फिल्म के दर्शकों को सबसे अधिक मजा झाँकने में आता है। सिनेमा घर के अँधेरे में बैठे हुए लोग एक-दूसरे को नहीं देख सकते हैं, लेकिन वास्तविक दुनिया के लोगों से अदृश्य होकर फिल्म के नायकों की जीवन में घुस जाते हैं। फिल्मों के दर्शक खुद से देखे हुए लोगों के सारे रहस्यों के बारे में जानते हैं, और फिल्म देखते समय यह सब जान लेना सबसे मजेदार क्षण होता है। इसलिए हर सामान्य सिनेमा में सबसे पहले एक नियम की बहुत बड़ी जरूरत है। फिल्म की कहानी के नायकों को ऐसा व्यवहार करना चाहिए जैसे उनको मालूम नहीं था कि उनको कोई देख रहा है। हर फिल्म के अभिनेता-अभिनेत्री को मालूम है कि उनकी फिल्में लोगों के मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन इस जानकरी को पर्दे पर दिखाना फिल्म का सबसे बड़ा पाप है। साथ ही, जब कोई फिल्म अपने बारे में कुछ बताना चाहती है, तब भी यह नियम महत्त्वपूर्ण है, इसलिए ऐसी स्थिति वहाँ ज्यादा प्रचलित है जहाँ फिल्म की दुनिया यथार्थ से दूर नहीं है और दर्शकों को वास्तविक लगती है। ऐसे ही एक पाप का बहुत अच्छा उदाहरण मनोज कुमार की फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ है। फिल्म के शुरू के दृश्य में जब फिल्म का नायक भारत लंदन जाता है तो वह ऑर्फन नाम के हिप्पी से मिलता है, और यह लड़का जब अपने अजीब नाम के बारे में बोलता है तब सीधे कैमरा की तरफ देखता है। उसकी इस भंगिमा को देखकर ऐसा लगता है जैसे वह भारत से नहीं, दर्शकों से बात करना चाहता है। और अगर वह दर्शकों से बात कर सकता है तो इसका मतलब यह भी है कि उसको पता है कि कोई उसे देख रहा है और सारे दृश्य का मतलब यह है कि पर्दे पर चल रही कहानी सच नहीं है। सब भ्रम बर्बाद हो जाता है। कोई निर्देशक अवश्य ही इस भंगिमा का बहुत अच्छा इस्तेमाल कर सकता है, और कभी-कभी इसकी जरूरत भी होती है, जैसे कि डरावनी फिल्मों में। वहाँ जब कोई राक्षस या किसी तरह का विरूप प्राणी सीधे दर्शक की ओर देखता है तो डर से मिलने वाले मनोरंजन में इजाफा हो जाता है क्योंकि इस भंगिमा का मतलब कोई चेतावनी है और दर्शक को लगता है कि अगला बलि-पशु वह हो सकता है।
झाँकने से मजा लेने (दर्शनरति) के बारे में मनोविश्लेषण का सिद्धांत, जिसका जिक्र लउरा मल्वे (Laura Mulvey) ने किया है, डर्टी पिक्चर में अच्छी तरह दिखाई दिया। फिल्म की नायिका, जिसका नाम रेशमा है, अभिनेत्री बनना चाहती है और इसके लिए सब कुछ करने को तैयार है। अभिनेत्री होने के बदले में रेशमा, जिसका नया नाम सिल्क है, नाचती हुई ऐसी लड़की बन जाती है जिसके नृत्य में बहुत ही साहसिक रत्यात्मक मुद्राओं की जरूरत होती है। वह अपनी ख्याति से बहुत खुश है लेकिन इस तरह की ख्याति वास्तव में बहुत कड़वी होती है। अफसोस की बात यह है कि सिल्क और उस प्रकार की सारी औरतों की ऐसी ख्याति सच्ची ख्याति न होकर भी सिनेमा के लिए कोई नई चीज नहीं है। मनोविश्लेषण के आधार पर लउरा मल्वे ने न सिर्फ देखने से आने वाले मजे के बारे में लिखा बल्कि उस शक्ति के बारे में भी लिखा जो देखने से पैदा होती है। कैमरे की आँखें पुरुष की आँखें होती हैं इसलिए औरत का शरीर सिनेमा में महज देखने की वस्तु है। औरत को कुछ करना नहीं चाहिए, सिर्फ अच्छी तरह दिखाई देना चाहिए। भारतीय सिनेमा यह रत्यात्मक मजा भी अपने दर्शकों को देता है, अपनी नायिकाओं को देखने की अनुमाति देता है। यहाँ भी सिनेमाघर के अँधेरे में बैठे हुए आदमी को लगता है कि उसे कुछ ऐसा देखना है जो सभी लोगों के लिए नहीं है, जिसे सामान्य जीवन में देखना अनैतिक है। और कोई नाचती हुई औरत अगर कभी सीधे कैमरे की ओर देखेगी तो इस बार यह कोई फिल्म का पाप नहीं होगा क्योंकि सिनेमाघर में बैठा हुआ हर आदमी सोचेगा कि पर्दे पर दिख रही लड़की सिर्फ उसके लिए नाच रही है। झाँकने से मिलने वाले मनोरंजन का स्थानांतरण हो जाएगा और हर आदमी यह सोच सकेगा कि वह शो का एक हिस्सा है और उसमें भी कामविषयक शक्ति है।
स्त्री-शरीर को दिखाने का उपक्रम सबसे अच्छी तरह गानों में संभव है। पश्चिम के लोगों को ज्यादातर भारतीय फिल्मों में मौजूद गानों की इतनी उपस्थिति बड़ी अजीब लगती है क्योंकि खास तौर से यूरोप में सांगीतिक फिल्में कभी इतनी लोकप्रिय नहीं थीं, और जो सांगीतिक फिल्में थीं भी, उनकी दुनिया भारतीय फिल्मों से अलग होती थी। यूरोप की अधिकांश सांगीतिक फिल्में किसी न किसी संगीत-नाट्य प्रदर्शन के बारे में होती हैं, संगीत की उपस्थिति ‘तार्किक’ होती हैं, इसलिए फिल्मों का ऐसा नुस्खा, जहाँ हर कहानी में गानों की जरूरत है, पश्चिमी दर्शकों के लिए अस्वीकार्य है। वे लोग नहीं जानते हैं कि कामविषयक मजे के लिए गानों की कितनी बड़ी जरूरत है! पुराने जमाने से ही फिल्मों की अलग, कभी-कभी बहुत दिलचस्प योजनाएँ होती थीं औरतों के शरीर दिखाने के लिए। भारतीय सिनेमा के इतिहास में कभी-कभी ऐसे निर्देशक भी हुए जो नायिकाओं के शरीर को दिखाने के मामले में गानों के मुहताज नहीं थे – और उनमें सबसे प्रसिद्ध नाम शायद राज कपूर का था। उसकी ‘बॉबी’ एक नई और चुस्त कहानी थी लेकिन कुछ दर्शकों को वह सिर्फ डिंपल कपाडिया की बिकनी के कारण अच्छी लगती थी। तथापि कभी औरत का शरीर दिखाना फिल्म को कुछ नुकसान भी पहुँचा सकता है। शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन एक बहुत महत्त्वपूर्ण फिल्म थी जो स्त्री-हिंसा को सबको दिखाना चाहती थी। अफ्सोस की बात यह है कि ज्यादा दर्शक सिर्फ सीमा बिस्वास के नंगे शरीर को देखने के लिए सिनेमाघर आ जाते थे और फिल्म जिसका विरोध करना चाहती थी उसने यही सब दर्शकों को दिया। ज्यादा फिल्में सतर्कतापूर्वक अलग-अलग तरीके ढूँढ़ती हैं जो शरीर दिखाने के लिए सबसे उचित हों। सबसे आसान तरीका है वेश्या को नायिका बनाना क्योंकि वेश्याओं के साथ सब कुछ करना उचित है। निस्सन्देह सभी नायिकाएँ वेश्या नहीं हो सकती हैं इसलिए कई फिल्मों में मोहिनी आ गई जोकि बहुत अच्छी योजना थी। इस तरह फिल्म की नायिका बहुत भोली, अच्छी लड़की हो सकती थी लेकिन नायक दूसरी औरत को भी पसंद था जो अच्छी थी पर सुंदर और खतरनाक थी, शराब और सिगरेट पीती थी और नाइट क्लबों में नाचती थी। इस योजना से आइटम नंबर पैदा हुआ जो कामविषयक मजे के लिए भारतीय फिल्मों का शायद सबसे अच्छा आविष्कार भी था। आइटम नंबर वाली औरतें सिर्फ देखने के लिए होती हैं और फिल्म की कहानी से उनका कोई संबंध नहीं होता है। वे शुद्ध मजे के लिए उतारी जाती हैं। नायिका का इस तरह नाचना हमेशा अनुचित था, पर कभी-कभी इसकी जरूरत भी थी इसलिए ड्रीम सिक्वेंस बन गया। इसकी मदद से दर्शक वह सब कुछ देख पाता है जो सिनेमाघर में आकर देखना चाहता है, और नायिका की इज्जत भी सुरक्षित रहती है क्योंकि हर ऐसा दृश्य सिर्फ सपना होता है।
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