Wednesday, July 31, 2013

‘शिप ऑफ थीसियस’ में ‘शिप ऑफ थीसियस’ था कहां?

नंद गांधी की इस फिल्म को पिछले मुंबई फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। यह तभी से चर्चा में थी। अंदरखाने इस फिल्म को हिंदी सिनेमा की एक उपलब्धि के रूप में चित्रित किया जाने लगा था। दूसरी तरफ इस फिल्म के कुछ विदेशी पुरस्कार जीतने की भी बात की जाने लगी। हालांकि इस समीक्षा के लिखे जाने तक इस फिल्म को दुनिया का कोई भी अतिप्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ है। यूरोप या अमरीका के शहरों में न जाने कितने फिल्म समारोह होते हैं। लेकिन मैं जिन चार-पांच पुरस्करों को प्रतिष्ठित मानता हूं, वे हैं आस्कर, कान्‍स, बर्लिन, वेनिस और बाफ्टा पुरस्कार। इसके अलावा भी कुछेक अन्य पुरस्कार होंगे, जिन्हें इनके समकक्ष माना जा सकता है।
आनंद गांधी की फिल्म जब चर्चा में आनी शुरू हुई, तो मुझे सबसे पहले इस फिल्म का नाम ही नहीं समझ में आ रहा था। मैंने गूगल सर्च किया, तो पता चला कि यह एक ग्रीक पैराडॉक्स है। इस पैराडॉक्स के पीछे एक कहानी है। संक्षेप में कहानी यह है कि एक महान ग्रीक योद्धा थीसियस द्वारा प्रयोग किये गये लकड़ी के जहाज को धरोहर के रूप में संरक्षित कर लिया गया था। समय के साथ जब जहाज का कोई भाग खराब होता तो उसे बदल दिया जाता रहा। इस तरह लंबे समय अंतराल में एक वक्त ऐसा आया कि जहाज में कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं बचा, जो मूल जहाज का रहा हो, यानी एक-एक कर पूरा जहाज बदल चुका था।
विकिपीडिया के अनुसार ग्रीक दार्शनिक प्लुटार्क ने इस समस्या को उठाते हुए प्रश्न पूछा कि क्या इस जहाज को थिसियस का कहा जा सकता है? तभी से यह सवाल दार्शनिकों के लिए पैराडॉक्स बना हुआ है। पैराडॉक्स यानी ऐसी पहेली जिसके दो विपरीत लगने वाले जवाब सही प्रतीत होते हों। उनमें से किसी एक को निर्णायक रूप से सच न माना जा सके।
आनंद गांधी ने फिल्म की शुरुआत में यह सवाल दर्शकों को सामने रखा है कि क्या सारे अंग बदल जाने के बाद भी अब भी जहाज थीसियस का कहा जा सकता है? और क्या थीसियस के जहाज के जिन भागों को खराब होने के कारण निकाला गया है, उन्हें जोड़ने से जो बनेगा वो जहाज थीसियस का असल जहाज होगा?
निश्चय ही यह एक दार्शनिक प्रश्न है, जिसका जवाब खोजने में किसी का दिमाग चकरघिन्नी खा जाएगा। लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग करने पर यह एक सरल सवाल भी प्रतीत हो सकता है। यहां उद्देश्य इस दार्शनिक प्रश्न की मीमांसा का नहीं है। बात है फिल्म की।
इन दार्शनिक प्रश्नों से शुरू होने के कारण ज्यादातर फिल्मी समीक्षकों ने इसे एक दार्शनिक खोज करने वाली फिल्म माना है। ज्यादातर ने तो इसे भारत के लिए अभूतपूर्व फिल्म माना है। मुझे यह भी याद नहीं कि वो कौन सी आखिरी फिल्म थी जो पूरे देश में उंगली पर गिने जा सकने लायक सिनेमाहाल में रिलीज हुई हो लेकिन प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया पर लिखने वाले हर समीक्षक ने जिसकी समीक्षा लिखी हो। मेरी हिसाब से इस परिघटना को जरूर अभूतपूर्व माना जा सकता है।
इन सभी समीक्षकों द्वारा दिये गये भारी-भरकम स्टार के कारण ही फिल्म को कुछेक दर्शक मिल सके। हालांकि आनंद गांधी ने पूरी कोशिश की है कि ऐसा कुछ न हो और उनकी फिल्म एक ‘पैराडॉक्स’ बनी रहे।
फिल्म देखकर यह साफ हो जाता है कि आनंद गांधी ने यह फिल्म स्वानंद के लिए बनायी है। फिल्म समीक्षा की भाषा में ऐसी फिल्मों को आर्ट हाउस फिल्म कहा जाता है। आनंद गांधी ने फिल्म का यह नाम क्यों रखा इसे लेकर मैं काफी ऊहापोह में रहा था। फिल्म देखने से पहले तक मेरी सोच यही थी कि यह नाम भारतीय दर्शकों की समझ के ऊपर एक अत्याचार है। फिल्म देखने का बाद मुझे महसूस हुआ कि बेचारे आनंद गांधी और करते भी क्या! उनकी इस फिल्म का सारा दार्शनिकपन ही फिल्म के शीर्षक पर टिका हुआ है। शायद वो जानते थे कि इस ग्रीक पैराडॉक्स पर जोर देकर ही वो फिल्म देखने वालों की आंखों पर फिलॉसफी का फिल्टर चढ़ा सकेंगे। फिल्म की समीक्षाएं पढ़ने से पता चलता है कि आनंद की सोच काफी हद तक सही भी थी। वो लोगों को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि इस फिल्म के माध्यम से कोई दार्शनिक प्रश्न उठाया जा रहा है या फिर किसी दार्शनिक पहेली का हल ढूंढ़ने का प्रयास किया जा रहा है। मेरे ख्याल से आनंद ऐसा न करते तो फिल्म के हक में ज्यादा अच्छा होता।
यह फिल्म मूलतः तीन शॉर्ट फिल्मों के माध्यम से अपनी बात कहने का प्रयास करती है। इन तीन शार्टस में दो तो मोटे तौर पर अंग्रेजी में हैं और तीसरी हिंदी में। जिस फिल्म का टाइटल शिप ऑफ थीसियस हो और वो दो तिहाई अंग्रेजी में हो तो यह साफ हो जाता है कि फिल्म चुनिंदा लोगों को लिए ही बनायी गयी है। चुनिंदा लोगों को लिए कही गयी इस कहानियों में पहली कहानी एक दृष्टिविहीन लड़की की कहानी है। लड़की विदेशी है। मुंबई में रहती है। वह जन्म से दृष्टिविहीन नहीं है। संक्रमण के कारण उसकी दृष्टि चली गयी है। वो फोटोग्राफर बन जाती है। चीजों को उनकी ध्वनियों के आधार पर अपने कैमरे में कैद करती है। अपनी तस्वीरों को उनके उभारों से महसूस करती है। उसके लिए हर रंग, हर आकृति एक परिकल्पना है।
Ship of Theseus
काम के प्रति उसका रवैया परफेक्शनिस्ट है। उसका काम लोगों को पसंद आता हैं। उसके दैनिक जीवन बड़ा मोड़ तब आता है जब उसे अस्पताल से फोन आता है कि उसकी आंख का ऑपरेशन करने की तारीख आ गयी है। लड़की की आंख का ऑपरेशन सफल रहता है। कुछ दिनों के आराम के बाद वह फिर से तस्वीरें खींचना शुरू करती है। आंखें मिल जाने के कारण अब वह चीजों को देख सकती है लेकिन उसे इससे तस्वीर खींचने में सुविधा नहीं होती बल्कि असुविधा होने लगती है। उसे लगता है कि वह अपने मनमर्जी की तस्वीर नहीं खींच पा रही है। वह शहर से दूर पहाड़ी क्षेत्र में जाती है कि शायद वहां उसे वो मिले जिसकी उसे तलाश है लेकिन फिल्म के अनुसार वहां भी वह तस्वीर खींचने में खुद को असमर्थ पाती है। इस फिल्म की पहली कहानी यहीं खत्म हो जाती है। पहली कहानी के बाद दर्शक यही सोचता रह जाता है कि आखिर हुआ क्या?
शिप ऑफ थीसियस की दूसरी कहानी एक बौद्ध भिक्षु की कहानी है। फिल्म की तीन कहानियों में यही कहानी सबसे उम्दा और मुकम्मल बन पड़ी है। एक बौद्ध भिक्षु दवाओं के परीक्षण के दौरान जानवरों पर किये जाने वाले अत्याचार को रोकने के लिए अदालत में मुकदमा लड़ रहा होता है। एक दिन भिक्षु को पता चलता है कि उसे लिवर सिरोसिस हो गया है। भिक्षु को अब वही दवाएं लेनी होंगी जिनसा वो विरोध करता रहा था। भिक्षु तय करता है कि वो उन दवाओं का प्रयोग नहीं करेगा जिन्हें जानवरों पर अत्याचार करके बनाया गया है। वह दवा लिए बिना प्राण त्याग देने का निर्णय लेकर अपने कुछ साथियों के साथ शहर से बाहर किसी जगह रहने चला जाता है। एक नौजवान लड़का भिक्षु का मुंह लगा है। वह भिक्षु से लगातार उसके निर्णयों को लेकर बहस करता रहता है। भिक्षु और युवक के बीच होने वाला संवाद पूरी तरह से दार्शनिक स्वरूप का है। बहरहाल इन संवादों से तो नहीं लेकिन अपने शरीर के कष्ट से टूटकर भिक्षु अंत में दवा लेने को मान जाता है। और जैसा कि फिल्म के अंत में दिखाया गया है, भिक्षु को लीवर प्रतिरोपण करके बचा लिया गया।
तीसरी कहानी एक ऐसे स्टॉकब्रोकर नौजवान की है जिसकी किडनी का प्रतिरोपण किया गया है। अभी वह अस्पताल से निकलता ही है कि उसकी नानी के पैर में फ्रैक्चर हो जाता है और वो उसी अस्पताल में भर्ती होती हैं जहां युवक का ऑपरेशन हुआ था। उसकी नानी एक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता है। वह उसे प्रेरित करती है कि वह कुछ ऐसा करे जिससे समाज के अन्य लोगों को भी लाभ मिल सके। दोनों के बीच जीवन जीने के सार्थक तरीके को लेकर तीखी बहस होती है। शायद यह नानी से हुई बहस का ही प्रभाव है जब युवक को पता चलता है कि अस्पताल में एक ऐसा आदमी आया है जिसकी कुछ डॉक्टरों ने किडनी चुरा ली है तो युवक के मन में उसके लिए गहरी सहानुभूति जन्म लेती है।
युवक को पहले शक होता है कि उसे जो किडनी लगाई गयी है वह उसी पीड़ित व्यक्ति की है। पड़ताल करने पर उसका शक बेबुनियाद निकलता है। वह ठान लेता है कि वह पता लगाके रहेगा कि उस पीड़ित व्यक्ति की किडनी किसने चुराई और चुराकर किसको बेची। वह यह पता लगाने में कामयाब भी रहता है। जिस व्यक्ति को वह चोरी की किडनी लगी थी वह स्टाकहोम-स्वीडेन में रहता है। नायक स्टाकहोम जाकर जब उस व्यक्ति पर किडनी चोरी का इल्जाम लगाता है और उसे बताता है कि जिस डॉक्टर ने उसकी किडनी का प्रतिरोपण किया था अब वो भारत में किडनी चोरी का रैकेट चलाने के कारण जेल में है। वह व्यक्ति डर जाता है और तुरंत पीड़ित को साढ़े छह लाख रुपए पहुंचवा देता है और उसे हर महीने पैसे भेजने का वादा करता है। पीड़ित व्यक्ति इस औचक लाभ से खुश हो जाता है।
नायक चाहता है कि वह किडनी चुराने वालों को सजा दिलाए लेकिन पीड़ित तैयार नहीं होता। नायक कहता है कि पैसे कि वह चिंता न करें उसे पैसे अदालत से मिल जाएंगे या वो खुद पैसे दे देगा। लेकिन पीड़ित अदालत के नाम से भी डरता है। वह हाथ में आये पैसे से ही खुश है। पीड़ित के इस व्यवहार से निराश नायक भारत लौट आता है। लौटकर नानी से मिलता है। नानी उसे सांत्वाना देते हुए कहती है कि एक आदमी जितना कर सकता है उसने उतना किया। यहीं पर तीसरी कहानी खत्म होती है।
दर्शकों के हिसाब से यह तीसरी कहानी सबसे ज्यादा रोचक रही। इसमें हास्य, रहस्य और करुणा का अच्छा समिश्रण होने का कारण दर्शक राहत पाते दिखे। लेकिन अभी तक दर्शक यह समझ नहीं पा रहे थे कि तीनों कहानियों के बीच संबंध क्या है! तीनों कहानियों का संबंध निर्देशक कहानी के अंत में बताते हैं। कहानी के अंत में एक एनजीओ ऐसे आठ लोगों को एक वीडियो देखने के लिए बुलाता है जिसे उस व्यक्ति ने बनाया है जिसका कोई न कोई अंग इन आठों व्यक्तियों में प्रतिरोपित किया गया है। इन आठ लोगों में ही इस फिल्म में दिखाए गये फोटग्राफर, बौद्ध भिक्षु और शेयर ब्रोकर शामिल हैं। इन लोगों को जो वीडियो दिखाया जाता है वह एक निर्जन गुफा का अंतरंग है। वीडियोग्राफी के दौरान गुफा की दीवारों पर उस व्यक्ति की छाया दिखती है जो वीडियो बना रहा है। और जिसके कई अंग इस वक्त वीडियो देख रहे लोगों में मौजूद है। इस वीडियो से शायद आनंद गांधी ने कहना चाहा है कि इन आठ लोगों को अंगदान करने वाला व्यक्ति भी छाया के रूप में इन सभी लोगों को अंदर मौजूद है।
फिल्म खत्म होने के बाद भी विचारवान दर्शकों की मुश्किल खत्म नहीं होती। फिल्म की शुरुआत में आनंद गांधी ने शिप ऑफ थीसियस पैराडॉक्स के रूप में जो प्रश्न दर्शकों को सामने रखा था उसका इस फिल्म से क्या संबंध है यह समझना कठिन हो रहा था। क्योंकि फिल्म में न ही किसी एक व्यक्ति को किसी के सारे अंग लगा दिये गये हैं, न ही किसी एक व्यक्ति के सारे के सारे अंगों को किसी न किसी को लगा दिया गया हो। यानी थीसियस के जहाज वाली स्थिति तो कहीं बनती ही नहीं। कुल मिलाकर इस कहानी को थीसियस के जहाजी पैराडॉक्स से न जोड़ा जाता तो भी वह इतनी ही प्रभावशाली होती या शायद ज्यादा ही। फिल्म को अतिरिक्त उम्मीदों का बोझ न सहना पड़ता।
फिल्म में अभिनय, अभिनेताओं का चयन, संगीत, कैमरा निर्देशन सभी स्तरीय है। संवादों का अतिरेक कहीं-कहीं फिल्म के टेक्सचर के हिसाब से खलता है। यदि आप एक गहन दार्शनिक हिंदी फिल्म देखने के लिए शिप ऑफ थीसियस का चयन करेंगे तो आप हाल से दिग्भ्रमित और निराश ही बाहर आएंगे। क्योंकि फिल्म की इतनी ज्यादा तारीफ हो चुकी है कि आपको लगेगा कि आप फिल्म समझ नहीं पाये, नतीजन जबरदस्ती इस-उस दर्शन को इसमें फिट करने की कोशिश करेंगे।
यह एक ऐसी फिल्म है, जिसमें एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट का फार्मूला गायब है। मेरी राय में यदि आप इसे एक साधारण फिल्म की तरह देखने जाएं तो हिंदी में अब तक अनछुए विषय पर बनी इस “हिंदी कम अंग्रेजी ज्यादा” फिल्म को देखकर आप निराश नहीं होंगे।
-रंगनाथ सिंह

समीक्षक को यहाँ लिखिए https://www.facebook.com/rangnath.singh?fref=ts
मोहल्ला लाइव से साभार 

Saturday, July 27, 2013

Outtakes: Joseph Losey


WHO is he?
American scenarist, film and theatre director who made over 30 feature films between the 1940s and the 1980s. Losey was blacklisted in Hollywood by the House Committee on Un-American Activities for his connections with the Communist Party and he moved to England, where the greater part of his career unfolded. His film The Go-Between won the Golden Palm at Cannes Film Festival in 1971.
WHAT are his films about?
Themes
Losey's films are very political and explore the politics in the relationship between genders, classes and identity groups. Characters are emotionally unstable, appear to inhabit a heightened, more-politicised reality and are frequently forced to break out of their socially-defined roles and to come out of their secure, conservative lives. They are made to confront their antitheses, only to have them realise that they are dependent on each other for their existence. The physical space of a house, with its connotations of security, warmth and affluence, holds a central position in these works.
Style
Losey worked with radical theatre theorist and director Bertolt Brecht, whose method informs his later films. His style is notably ornate, with numerous camera movements, unsettling angles, contrasting use of music and deep compositional spaces. The three films in which he collaborated with Harold Pinter are especially abstracted, with fragmented dialogue and anti-naturalistic acting. Perhaps most significant is Losey's use of architecture and interior spaces — typically claustrophobic or extreme — to reflect the psychology of the characters.
WHY is he of interest?
Widely considered a British filmmaker despite being an American, Joseph Losey is one of the few filmmakers who had to leave America for Europe to find work. Informed by left-wing analytical acumen, Losey’s films explore the influence of politics in relationship between individuals and everyday interactions without resorting to reductive worldviews or convenient good/evil characterisations.
WHERE to discover him?
Though made at the twilight of Losey's career, Mr. Klein (1976) ranks among his greatest achievements and stars French icon Alain Delon as a wealthy art-dealer in Nazi-occupied Paris increasingly obsessed with searching out a Jewish man who shares the same name, in the process losing his own identity. This remarkably directed film charts the transition of the protagonist from apolitical apathy to commitment as he is forced to recognise the existence of an invisible “other” that, he learns, gives meaning to his own.

Courtesy- The Hindu

Tuesday, July 23, 2013

To a Young Poet By Mahmoud Darwish

Don’t believe our outlines, forget them
and begin from your own words.
As if you are the first to write poetry
or the last poet.

If you read our work, let it not be an extension of our airs,
but to correct our errs
in the book of agony.

Don’t ask anyone: Who am I?
You know who your mother is.
As for your father, be your own.

Truth is white, write over it
with a crow’s ink.
Truth is black, write over it
with a mirage’s light.

If you want to duel with a falcon
soar with the falcon.

If you fall in love with a woman,
be the one, not she,
who desires his end.

Life is less alive than we think but we don’t think
of the matter too much lest we hurt emotions’ health.

If you ponder a rose for too long
you won’t budge in a storm.

You are like me, but my abyss is clear.
And you have roads whose secrets never end.
They descend and ascend, descend and ascend.

You might call the end of youth
the maturity of talent
or wisdom. No doubt, it is wisdom,
the wisdom of a cool non-lyric.

One thousand birds in the hand
don’t equal one bird that wears a tree.

A poem in a difficult time
is beautiful flowers in a cemetery.

Example is not easy to attain
so be yourself and other than yourself
behind the borders of echo.

Ardor has an expiration date with extended range.
So fill up with fervor for your heart’s sake,
follow it before you reach your path.

Don’t tell the beloved, you are I
and I am you, say
the opposite of that: we are two guests
of an excess, fugitive cloud.

Deviate, with all your might, deviate from the rule.

Don’t place two stars in one utterance
and place the marginal next to the essential
to complete the rising rapture.

Don’t believe the accuracy of our instructions.
Believe only the caravan’s trace.

A moral is as a bullet in its poet’s heart
a deadly wisdom.
Be strong as a bull when you’re angry
weak as an almond blossom
when you love, and nothing, nothing
when you serenade yourself in a closed room.

The road is long like an ancient poet’s night:
plains and hills, rivers and valleys.
Walk according to your dream’s measure: either a lily
follows you or the gallows.

Your tasks are not what worry me about you.
I worry about you from those who dance
over their children’s graves,
and from the hidden cameras
in the singers’ navels.

You won’t disappoint me,
if you distance yourself from others, and from me.
What doesn’t resemble me is more beautiful.

From now on, your only guardian is a neglected future.

Don’t think, when you melt in sorrow
like candle tears, of who will see you
or follow your intuition’s light.
Think of yourself: is this all of myself?

The poem is always incomplete, the butterflies make it whole.

No advice in love. It’s experience.
No advice in poetry. It’s talent.

And last but not least, Salaam.



Translated By Fady Joudah


- Source: Poetry (March 2010).

Monday, July 22, 2013

Not a pretty picture/ Bharadwaj Rangan

As the UN commissions for the first time a study on the portrayal of women in world cinema, how guilty are our movies of perpetuating an appalling culture of gender bias.

 

Maybe violent movies don’t cause people to pick up guns, but do films that objectify women reinforce sexual stereotypes?
UN Women, the entity that works for gender equality and women’s empowerment, has teamed up with former Hollywood star Geena Davis to commission a study on how women are portrayed in cinema. Skewed gender representation in movies has long been an issue of concern because it strongly impacts how women see themselves, how society sees them, and the relationships between sexes. It is interesting in the context of this study, which will span many countries including Australia, China, Germany, Japan, and India, to see just how well our own films handle these sensitivities.
The recent hit Raanjhanaa, to some, is simply the story of a besotted lover. To others, though, the protagonist, Kundan, is a stalker who has no business demanding the audience’s sympathy. The first category of viewers sees Kundan as a man who’s led on by Zoya, the woman he loves, and had she not embraced him like a friend, had she not smeared Holi colours on him, had she, in short, stayed aloof, he wouldn’t have come on so strong. This is a bit like saying that had a rape victim stayed at home, she would not have been raped. This isn’t about the responsibility of cinema, its duty towards society, but about why women always end up being blamed and victimised for the actions of men.
You could compile an encyclopaedia about scenes and plots from our cinema where women are viewed through a patriarchal gaze and advised to stay safe and pure. In Purab aur Paschim, the heroine who smokes and drinks and wears short skirts is shown the error of her ways when the villain attempts to rape her. In the Tamil film Gayathri, the imprisoned heroine discovers that her husband has made blue films of their nights together. But just when she’s about to be rescued, she dies. Her virtue having been “compromised,” the director cannot allow her to live anymore.
For the longest time in our films, the heroine’s virtue had to remain intact. In Kati Patang, Asha Parekh is a widow in white who falls in love with Rajesh Khanna, but she’s also a “pure” widow, a fact that’s established through a convoluted story that shows her marriage never being consummated. That was in the 1970s. Four decades later, little had changed. In the supposedly futuristic Robot/Endhiran, a nude girl rescued from a burning building (she was in the bath) comes under a truck minutes after she is rescued. She has been ‘exposed’ to people, and clearly cannot be allowed to live any longer. In between, we’ve repeatedly seen victims of rape getting married to their rapists/seducers, as in the Tamil drama Moondru Mudichu, where Rajinikanth is “taught a lesson” when the woman he seduces sets up camp in his house and forces his change of heart. She has to, clearly, because, according to the filmmaker, who else will marry her?
Raanjhanaa doesn’t revolve around this nauseating insinuation of purity in an obvious sense — but in its own way, there’s the tiniest implication that if Zoya had been ’pure’, a good Muslim who stayed at home and covered her face and didn’t go around talking to the local boys, then these events in her life may never have come about.
It brings us to the age-old question of whether a filmmaker has a responsibility to society. Do action films incite an audience member to pick up a gun? Or is it only the disturbed individual, who isn’t quite there, likely to be affected by the violent happenings on screen? When millions of viewers go back home and begin to lead their lives with utter normalcy, can movies be held responsible for the actions of a handful of individuals?
But it’s clearly different in the case of portrayal of women, because here the movies seem not so much to be inciting new behaviour as endorsing old ones. When the sub-text shows approval of victims marrying rapists, or of ‘impure’ women being killed, there’s a strong subliminal message going out to the masses.
In a nation whose epic Ramayana contains an episode where the heroine’s virtue is suspected, aren’t the movies that play with notions of the woman’s purity reinforcing caveman philosophies? Can a film — a big mainstream film (not a multiplex movie) — be made in India that shows that women can wear tight T-shirts and down shots of tequila and smoke the odd cigarette and still be seen as figures worthy of respect? Can she express affection casually, the way Zoya does in Raanjhanaa, and not be assumed to be sending out invitations of love? Do you really need to be told the answer?


Courtesy- The Hindu

Saturday, July 13, 2013

Outtakes: Federico Fellini


WHO is he?
Iconic Italian film director and screenwriter who wrote over 50 films and directed more than 20 documentaries and features between the forties and the nineties. His La Dolce Vita — a watershed film in the world cinema canon — won the top prize at Cannes Film Festival in 1960. He additionally has the unparalleled record of directing four films — La Strada (1954), The Nights Of Cabiria (1957), 8 ½ (1963) and Amarcord (1973) that won the Oscar for Best Foreign Language Film.
WHAT are his films about?
Themes
One of the most prominent thematic elements that recurs throughout Fellini’s filmography is the idea of life as a circus — an association that stems both from his lifelong fascination with the circus and his view of life as a procession of the absurd. They are also often structured around memories, fantasies and dreams of the protagonist, seamlessly blending the conscious and the unconscious. Much of his late-period work harks back to his childhood experiences, his impressions of the places he has lived in and the people he has met.
Style
The most renowned films by Fellini possess a dream-like quality, with baroque imagery, unnatural lighting, heightened colour palettes and film scores, elaborate camera movements marked by many tracking shots and extreme close-ups, deep-space compositions drawn from his Neorealist roots, caricatured appearances of actors and a general abundance of movement within the shots. Most famous long-time collaborators include actors Marcello Mastroianni and Giulietta Masina and composer Nino Rota.
WHY is he of interest?
Along with Ingmar Bergman and Michelangelo Antonioni, Fellini is arguably the most canonical of European film directors. Fellini’s aesthetic breadth spanned the gamut, ranging from the quotidian verity of Italian Neorealism to the fantastical excursions of Surrealism. Hundreds of filmmakers around the world, including Stanley Kubrick, Francis Ford Coppola, Martin Scorsese and Woody Allen, have been influenced by his style and cinematic personality.
WHERE to discover him?
8 ½, which represents the number of films Fellini had directed thus far, chronicles the travails of a film director undergoing a crisis of creativity. The film is a monument of self-reflexive, confessional cinema, wherein the highs and lows, the extraordinary and the mundane, the glories and the follies of Fellini’s own life become fodder for his film. It is personal cinema on an altogether different level and a stroke of supreme creativity born out of artistic seizure.

Courtesy- The Hindu

Wednesday, July 10, 2013

किताबें /गुलज़ार





किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,

जो क़दरें वो सुनाती थीं.
कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है

कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला

ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक'करने से अब
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

Sunday, July 7, 2013

Outtakes: Majid Majidi

WHO is he?
Iranian filmmaker, scenarist, producer and actor who has directed over 10 feature films since the Eighties. Majidi’s foray into cinema, as was the case with many other fellow Iranian directors, was facilitated by the revolution of 1979, but, unlike Persian filmmakers more recognised by the West, Majidi has not had any falling out with the religious establishment. His internationally successful Children of Heaven (1997) was the first Iranian film nominated for the Best Foreign Language Film Oscar.
WHAT are his films about?
Themes
Majidi’s films deal with familial ties, primarily that between father and son. Characters reconcile with their estranged fathers, find new father figures and take up the role of fathers. They look to the natural world to find peace, hope and consolation. Running is a prominent physical motif in these films and we see characters running on the city streets far and away from life. Majidi’s films typically have a genuinely poetic ending in which the old gives way to the new and transcendence is achieved. Children feature saliently in these films.
Style
Majidi’s seamless continuity-based aesthetic is reminiscent of the best of classical Hollywood. Especially, his acutely sensitive editing style that cuts from one character’s eye movement to another’s reminds one of John Ford and Budd Boetticher. Majidi frequently uses close-ups, specifically those of hands and legs, bird’s eye establishing shots, natural light, ambient soundtrack, an earthy colour palette and slow motion and tracking shots.
WHY is he of interest?
Majidi has been criticised for being a populist, conformist filmmaker who glosses over issues that plague his country. True, his films showcase a picture of Iran vastly different from the ones presented in the films of his more politicised contemporaries, but it would be more instructive to look at Majidi’s oeuvre as a portrait of working class dignity based on classical human values such as sacrifice, hard work and communal living.
WHERE to discover him?
Children of Heaven, the director’s most endearing and, certainly, most popular film, revolves around two siblings who must share a pair of shoes without the knowledge of their parents. Majidi’s remarkably constructed film is a snapshot of childhood in all its richness and frailty that abstains from refracting it through the condescending perspective of adulthood. 

Courtesy- The Hindu

Thursday, July 4, 2013

सबद फिल्‍म : "प्रेम के सुनसान में" से कुछ पंक्तियाँ



पुराने कमरे उन प्रेमिकाओं की तरह होते हैं जिनसे यों तो हमारा संबंध टूट गया है, पर जिनकी याद है, लगाव है, कभी-कभार का लौटना भी. आखिर उनके साथ इतना वक़्त जो गुजारा हुआ होता है हमने : निजी और आत्मीय.



हमें उन लड़कियों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जिन्हें देखकर, मिलकर, बातें करते हुए या रेस्तरां में साथ चाय/कॉफ़ी पीते हुए हमारे मन में एक हूक उठी थी : एक हिचकी जो अब शांत है, पर जिससे पहली दफ़ा अंदाज़ा हुआ था कि हम प्यासे हैं, हमें पानी की ज़रूरत है ...




हम प्रेम करते हुए अक्सर अकेले पड़ जाते हैं. दुःख इस बात का नहीं कि यह अकेलापन असह्य है. दुःख इस बात का है कि इसे सहने का हमारा ढंग इतना बोदा है कि हमसे वह आलोक तक छिन जाता है, जो प्रेम के इस सुनसान में हमारे साथ चलता.



कोशिश करके भूलना बेतरह याद की निशानी है. इसलिए हम कुछ भी भूलना अफोर्ड नहीं करते : न चीजें, न चेहरे, न हमारे साथ हुआ/अनहुआ. असल में विस्मृति स्वयं उन घटनाओं, चीज़ों, चेहरों और ब्योरों को हमसे अलग करती जाती है जिनका बेतुका संग-साथ हमसे बना रहता है.



दुपहर बारिश हुई. बारिश इतना और यह करती है कि सब एक छत के नीचे खड़े हो जाएँ.
वह मेरे बगल में आकर खड़ी रही. मुझे पहली बार ऐसा लगा कि उसे यहीं ऐसे ही बहुत पहले से होना चाहिए था और अभी इसे दर्ज करते हुए यह इच्छा मेरे भीतर बच रहती है कि हर बारिश में वह मेरे साथ हो.



''एक बिंदु हो, प्यार हो, आदमी जान लड़ा देगा.'' मैं उस बिंदु पर एकाग्र होने की बजाय छिटक जाता रहा हूँ. मुझे उसे देखना चाहिए. वहां रहना चाहिए.