आनंद
 गांधी की इस फिल्म को पिछले मुंबई फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। यह 
तभी से चर्चा में थी। अंदरखाने इस फिल्म को हिंदी सिनेमा की एक उपलब्धि के 
रूप में चित्रित किया जाने लगा था। दूसरी तरफ इस फिल्म के कुछ विदेशी 
पुरस्कार जीतने की भी बात की जाने लगी। हालांकि इस समीक्षा के लिखे जाने तक
 इस फिल्म को दुनिया का कोई भी अतिप्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ 
है। यूरोप या अमरीका के शहरों में न जाने कितने फिल्म समारोह होते हैं। 
लेकिन मैं जिन चार-पांच पुरस्करों को प्रतिष्ठित मानता हूं, वे हैं आस्कर, 
कान्स, बर्लिन, वेनिस और बाफ्टा पुरस्कार। इसके अलावा भी कुछेक अन्य 
पुरस्कार होंगे, जिन्हें इनके समकक्ष माना जा सकता है।
आनंद गांधी की फिल्म जब चर्चा में आनी शुरू हुई, तो 
मुझे सबसे पहले इस फिल्म का नाम ही नहीं समझ में आ रहा था। मैंने गूगल सर्च
 किया, तो पता चला कि यह एक ग्रीक पैराडॉक्स है। इस पैराडॉक्स के पीछे एक 
कहानी है। संक्षेप में कहानी यह है कि एक महान ग्रीक योद्धा थीसियस द्वारा 
प्रयोग किये गये लकड़ी के जहाज को धरोहर के रूप में संरक्षित कर लिया गया 
था। समय के साथ जब जहाज का कोई भाग खराब होता तो उसे बदल दिया जाता रहा। इस
 तरह लंबे समय अंतराल में एक वक्त ऐसा आया कि जहाज में कोई भी हिस्सा ऐसा 
नहीं बचा, जो मूल जहाज का रहा हो, यानी एक-एक कर पूरा जहाज बदल चुका था। 
विकिपीडिया के अनुसार ग्रीक दार्शनिक प्लुटार्क ने इस 
समस्या को उठाते हुए प्रश्न पूछा कि क्या इस जहाज को थिसियस का कहा जा सकता
 है? तभी से यह सवाल दार्शनिकों के लिए पैराडॉक्स बना हुआ है। पैराडॉक्स 
यानी ऐसी पहेली जिसके दो विपरीत लगने वाले जवाब सही प्रतीत होते हों। उनमें
 से किसी एक को निर्णायक रूप से सच न माना जा सके।
आनंद गांधी ने फिल्म की शुरुआत में यह सवाल दर्शकों को
 सामने रखा है कि क्या सारे अंग बदल जाने के बाद भी अब भी जहाज थीसियस का 
कहा जा सकता है? और क्या थीसियस के जहाज के जिन भागों को खराब होने के कारण
 निकाला गया है, उन्हें जोड़ने से जो बनेगा वो जहाज थीसियस का असल जहाज 
होगा?
निश्चय ही यह एक दार्शनिक प्रश्न है, जिसका जवाब खोजने
 में किसी का दिमाग चकरघिन्नी खा जाएगा। लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग करने पर
 यह एक सरल सवाल भी प्रतीत हो सकता है। यहां उद्देश्य इस दार्शनिक प्रश्न 
की मीमांसा का नहीं है। बात है फिल्म की।
इन दार्शनिक प्रश्नों से शुरू होने के कारण ज्यादातर 
फिल्मी समीक्षकों ने इसे एक दार्शनिक खोज करने वाली फिल्म माना है। 
ज्यादातर ने तो इसे भारत के लिए अभूतपूर्व फिल्म माना है। मुझे यह भी याद 
नहीं कि वो कौन सी आखिरी फिल्म थी जो पूरे देश में उंगली पर गिने जा सकने 
लायक सिनेमाहाल में रिलीज हुई हो लेकिन प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया पर लिखने 
वाले हर समीक्षक ने जिसकी समीक्षा लिखी हो। मेरी हिसाब से इस परिघटना को 
जरूर अभूतपूर्व माना जा सकता है।
इन सभी समीक्षकों द्वारा दिये गये भारी-भरकम स्टार के 
कारण ही फिल्म को कुछेक दर्शक मिल सके। हालांकि आनंद गांधी ने पूरी कोशिश 
की है कि ऐसा कुछ न हो और उनकी फिल्म एक ‘पैराडॉक्स’ बनी रहे।
फिल्म देखकर यह साफ हो जाता है कि आनंद गांधी ने यह 
फिल्म स्वानंद के लिए बनायी है। फिल्म समीक्षा की भाषा में ऐसी फिल्मों को 
आर्ट हाउस फिल्म कहा जाता है। आनंद गांधी ने फिल्म का यह नाम क्यों रखा इसे
 लेकर मैं काफी ऊहापोह में रहा था। फिल्म देखने से पहले तक मेरी सोच यही थी
 कि यह नाम भारतीय दर्शकों की समझ के ऊपर एक अत्याचार है। फिल्म देखने का 
बाद मुझे महसूस हुआ कि बेचारे आनंद गांधी और करते भी क्या! उनकी इस फिल्म 
का सारा दार्शनिकपन ही फिल्म के शीर्षक पर टिका हुआ है। शायद वो जानते थे 
कि इस ग्रीक पैराडॉक्स पर जोर देकर ही वो फिल्म देखने वालों की आंखों पर 
फिलॉसफी का फिल्टर चढ़ा सकेंगे। फिल्म की समीक्षाएं पढ़ने से पता चलता है 
कि आनंद की सोच काफी हद तक सही भी थी। वो लोगों को यह संदेश देने में 
कामयाब रहे कि इस फिल्म के माध्यम से कोई दार्शनिक प्रश्न उठाया जा रहा है 
या फिर किसी दार्शनिक पहेली का हल ढूंढ़ने का प्रयास किया जा रहा है। मेरे 
ख्याल से आनंद ऐसा न करते तो फिल्म के हक में ज्यादा अच्छा होता।
यह फिल्म मूलतः तीन शॉर्ट फिल्मों के माध्यम से अपनी 
बात कहने का प्रयास करती है। इन तीन शार्टस में दो तो मोटे तौर पर अंग्रेजी
 में हैं और तीसरी हिंदी में। जिस फिल्म का टाइटल शिप ऑफ थीसियस हो और वो 
दो तिहाई अंग्रेजी में हो तो यह साफ हो जाता है कि फिल्म चुनिंदा लोगों को 
लिए ही बनायी गयी है। चुनिंदा लोगों को लिए कही गयी इस कहानियों में पहली 
कहानी एक दृष्टिविहीन लड़की की कहानी है। लड़की विदेशी है। मुंबई में रहती 
है। वह जन्म से दृष्टिविहीन नहीं है। संक्रमण के कारण उसकी दृष्टि चली गयी 
है। वो फोटोग्राफर बन जाती है। चीजों को उनकी ध्वनियों के आधार पर अपने 
कैमरे में कैद करती है। अपनी तस्वीरों को उनके उभारों से महसूस करती है। 
उसके लिए हर रंग, हर आकृति एक परिकल्पना है।

काम के प्रति उसका रवैया परफेक्शनिस्ट है। उसका काम 
लोगों को पसंद आता हैं। उसके दैनिक जीवन बड़ा मोड़ तब आता है जब उसे 
अस्पताल से फोन आता है कि उसकी आंख का ऑपरेशन करने की तारीख आ गयी है। 
लड़की की आंख का ऑपरेशन सफल रहता है। कुछ दिनों के आराम के बाद वह फिर से 
तस्वीरें खींचना शुरू करती है। आंखें मिल जाने के कारण अब वह चीजों को देख 
सकती है लेकिन उसे इससे तस्वीर खींचने में सुविधा नहीं होती बल्कि असुविधा 
होने लगती है। उसे लगता है कि वह अपने मनमर्जी की तस्वीर नहीं खींच पा रही 
है। वह शहर से दूर पहाड़ी क्षेत्र में जाती है कि शायद वहां उसे वो मिले 
जिसकी उसे तलाश है लेकिन फिल्म के अनुसार वहां भी वह तस्वीर खींचने में खुद
 को असमर्थ पाती है। इस फिल्म की पहली कहानी यहीं खत्म हो जाती है। पहली 
कहानी के बाद दर्शक यही सोचता रह जाता है कि आखिर हुआ क्या?
शिप ऑफ थीसियस की दूसरी कहानी एक बौद्ध भिक्षु की 
कहानी है। फिल्म की तीन कहानियों में यही कहानी सबसे उम्दा और मुकम्मल बन 
पड़ी है। एक बौद्ध भिक्षु दवाओं के परीक्षण के दौरान जानवरों पर किये जाने 
वाले अत्याचार को रोकने के लिए अदालत में मुकदमा लड़ रहा होता है। एक दिन 
भिक्षु को पता चलता है कि उसे लिवर सिरोसिस हो गया है। भिक्षु को अब वही 
दवाएं लेनी होंगी जिनसा वो विरोध करता रहा था। भिक्षु तय करता है कि वो उन 
दवाओं का प्रयोग नहीं करेगा जिन्हें जानवरों पर अत्याचार करके बनाया गया 
है। वह दवा लिए बिना प्राण त्याग देने का निर्णय लेकर अपने कुछ साथियों के 
साथ शहर से बाहर किसी जगह रहने चला जाता है। एक नौजवान लड़का भिक्षु का 
मुंह लगा है। वह भिक्षु से लगातार उसके निर्णयों को लेकर बहस करता रहता है।
 भिक्षु और युवक के बीच होने वाला संवाद पूरी तरह से दार्शनिक स्वरूप का 
है। बहरहाल इन संवादों से तो नहीं लेकिन अपने शरीर के कष्ट से टूटकर भिक्षु
 अंत में दवा लेने को मान जाता है। और जैसा कि फिल्म के अंत में दिखाया गया
 है, भिक्षु को लीवर प्रतिरोपण करके बचा लिया गया।
तीसरी कहानी एक ऐसे स्टॉकब्रोकर नौजवान की है जिसकी 
किडनी का प्रतिरोपण किया गया है। अभी वह अस्पताल से निकलता ही है कि उसकी 
नानी के पैर में फ्रैक्चर हो जाता है और वो उसी अस्पताल में भर्ती होती हैं
 जहां युवक का ऑपरेशन हुआ था। उसकी नानी एक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता 
है। वह उसे प्रेरित करती है कि वह कुछ ऐसा करे जिससे समाज के अन्य लोगों को
 भी लाभ मिल सके। दोनों के बीच जीवन जीने के सार्थक तरीके को लेकर तीखी बहस
 होती है। शायद यह नानी से हुई बहस का ही प्रभाव है जब युवक को पता चलता है
 कि अस्पताल में एक ऐसा आदमी आया है जिसकी कुछ डॉक्टरों ने किडनी चुरा ली 
है तो युवक के मन में उसके लिए गहरी सहानुभूति जन्म लेती है।
युवक को पहले शक होता है कि उसे जो किडनी लगाई गयी है 
वह उसी पीड़ित व्यक्ति की है। पड़ताल करने पर उसका शक बेबुनियाद निकलता है।
 वह ठान लेता है कि वह पता लगाके रहेगा कि उस पीड़ित व्यक्ति की किडनी 
किसने चुराई और चुराकर किसको बेची। वह यह पता लगाने में कामयाब भी रहता है।
 जिस व्यक्ति को वह चोरी की किडनी लगी थी वह स्टाकहोम-स्वीडेन में रहता है।
 नायक स्टाकहोम जाकर जब उस व्यक्ति पर किडनी चोरी का इल्जाम लगाता है और 
उसे बताता है कि जिस डॉक्टर ने उसकी किडनी का प्रतिरोपण किया था अब वो भारत
 में किडनी चोरी का रैकेट चलाने के कारण जेल में है। वह व्यक्ति डर जाता है
 और तुरंत पीड़ित को साढ़े छह लाख रुपए पहुंचवा देता है और उसे हर महीने 
पैसे भेजने का वादा करता है। पीड़ित व्यक्ति इस औचक लाभ से खुश हो जाता है।
नायक चाहता है कि वह किडनी चुराने वालों को सजा दिलाए 
लेकिन पीड़ित तैयार नहीं होता। नायक कहता है कि पैसे कि वह चिंता न करें 
उसे पैसे अदालत से मिल जाएंगे या वो खुद पैसे दे देगा। लेकिन पीड़ित अदालत 
के नाम से भी डरता है। वह हाथ में आये पैसे से ही खुश है। पीड़ित के इस 
व्यवहार से निराश नायक भारत लौट आता है। लौटकर नानी से मिलता है। नानी उसे 
सांत्वाना देते हुए कहती है कि एक आदमी जितना कर सकता है उसने उतना किया। 
यहीं पर तीसरी कहानी खत्म होती है।
दर्शकों के हिसाब से यह तीसरी कहानी सबसे ज्यादा रोचक 
रही। इसमें हास्य, रहस्य और करुणा का अच्छा समिश्रण होने का कारण दर्शक 
राहत पाते दिखे। लेकिन अभी तक दर्शक यह समझ नहीं पा रहे थे कि तीनों 
कहानियों के बीच संबंध क्या है! तीनों कहानियों का संबंध निर्देशक कहानी के
 अंत में बताते हैं। कहानी के अंत में एक एनजीओ ऐसे आठ लोगों को एक वीडियो 
देखने के लिए बुलाता है जिसे उस व्यक्ति ने बनाया है जिसका कोई न कोई अंग 
इन आठों व्यक्तियों में प्रतिरोपित किया गया है। इन आठ लोगों में ही इस 
फिल्म में दिखाए गये फोटग्राफर, बौद्ध भिक्षु और शेयर ब्रोकर शामिल हैं। इन
 लोगों को जो वीडियो दिखाया जाता है वह एक निर्जन गुफा का अंतरंग है। 
वीडियोग्राफी के दौरान गुफा की दीवारों पर उस व्यक्ति की छाया दिखती है जो 
वीडियो बना रहा है। और जिसके कई अंग इस वक्त वीडियो देख रहे लोगों में 
मौजूद है। इस वीडियो से शायद आनंद गांधी ने कहना चाहा है कि इन आठ लोगों को
 अंगदान करने वाला व्यक्ति भी छाया के रूप में इन सभी लोगों को अंदर मौजूद 
है।
फिल्म खत्म होने के बाद भी विचारवान दर्शकों की 
मुश्किल खत्म नहीं होती। फिल्म की शुरुआत में आनंद गांधी ने शिप ऑफ थीसियस 
पैराडॉक्स के रूप में जो प्रश्न दर्शकों को सामने रखा था उसका इस फिल्म से 
क्या संबंध है यह समझना कठिन हो रहा था। क्योंकि फिल्म में न ही किसी एक 
व्यक्ति को किसी के सारे अंग लगा दिये गये हैं, न ही किसी एक व्यक्ति के 
सारे के सारे अंगों को किसी न किसी को लगा दिया गया हो। यानी थीसियस के 
जहाज वाली स्थिति तो कहीं बनती ही नहीं। कुल मिलाकर इस कहानी को थीसियस के 
जहाजी पैराडॉक्स से न जोड़ा जाता तो भी वह इतनी ही प्रभावशाली होती या शायद
 ज्यादा ही। फिल्म को अतिरिक्त उम्मीदों का बोझ न सहना पड़ता।
फिल्म में अभिनय, अभिनेताओं का चयन, संगीत, कैमरा 
निर्देशन सभी स्तरीय है। संवादों का अतिरेक कहीं-कहीं फिल्म के टेक्सचर के 
हिसाब से खलता है। यदि आप एक गहन दार्शनिक हिंदी फिल्म देखने के लिए शिप ऑफ
 थीसियस का चयन करेंगे तो आप हाल से दिग्भ्रमित और निराश ही बाहर आएंगे। 
क्योंकि फिल्म की इतनी ज्यादा तारीफ हो चुकी है कि आपको लगेगा कि आप फिल्म 
समझ नहीं पाये, नतीजन जबरदस्ती इस-उस दर्शन को इसमें फिट करने की कोशिश 
करेंगे।
यह एक ऐसी फिल्म है, जिसमें एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट 
एंटरटेनमेंट का फार्मूला गायब है। मेरी राय में यदि आप इसे एक साधारण फिल्म
 की तरह देखने जाएं तो हिंदी में अब तक अनछुए विषय पर बनी इस “हिंदी कम 
अंग्रेजी ज्यादा” फिल्म को देखकर आप निराश नहीं होंगे।
-रंगनाथ सिंहसमीक्षक को यहाँ लिखिए https://www.facebook.com/rangnath.singh?fref=ts
मोहल्ला लाइव से साभार
 
 
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