैं वे उनके विचारों का अजीबोगरीब हिस्‍सा हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवाल्‍यूशनरी’ (क्रांतिकारी) पर्चा बाँटा गया था वह अभियोग पक्ष की कहानी के अनुसार उन्‍हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। अब इस प्रकार के गुप्‍त कार्यों में कोई प्रमुख नेता अनिवार्यत: अपने विचारों को ही रखता है, जो उसे स्‍वयं बहुत प्रिय होते हैं और अन्‍य कार्यकर्ताओं को उनसे सहमत होना होता है। उन मतभेदों के बावजूद जो उनके हो सकते हैं। उस पर्चे में पूरा एक पैराग्राफ उस सर्वशक्तिमान तथा उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा से भरा पड़ा था। यह सब रहस्‍यवाद है। मैं जो कहना चाहता था वह यह है कि ईश्‍वर के प्रति अविश्‍वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्‍फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के प्रसिद्ध सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन प्रार्थना में गुजारे थे। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी थे। समाजवाद तथा साम्‍यवाद में अपने वृहद अध्‍ययन के बावजूद, राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषद् एवं गीता के श्‍लोकों के उच्‍चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सबमें सिर्फ एक ही व्‍यक्ति को देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, "दर्शनशास्‍त्र मनुष्‍य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्‍पन्‍न होता है।" वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परंतु उसने भी ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकारने की कभी हिम्‍मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे, अब अपने कंधों पर जिम्‍मेदारी उठाने का समय आया था। कुछ समय तक तो, अवश्‍यंभावी प्रक्रिया के फलस्‍वरूप पार्टी का अस्तित्‍व ही असंभव-सा दिखा। उत्‍साही कामरेडों, नहीं नेताओं ने भी हमारा उपहास करना शुरू कर दिया। कुछ समय तक तो मुझे यह डर लगा कि एक दिन मैं भी कहीं अपने कार्यक्रम की व्‍यर्थता के बारे में आश्‍वस्‍त न हो जाऊँ। वह मेरे क्रांतिकारी जीवन का एक निर्णायक बिंदु था। अध्‍ययन की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी - विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्‍य बनने के लिए अध्‍ययन करो। अपने मत के समर्थन में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्‍ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्‍वास अद्भुत रूप से परिष्‍कृत हुए। हिंसात्‍मक तरीकों को अपनाने का रोमांस, जोकि हमारे पुराने साथियों में अत्‍यधिक व्‍याप्‍त था, की जगह गंभीर विचारों ने ले ली। अब रहस्‍यवाद और अंधविश्‍वास के लिए कोई स्‍थान नहीं रहा। यथार्थवाद हमारा आधार बना। हिंसा तभी न्‍यायोचित है जब किसी विकट आवश्‍यकता में उसका सहारा लिया जाए। अहिंसा सभी जन आंदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए। यह तो रही तरीकों की बात। सबसे आवश्‍यक बात उस आदर्श की स्‍पष्‍ट धारणा है जिसके लिए हमें लड़ना है। चूँकि उस समय कोई विशेष क्रांतिकारी कार्य नहीं हो रहा था अतः मुझे विश्‍व क्रांति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्‍यवाद के पिता मार्क्‍स को, किंतु ज्‍यादातर लेनिन, त्रात्‍स्‍की व अन्‍य लोगों को पढ़ा जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। वे सभी नास्तिक थे। बाकुनिन की पुस्‍तक ‘ईश्‍वर और राज्‍य’ इस विषय पर, यद्यपि आंशिक रूप में, एक अच्‍छा अध्‍ययन है। बाद में मुझे इस बात का विश्‍वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परम आत्‍मा की बात - जिसने ब्रह्मांड का सृजन किया, दिग्‍दर्शन और संचालन किया - एक कोरी ब‍कवास है। मैंने अपने इस अविश्‍वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्‍तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था। किंतु इसका अर्थ क्‍या था, यह मैं आगे बतलाऊँगा।
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ्तार हुआ। यह गिरफ्तारी अकस्‍मात हुई थी। मुझे इसका जरा भी अहसास नहीं था कि पुलिस को मेरी तलाश है। अचानक एक बगीचे से गुजरते हुए मैंने पाया कि मैं पुलिसवालों से घिरा हुआ हूँ। मुझे स्‍वयं आश्‍चर्य हुआ कि मैं उस समय बहुत शांत रहा। न तो कोई सनसनी महसूस हुई, न ही जरा भी उत्तेजना का अनुभव हुआ। मुझे पुलिस हिरासत में ले लिया गया था। अगले दिन मुझे रेलवे पुलिस हवालात में ले जाया गया, जहाँ मुझे पूरा एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफसरों से कई दिनों की बातचीत के बाद मुझे ऐसा लगा कि उन्‍हें मेरे काकोरी दल के संबंधों के बारे में तथा क्रांतिकारी आंदोलन से संबंधित मेरी गतिविधियों के बारे में कुछ जानकारी है। उन्‍होंने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था जब वहाँ मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्‍हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्‍त किये थे, कि 1926 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिए भीड़ पर फेंका गया। उसके बाद मेरे भले के लिए उन्‍होंने मुझे बताया कि यदि मैं क्रांतिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालनेवाला एक वक्‍तव्‍य दे दूँ तो मुझे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और इनाम दिया जाएगा। मैं इस प्रस्‍ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखनेवाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी.आई.डी. के वरिष्‍ठ अधीक्षक श्री न्‍यूमन मेरे पास आए। लंबी-चौड़ी सहानुभूतिपूर्ण बातों के बाद उन्‍होंने मुझे, अपनी समझ में, यह अत्‍यंत दुखद समाचार दिया कि यदि मैंने उनके द्वारा मांगा गया वक्‍तव्‍य नहीं दिया तो वे मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षड्यंत्र तथा दशहरा बम उपद्रव में क्रूर हत्‍याओं के लिए मुकदमा चलाने पर बाध्‍य होंगे। और आगे उन्‍होंने मुझे यह भी बताया कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व [फाँसी पर] लटकाने के लिए उचित प्रमाण मौजूद हैं। उन दिनों मुझे यह विश्‍वास था, यद्यपि मैं बिल्‍कुल निर्दोष था, कि पुलिस यदि चाहे तो ऐसा कर सकती है। उसी दिन से कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे नियम से दोनों समय ईश्‍वर की स्‍तुति करने के लिए फुसलाना शुरू कर दिया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्‍वयं के लिए यह बात तय करना चाहता था कि क्‍या शांति और आनंद के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दंभ भरता हूँ अथवा ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धांतों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने यह निश्‍चय किया कि किसी भी तरह ईश्‍वर पर विश्‍वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। न ही मैंने एक क्षण के लिए भी अरदास की। यही असली परीक्षण था और इसमें मैं सफल रहा। एक क्षण को भी अन्‍य बातों की कीमत पर अपनी गर्दन बचाने की मेरी इच्‍छा नहीं हुई। अब मैं एक पक्‍का नास्तिक था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्‍वास’ कष्‍टों को हल्‍का कर देता है, यहाँ तक कि उन्‍हें सुखकर बना सकता है। ईश्‍वर से मनुष्‍य को अत्‍यधिक सांत्‍वना देनेवाला एक आधार मिल सकता है। ‘उसके’ बिना मनुष्‍य को स्‍वयं अपने ऊपर निर्भर होना पड़ता है। तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्‍चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घडि़यों में अहंकार, यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्‍य आम विश्‍वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। पर यदि करता है, तो इससे यह निष्‍कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ अहंकार नहीं, वरन कोई अन्‍य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। पहले ही अच्‍छी तरह पता है कि [मुकदमें का] क्‍या फैसला होगा। एक सप्‍ताह में ही फैसला सुना दिया जाएगा। मैं अपना जीवन एक ध्‍येय के लिए कुर्बान करने जा रहा हूँ, इस विचार के अतिरिक्‍त और क्‍या सांत्‍वना हो सकती है? ईश्‍वर में विश्‍वास रखनेवाला हिंदू पुनर्जन्‍म पर एक राजा होने की आशा कर सकता है, एक मुसलमान या ईसाई स्‍वर्ग में व्‍याप्‍त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्‍टों और बलिदानों के लिए पुरस्‍कार की कल्‍पना कर सकता है। किंतु मैं किस बात की आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्‍सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्‍ता हटेगा, वही पूर्ण विराम होगा - वही अंतिम क्षण होगा। मैं, या संक्षेप में आध्‍यात्मिक शब्‍दावली की व्‍याख्‍या के अनुसार, मेरी आत्‍मा, सब वहीं समाप्‍त हो जाएगी। आगे कुछ भी नहीं रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई जिंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्‍वयं एक पुरस्‍कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस हो। यही सब कुछ है। बिना किसी स्‍वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्‍कार की इच्‍छा के बिना, मैंने आसक्‍त भाव से अपने जीवन को स्‍वतंत्रता के ध्‍येय पर समर्पित कर दिया है, क्‍योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत से पुरुष और महिलाएँ मिल जाएँगे, जो अपने जीवन को मनुष्‍य की सेवा तथा पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्‍त और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा। वे शोषकों, उत्‍पीड़कों और अत्‍याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्‍प्रेरित होंगे, इसलिए नहीं कि उन्‍हें राजा बनना है या कोई अन्‍य पुरस्‍कार प्राप्‍त करना है - यहाँ या अगले जन्‍म में या मृत्‍योपरांत स्‍वर्ग में। उन्‍हें तो मानवता की गर्दन से दासवृत्ति का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शांति स्‍थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा। क्‍या वे उस रास्‍ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिए खतरनाक किंतु उनकी महान आत्‍मा के लिए एकमात्र शानदार रास्‍ता है? क्‍या अपने महान ध्‍येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जाएगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण लगाने का साहस करता है? मैं कहता हूँ कि ऐसा व्‍यक्ति या तो मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्‍योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्‍च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय एक मांस के टुकड़े की तरह मृत हैं। उसकी आँखें अन्‍य स्‍वार्थों के प्रेत की छाया पड़ने से कमजोर हो गई हैं। स्‍वयं पर भरोसा करने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। और यह दुखपूर्ण एवं कष्‍टप्रद है, पर चारा ही क्‍या है?
तुम जाओ, और किसी प्रचलित धर्म का विरोध करो; जाओ और किसी हीरो की, महान व्‍यक्ति की - जिसके बारे में सामान्‍यतः यह विश्‍वास किया जाता है कि वह आलोचना से परे है क्‍योंकि वह गलती कर ही नहीं सकता, आलोचना करो, तो तुम्‍हारे तर्क की शक्ति हजारों लोगों को तुम पर वृथाभिमानी होने का आक्षेप लगाने को मजबूर कर देगी। ऐसा मानसिक जड़ता के कारण होता है। आलोचना तथा स्‍वतंत्र विचार, दोनों ही एक क्रांतिकारी के अनिवार्य गुण हैं। क्‍योंकि महात्‍मा जी महान हैं, अत: किसी को उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। चूँकि वह ऊपर उठ गए हैं, अतः हर बात जो वे कहते हैं - चाहे वह राजनीति के क्षेत्र की हो अथवा धर्म, अर्थशास्‍त्र अथवा नीतिशास्‍त्र के - सब सही है। आप चाहे आश्‍वस्‍त हों अथवा नहीं ले जा सकती है। यह तो स्‍पष्‍ट रूप से प्रतिक्रियावादी है।
क्‍योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्‍मा (सर्वशक्तिमान ईश्‍वर) के प्रति विश्‍वास बना लिया था अत: किसी भी ऐसे व्‍यक्ति को, जो उस विश्‍वास की सत्‍यता या उस परम आत्‍मा के अस्तित्‍व ही को चुनौती दे, विधर्मी, विश्‍वासघाती कहा जाएगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खंडन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्‍था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्‍वर के प्रकोप से होनेवाली विपत्तियों का भय दिखाकर दबाया नहीं जा सकता, तो उसकी यह कहकर निंदा की जाएगी कि वह वृथाभिमानी है, उसकी प्रकृति पर अहंकार हावी है। तो इस व्‍यर्थ विवाद पर समय नष्‍ट करने का क्‍या लाभ? फिर इन सारी बातों पर बहस करने की कोशिश क्‍यों? ये लंबी बहस इसलिए, क्‍योंकि जनता के सामने यह प्रश्‍न आज पहली बार आया है और आज ही पहली बार इस पर वस्‍तुगत रूप से चर्चा हो रही है।
जहाँ तक पहले प्रश्‍न की बात है, मैं समझता हूँ कि मैंने यह साफ कर दिया है कि यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं, इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि वर्तमान परिस्थितियों में ईश्‍वर पर विश्‍वास ने मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हल्‍का कर दिया होता और उस मेरे अविश्‍वास ने सारे वातावरण को अत्‍यंत शुष्‍क बना दिया है और परिस्थितियां एक कठोर रूप ले सकती हैं। थोड़ा-सा रहस्‍यवाद इसे कवित्‍वमय बना सकता है। किंतु मेरे भाग्‍य को किसी उन्‍माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अपनी अंतःप्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्‍येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयत्‍न तथा प्रयास करना मनुष्‍य का कर्तव्‍य है, सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है।
और दूसरा सवाल, कि यदि यह अहंकार नहीं था, तो ईश्‍वर के अस्तित्‍व के बारे में प्राचीन तथा आज भी प्रचलित श्रद्धा पर अविश्‍वास का कोई कारण होना चाहिए। जी हाँ, मैं अब इस पर आता हूँ। कारण है। मेरे विचार से कोई भी मनुष्‍य जिसमें जरा सी भी विवेकशक्ति है वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं होता, वहाँ दर्शनशास्‍त्र महत्‍वपूर्ण स्‍थान बना लेता है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, मेरे क्रांतिकारी साथी कहा करते थे कि दर्शनशास्‍त्र मनुष्‍य की दुर्बलता का परिणाम है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्‍व के रहस्‍य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्‍य, इसके क्‍यों और कहाँ से को-समझने का प्रयास किया तो सीधे प्रमाणों के भारी अभाव में हर व्‍यक्ति ने इन प्रश्‍नों को अपने-अपने ढंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्‍न धार्मिक मतों के मूल तत्‍व में ही हमें इतना अंतर मिलता है कभी-कभी तो वैमनस्‍य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्‍येक गोलार्द्ध के विभिन्‍न मतों में आपस में अंतर है। एशियायी धर्मों में, इस्‍लाम तथा हिंदू धर्मों में जरा भी एकरूपता नहीं है। भारत में ही बुद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग हैं, जिसमें स्‍वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाए जाते हैं। पुराने समय का एक अन्‍य स्‍वतंत्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्‍वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। यह सभी मत एक-दूसरे से मूलभूत प्रश्‍नों पर मतभेद रखते हैं और हर व्‍यक्ति अपने को सही समझता है। यही तो दुर्भाग्‍य की बात है। बजाय इसके कि हम पुराने विद्वानों एवं विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्‍य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाएँ और इस रहस्‍यमय प्रश्‍न को हल करने की कोशिश करें, हम आलसियों की तरह, जो कि हम सिद्ध हो चुके हैं, विश्‍वास की, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्‍वास की, चीख-पुकार मचाते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के अपराधी हैं।
प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि काफी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है। लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है। लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है। जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ। एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला। लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है। समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।
जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं - यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएँ कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं।
कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं। फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है। नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। जालिम,निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं। एक चंगेज खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो? फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं? मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी - ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी? इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है। ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लूटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’
मुसलमानों और ईसाइयों। हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं। मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है? तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिंदुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है। उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है - सब ठीक है।
कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोंपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं। और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक - जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है। उसको यह सब देखने दो और फिर कहे - ‘‘सबकुछ ठीक है।’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ।
और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं। ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है। लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं।
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है। केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है। मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर - अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों - वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो, ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें। आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे। जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज को सही तरीके से कर दें। अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं। मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं। यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध - एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज है, तो उसका नाश हो।
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ। चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको पढ़ो। सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो। तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा। यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है। विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो? जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है। उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं।
स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो - यद्यपि यह निरा बचकाना है। वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा - जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे। अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित। विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने, स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए - ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए। जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।
समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरुद्ध लड़ना पड़ा था। इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है। मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना - जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ - मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।
देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।