Tuesday, December 4, 2012

गोरख पांडेय की डायरी से ...



                                  
कविता और प्रेम - दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है। प्रेम मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ। क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिए तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिए जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योग देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ। इसलिए कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिए ही लिखता हूँ। कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं। हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं।
(6.3.1976)
हमें कैसी औरत चाहिए? निश्चय ही उसे मित्र होना चाहिए। हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए। वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं। वह दृढ़ होनी चाहिए। चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है। वह सहयोगिनी हो हर काम में। देखने लायक भी होनी चाहिए। ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी बनायी नहीं मिलेगी। उसे विकसित करना होगा। उसे व्यवस्था को खतम करने में साथ लेना होगा। हमें औरतों की जरूरत है। हमें उनसे अलग नहीं रहना चाहिए।
(14.3.1976)
मुझे शक हो रहा है कि मेरे देखने, सुनने, समझने की शक्ति गायब तो नहीं होती जा रही है। अगर मेरे पत्र के बाद उन्हें देखा, तो निश्चय ही वे सम्बन्धों को फिर कायम करना चाहते हैं। अगर नहीं, तो हो सकता है कि मैंने भ्रमवश किसी और को देखकर उन्हें समझ लिया हो। यह खत्म होने की, धीरे धीरे बेलौस बेपनाह होते जाने की, धड़कनें बन्द कर देने वाले इन्तजार की सीमा कहाँ खत्म होती है? क्या जिन्दगी प्रेम का लम्बा इन्तजार है? अगर मैं रहस्यवादी होता तो आसानी से यह कह सकता था। लेकिन मैं देखता हूँ, देख रहा हूँ, कि बहुत से लोग प्रेम की परिस्थितियों में रह रहे हैं। अतः मुझे अपने व्यक्तिगत अभाव को सार्वभौम सत्य समझने का हक नहीं है। यह एक छोटे भ्रम से बड़े भ्रम की ओर बढ़ना माना जायेगा। मुझे प्रेम करने का हक नहीं है, मगर इन्तजार का हक है। स्वस्थ हो जाऊँगा, कल शायद खुलकर ठहाके लगा पाऊँगा।        
(24.3.1976)
मेरा पूरा पतन हो गया है। यह मेरी आर्थिक परिस्थिति से अभिन्न रूप से जुड़ा है। मुझे पहले खाना जुटाने का काम करना चाहिए। यह सीख है। सारे अनुभव बताते हैं कि आदमी को दो जून पेट भरने का इन्तजाम करना चाहिए, और बातें बाद में आती हैं। लेकिन मैं हवा में प्यार की सोचता रहा हूँ। मैं हवा में तिरता सा रहा हूँ। बिना देश और दुनिया की परिस्थितियों का विचार किए प्यार के बारे में बेहूदा कल्पनाएँ करता रहा हूँ। नतीजा कि मैं ही सब कुछ हूँ। समाज के बिना एक व्यक्ति कुछ नहीं है। वह बोल नहीं सकता, वह मुस्कुरा नहीं सकता, वह सूँघ नहीं सकता, वह आदमी नहीं बन सकता। मुझे इसके लिए दण्डित किया जाना चाहिए कि एक घृणापूर्ण दम्भ के अलावा मेरे पास कुछ देने को नहीं रह गया है।
सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है। व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं। व्यक्तिगत समस्याएँ जहाँ तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं। अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके।          
(11.4.1976)
-www.hindisamay.com से साभार

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