Saturday, February 16, 2013

' स्वातिलेखा ' की कविताएँ ...


   1.                                                                    

मैं चाहती हूँ
किसी पंख या फूल की तरह                          
एक किताब में रख दूँ 
अपना अतीत
और छुपा दूँ किताब को
किसी टूटी-सी रैक में.
फिर कभी भूले से
तमाम पुरानी किताबों संग
उसे भी दे डालूँ 
कबाड़ी को.

     2.
.
एक घरेलू महिला की जिंदगी का सच
आखिर क्या होता है,
बस यही भर 
कि सीलन भरी छत ताकते हुए
वो अचानक से उठे 
और तबाह कर डाले 
कीड़े-मकौड़ों की जिंदगी
या 
किसी बाजार से ले आए
पिंजड़े सहित एक तोता
और दोपहर से शाम तक
फिर व्यस्त हो जाए। 

     3.

मेरी माँ
धीरे-धीरे छोड़ रही है शायद
अपना घरेलू होना
हर पहर खाने का इंतजार करते
पिंजरे में बंद
तोते को देखना 
अब उसे जरा भी अच्छा नहीं लगता
और सीलन भरी छत
अब उसे परेशान नहीं करती।
                                                                  
    4.

हर बार जुकाम होने पर,
या ऑफिस से 
देर गए लौटने पर
या ऐसी ही कई-कई बातों पर
दी गई मेरी हिदायतों से
भले ही दिखा लो कि
कितना खीज रहे हो तुम|
पर मैं जानती हूँ
कि साठ की उम्र में
जब कभी काम के बाद 
घर थोड़ी देर से लौटूँगी
तो तुम दरवाजे पर कहोगे
लो पहले आ गया आज मैं,
सुनो! तुम ग्रीन टी लोगी 
या ब्लैक कॉफी। 
       
      5.

उस शख्स को मैं क्या कहूँ
जो हफ्तों तक भूल जाता है 
मुझे कॉल करना 
पर नजदीक रहते हुए 
साथ में सोना कभी नहीं भूलता॰...
          
      6.

महिला होने का सबब ये भी है
कि बेहद छोटी कर दी जाएँ 
उसकी आँखें 
और बरसों लग जाएँ 
समझने में, कि
खुद को पार्टनर कहने वाला आदमी भी
अब तक उसे 
शरीर ही जानता रहा.



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1 comment:

  1. जीवन के कड़वे सच भी इतनी सरलता से कहे गये है जो सोचनें में जुम्बिस करते है।

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