Tuesday, January 8, 2013

कथाकार गुंजेश की कवितायें



कविता के वर्जित प्रदेश से                                                             


मैं लौट आया हूँ

इससे पहले कि

वे बांध लेते, मुझे कर्ता कारण संबंध में

उसूल सारे तोड़ आया व्याकरण के

हालांकि जनता हूँ बिना व्याकरण के

शब्द भी साथ नहीं देंगे

कविता नहीं होगी,बिना व्याकरण के

लेकिन कवियों तुम्हारा यह व्याकरण वह अर्थ नहीं देता

जिसके लिए मैं लिखना चाहता था कविता

-----------------------------------------------

एक दिन

कविता की कक्षा में

धूमिल को बोर्ड पर चिपका कर

वह, धर्मशाला हो चुकी

लड़की की तलाश में जुट गया

-------------------------------------------------

एक और दिन कक्षा में

पढ़ाया गया

सचमुच मज़बूरी है

मगर ज़िंदा रहने के लिए

पालतू होना ज़रूरी है

उस दिन और उसके बाद जिन-जिन लोगों ने

मज़बूरी पर सवाल खड़े किये

उन्हें जंगली करार दे दिया गया।

---------------------------------------------------

मैं लौट आया हूँ, उस प्रदेश से

जहां आज भी

मोचीको मोचीऔर रामको रामकहा जाता है

धूमिल तो बहाना है

स्त्री और जाँघ और बिस्तर और गोश्त

के ज़िक्र का।


यह जानते हुए कि/ इतिहास बोध, युद्ध बोध में/ और समय बोध, संबंध बोध में
बदल गया है/ कक्षाओं में बैठे कुछ अबोध/ अब भी कर रहे हैं पाठ/ मुक्तिबोध
का/ अब भी उसका यकीन है/ कि/ लौट आना विकल्प नहीं है.......


(2)
इस शहर में
जहां अब हूँ
तुम्हारे साथ से- ज्यादा- तुम्हारे बिना,
जिसके लिए कहा करता था
'
तुम हो तो शहर है, वरना क्या है'
'
नहीं, शहर है तो हम हैं
हम, हम नहीं रहेंगे तो भी शहर रहेगा'- तुम्हारी हिदायत होती थी
अपनी रखी हुई कोई चीज़ भूल जाने, और रसोई में एक छिपकली से डर कर चाय
बिखेर देने के बावजूद,
तुमने बेहतर समझा था इस शहर को
कैसे झूम कर बरसता था यह शहर, उन दिनों में
जिनको अब कोई याद नहीं करता
तुमने ही तो कहा था - 'जब बहुत उमड़-घुमड़ कर शोर मचाते हैं बादल, और बरसते
हैं  दो एक बूंद ही,
तो लगता है जैसे, खूब ठहाकों के बाद दो बूंद पानी निकली हो किसी के आँखों
से'..........
(3)
हमने कुछ नहीं किया था
बस ढूंढा था
मैंने
तुम्हारी हंसी को, अपने चेहरे पर
तुमने
मेरे आंसुओं को अपनी आँखों में
......................
अब भी कुछ नहीं हुआ
हमने
पेंसिल और कलम की तरह
एक दूसरे की चीज़ें
एक दूसरे को लौटा दी है .....
(5)
इन दिनों
कुछ गुनगुनाते हुए
अचानक ही
आ जाता है
तुम्हारा नाम
जैसे धुल भरे इलाकों से गुजरने पर
आती है छींक
और फिर मन
हो जाता है
बहुत हल्का .........

(6)
लो गिर गए
धम्म की आवाज़ से बिखर गए
मेरे ही पैरों के आस-पास
बहुत तेज़ रफ़्तार से आती किसी याद ने झकझोरा होगा शायद
वरना मैंने तो कभी तुम्हारा नाम नहीं लिया
"
संभाल कर रखना, संभल कर रहना"
कहाँ हो पता है
सारी समझाइशों का
हासिल यही हुआ
संभल कर रहा मैं
जान बुझ छः की जगह
तीन, पाँच, सात कुछ भी डायल करता रहा
नज़रों पर दूर का चश्मा लगा लिया
गई हो तो वापस लौटोगी एक दिन ज़रूर
एक तुम्हीं थीं
एक बार बुद्धू कहती
और मैं सब समझ जाता........

-कथाकार एवं कवि गुंजेश कुमार मिश्रा से मिलिये 

No comments:

Post a Comment