Tuesday, September 17, 2013

शुभम श्री की कविताएँ ...



मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है
ये कोई नई बात नहीं
लंबी परंपरा है
मासिक चक्र से घृणा करने की
'अपवित्रता' की इस लक्ष्मण रेखा में
कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते हैं संस्कारों को...

झेंपती हुई टेढ़ी मुस्कराहटों के साथ खरीदा बेचा जाता है इन्हें
और इस्तेमाल के बाद
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती हैं
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा


रास्ते में पड़े हों तो
मुस्करा उठते हैं लड़के
झेंप जाती हैं लड़कियाँ


हमारी इन बहिष्कृत दोस्तों को
घर का कूड़ेदान भी नसीब नहीं
अभिशप्त हैं वे सबकी नजरों से दूर
निर्वासित होने को

अगर कभी आ जाती हैं सामने
तो ऐसे घूरा जाता है
जिसकी तीव्रता नापने का यंत्र अब तक नहीं बना...

इनका कसूर शायद ये है
कि सोख लेती हैं चुपचाप
एक नष्ट हो चुके गर्भ बीज को

या फिर ये कि
मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत

करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए

'जहाँ तहाँ' अनावृत ...
पता नहीं क्यों

मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार

गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक...

कितनी मुलायम हो जाती है
माथे की शिकन
एक बेटी का पिता बनने के बाद

खुद-ब-खुद -ब-खुद छूट जाता है
मुट्ठियों का भिंचना, नसों का तनना
कॉफी हाउस में घंटों बैठना

धीरे-धीरे संयत होता स्वर
धीमे...धीमे...पकती गंभीरता
और, देखते...देखते... मृदु हो उठता चेहरा

एक बेटी का जन्म लेना
उसके भीतर उसका भी जन्म लेना है
सफेद बालों की गिनती
ओवरटाइम के घंटे
सबका
निरंतर बढ़ना है

बेटी का बाप होना
हर लड़के के नाम के साथ 'जी' लगाना है
या शायद...चरागाह में उगा पौधा होना

लेकिन
(बहुत मजबूर हो कर लिया गया कर्ज
और उसके सूद तले दबा कर्जदार हो कर भी
बेटी का पिता होना
एक साहसी सर्जक होना है
(या सर्जक मात्र केवल!)
क्लासरूम कविता
पता नहीं क्यों
हिंदी पढ़नेवाली लड़कियाँ एनसीसी में जाती हैं

जबकि
अंग्रेजी की लड़कियाँ 'ज्वायन' करती हैं एनएसएस

बस इतना ही तो अं त र है

जितना आपके, वो क्या कहते हैं...
सीलमपुर और सफदरजंग में

देरिदा की मुस्कान

उसने हमारे दिमागों को
नींबू की तरह निचोड़ दिया है

अवधारणा के जंगल में
भाषा की भूल भुलैया है

भटकाया है हमें इसी फ्रांसीसी ने
(हालाँकि कम्युनिस्ट मन खुश होता है,
'देरिदा अमेरिका की उपज नहीं है'! )


संरचना और विखंडन की धूप छाया में
छींकने लगते हैं विचार
लेकिन सैकड़ों बार 'देरिदा इज मैड' का पाठ करने के बाद भी
प्यार आ जाता है आखिर में

पर अब और नहीं
देरिदा की मुस्कान पर उसे दो धुमक्के लगाने का मन होता है

अब हम सिर्फ 'देरिदा फॉर बिगिनर्स' पढ़ेंगे
और खूब हँसेंगे

जटिल अवधारणाओं के प्रति यह बड़ा मूर्ख प्रतिरोध है
फिर भी..


जन्मशतियाँ मनाने का मौसम है आजकल
गोष्ठियाँ आयोजित करने का सरकारी समय
चिंता मत करो, जरूर मिलेगा अनुदान
किसी अकादमी में जगह कोई
दर्जन भर सेमिनारों में जा कर
जरूर खत्म होगा दुःख
हर महीने की तकलीफदेह जीपीएफ-इनकम टैक्स का

दोस्ती-दुश्मनी का पुराना हिसाब किताब
सौवें साल में ही कर लो बराबर
(क्योंकि तुम्हारे शतायु साहित्यकार की भाषा विलुप्ति के कगार पर है!)

सच में बहुत मेहनत की तुमने यार!
अफसोस
सैकड़ों पत्रिकाओं के हजारों पन्नों में संस्मरण रँगने के बावजूद
नहीं कर पा रहे हो अमर

मरे हुए शब्द

तुम भूल जाते हो कि तुम्हारी बात समझनेवाले
बच्चों का साइंस जर्नल खरीदना ज्यादा जरूरी समझते है !

मत लिखो अमर कविताएँ...शाश्वत साहित्य
सरस सलिल में छापो कुछ आवारा शब्द

भरोसा रखो

ये जन्मशतियाँ
तुम्हारे वातानुकूलित सेमिनार रूमों से निकलने को छटपटा रही हैं
बरिस्ता में नहीं लहराएगा साहित्य का परचम

ऑक्सीजन मिलेगा उसे
अभी-अभी प्रखंड से सब-डिविजन बन कर खुश शहर के गलीज नुक्कड़ों पर

कहोगे कि तुम अनुभवी हो और हम हैं नादान
लेकिन नहीं जानते तुम

तुम्हारे अनुभवों का असर ये है
कि सरेआम कविताएँ पढ़ते हुए

हम झेलने को मजबूर हैं
किसी चिकलिट की व्यंग्य भरी मुस्कान

सभागारों से बाहर निकलो और देखो हमारी हालत
हजारों सपने लिए समानधर्मा बनने आई नई पीढ़ी की

सौ साल बाद

अपने अपने कॉलेजों में चंद अटेंडेंस की खातिर
दिन भर तुम्हारा विमर्श सुनते अपना मैसेज पैक खत्म करते हम

परीक्षा में कोट करने को लिख चुके हैं तुम्हारे दो चार जुमले
अपने सतही आशावाद के साथ

तुम्हारा खुश होना
हमें 'फनी' लग रहा है

फिर भी सुन रहे हैं तुम्हारा 'आह्वान' !

कहोगे कि हम बिलकुल भरोसे के लायक नहीं
सच...बिलकुल सच

हर सेमिनार में बदलती तुम्हरी प्रतिबद्धता ने
हमें भी बना दिया है
धोखेबाज

मत बोलो इतने झूठ लगातार

तुम्हारा खुश होना
हमें 'फनी' लग रहा है

फिर भी सुन रहे हैं तुम्हारा 'आह्वान'
कहोगे कि हम बिलकुल भरोसे के लायक नहीं

सच...बिलकुल सच
हर सेमिनार में बदलती तुम्हरी प्रतिबद्धता ने

हमें भी बना दिया है
धोखेबाज

मत बोलो इतने झूठ लगातार
अब भी तो कुछ सोचो

पेंगुइन से एक अंग्रेजी अनुवाद की तुम्हारी ख्वाहिश के चलते
अपनी पहचान बदलने पर तुले हैं साहित्य के छात्र

क्यों नहीं जाते
उन राजकीय उच्च विद्यालयों में

बड़ी मुश्किल से इस्तरी किए कपड़ों में
इंतजार कर रही हैं जहाँ

उम्मीद की कई किरणें
जाओ ना...

पुनश्च : पहले तुम निबट लो जन्मशती से, अपना कवि चुन कर

हम अपने कवि चुन लेंगे...
कविताएं चंद नंबरों की मोहताज हैं, भावनाओं की नहीं

भावुक होना शर्म की बात है आजकल और कविताओं को दिल से पढ़ना बेवकूफी
शायद हमारा बचपना है या नादानी

कि साहित्य हमें जिंदगी लगता है और लिखे हुए शब्द साँस
कितना बड़ा मजाक है

कि परीक्षाओं की तमाम औपचारिकताओं के बावजूद
हमे साहित्य साहित्य ही लगता है, प्रश्न पत्र नहीं

खूबसूरती का हमारे आस पास बुना ये यूटोपिया टूटता भी तो नहीं !
हमे क्यों समझ नहीं आता कि कोई खूबसूरती नहीं है उन कविताओं में
जो हमने पढ़ी थीं बेहद संजीदा हो कर
कई दिनों तक पागलपन छाया रहा था
अनगिनत बहसें हुई थीं

सब झूठ था

हमारा प्यार...हमारा गुस्सा...हमारे वो दोस्त, उनके शब्द...
क्योंकि तीन घंटे तक बैठ कर नीरस शब्दों में देना पड़ेगा मुझे बयान

अजनबियों की तरह हुलिया बताना पड़ेगा उन तीस पन्नों में
मेरे इतने पास के लोगों का

नहीं कह सकती

कि नागार्जुन ने जब लिखा शेफालिका के फूलों का झरना
तो झरा था आँख से एक बूँद आँसू

नहीं बता सकती कि धूमिल से कितना प्यार है
कितना गुस्सा है मुझे भी रघुवीर सहाय की तरह


नागार्जुन-धूमिल-सर्वेश्वर-रघुवीर
सिर्फ आठ नंबर के सवाल हैं !

कैसी मजबूरी है कि उनकी बेहिसाब आत्मीयता का अंतिम लक्ष्य
छह नंबर पाने की कोशिश है !

न चाहते हुए भी करना पड़ेगा ऐसा
क्योंकि शब्दों से प्यार करना मुझे सुकून देगा और चंद पन्नों के ये बयान "कैरियर"


हम भाषाओं का उद्भव पढ़ना शुरू करते हैं

और
सोचते हैं

जान जाएँगे एक दिन
अपनी भाषाओँ के अतीत का रहस्य

'पाठ' और 'संरचना' से लदे
'हेप' लेक्चर सुनते हैं

कि इतिहास क्या है
वह नहीं है जो हम सोचते हैं

वह है जो टीचर ने बताया है
चौदहवीं सदी की कविता पढ़ते पढ़ते

देखते हैं क्लास के लडकों का चेहरा
जो कैरियर की चिंता के बावजूद खिल जाता है

विद्यापति की व्याख्या पर

इतना सब करते हुए उम्मीद रखते हैं कि
बहुत बहुत रचनात्मक हो जाएँगे हम एक दिन

परीक्षाओं और टर्म पेपरों से घिरे हम
कितने भोलेपन से गढ़ लेते हैं

एक खूबसूरत झूठ
जबकि हमें मालूम है

हर छोटा दिमाग यूजीसी और सिविल्स की चिंता में कैद है
और बड़ा दिमाग कई कई चिंताओं में !

देश के एक उन्मुक्त विश्वविद्यालय में
हम साहित्य पढनेवाले पालतू जानवर हैं

हमारे और आसमान के दरम्यान है
सेमेस्टर का मजबूत पिंजरा...

ब्लैकबोर्ड पर सवाल टँगा है...
एक : कुसुम
ब्लैकबोर्ड पर सवाल टँगा है
जवाब देना है कुसुम को

डिफरेंशियल इक्वेशन !!
अब कैसे समझाए कुसुम पापा को

कि कैलकुलस की ट्यूशन जरूरी है
एनसीईआरटी का सहस्रपाठ नहीं

चुपचाप खड़ी है सिर झुकाए
क्लास के सत्तर लड़कों की टेढ़ी मुस्कान के सामने

देख रहा है उसे देश का भविष्य
गणित का अर्जुन

अपूर्व दया से
खीझ उठे हैं टीचर

'रोटी बनाओ जा कर
कैलकुलस तुमसे बनने का नहीं

दिमाग में रत्ती भर धार नहीं
मैथ्स पढ़ने का शौक चर्राया है

रटो जा कर बौटेनी-जूलॉजी...'
बैठ गई है चुपचाप कुसुम

गहन आलोचनात्मक विमर्श चल रहा है
5 : 75 के लिंगानुपातवाली कक्षा में

गणित पढ़ने का जन्मसिद्ध अधिकार ले कर उत्पन्न
पचहच्चर कुलदीपक (भावी इंजीनियर)

व्यस्त हैं शिक्षक के साथ
हँसी-ठहाकों भरी बहस में

आखिर यह गणित के भविष्य का सवाल है !!
इक्कीसवीं सदी की कई बड़ी घटनाएँ

हमें नहीं मालूम
जैसे हम नहीं जानते कि

पाँच फुट की साँवली बदसूरत कुसुम ने
(जो प्रेम पत्र पाने की योग्यता नहीं रखती)

पाए हैं गणित में 100
हतप्रभ खड़ा है अपूर्व
देखता हुआ 99
दो : तान्या

भौतिकी लिपस्टिक नहीं है
न ही सर्कुलर मोशन झुमके हैं

थर्मोडायनामिक्स भी कोई ब्रेसलेट नहीं है
जिसे तान्या इस्तेमाल करती चले

दूधिया गुलाबी चेहरा पाने के बाद
उसे अधिकार नहीं है ऐसा करने का

तान्या का काम है प्यारी बेवकूफ बातें करना
पढ़ता है निशांत

बनाता है नोट्स तान्या के लिए
जानते हुए भी कि उसे वो समझ नहीं आएगा

खुश है तान्या
खुश है निशांत

ब्लैकबोर्ड पर सवाल टँगा है
फिजिक्स का सबसे मुश्किल सवाल

कई हाथ उठे हैं एक साथ
पर टीचर ने पकड़ा है

बातों में व्यस्त तान्या-निशांत को
'तुम !!'

निशांत - सर, मैं ?
नहीं तान्या !

चिंतित है निशांत
मुस्करा रही है तान्या

ब्लैकबोर्ड के पास हो कर भी
उसे महसूस हो रही है पैरों पर

कई जोड़ी आँखों की आग
शर्ट पर उभरे ब्रा के स्ट्रेप पर लगी

कई नजरें
नहीं देखते हुए भी देख पा रही हैं

व्यग्र हैं सब, अधीर हैं..
चॉक लिए बैठे हैं निशांत, अतुल, रजत सब..

पर ये क्या ?
न्यूमेरिकल बनाया तान्या ने !

जवाब सही है !!
(यानी फ़िजिक्स के सर भी...)

इक्कीसवीं सदी की एक और बड़ी घटना घटी
जिस दिन तान्या ने वह सवाल बनाया

उसी दिन उसने घर जाने के लिए रिक्शा लिया
फिलहाल निशांत की बाइक की शान है

'फेमिना टू एफटीवी' निकिता!!

बामुलाहिजा होशियार
बेगम नुज़हत तशरीफ ला रही हैं -

अभूतपूर्व उत्साह के साथ चिल्ला रहा है
क्लास का प्लेबॉय रोहित

जी हाँ !

यह बायोलॉजी सेक्शन है
जहाँ 85 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी

दलित होने का दंश झेल रही है
किसी अदृश्य नियम से शासित कर रहा है उसे

कक्षा का अल्पसंख्यक सवर्ण वर्ग
नुज़हत टॉपर है

नुज़हत सबकुछ जानती है
नुज़हत मेहनती है

तो क्या हुआ ?
रोहित पल्सर पर घूमता है

रोहित गॉगल्स लगता है
रोहित रोहित है !

ब्लैकबोर्ड पर सवाल टँगा है

फीमेल रिप्रोडक्टिव सिस्टम का डायग्राम
बायोलॉजी पढ़ने का सुख लूट रहे हैं अल्पसंख्यक

मैथ्सवालों की ईर्ष्या, कॉमर्सवालों की चिढ़..
'इनके तो मुँह में चाँदी का चम्मच है !'

पूछ रही है टीचर
सब हैं चुप

सोना..अनु..प्रेरणा..मेघा
टीचर का चेहरा बुझ रहा है

वह देख रही है कुछ मुस्कराहटें
समझ रही है उनका मतलब

अंतिम उम्मीद की तरह देखा उसने नुज़हत को
नुज़हत ने हामी भरी

गर्व से खड़ी है मैम
नुज़हत उकेर रही है

फेलोपियन ट्यूब, ओवरी, यूटेरस
नुज़हत बता रही है

हायमन है ये
ये है सर्विक्स

चेहरे गंभीर हैं
रोहित अमित सबके

नजरों से कह रही हैं
सोना प्रेरणा बहुत कुछ उन्हें

पता नहीं क्यों विचित्र हो गया है आज
क्लास का माहौल

नुज़हत ने तुलना करने को बना दिया है
दूसरा रेखाचित्र भी

मेल रिप्रोडक्टिव सिस्टम
बताती जा रही है विस्तार से

ऐसे सुन रही है टीचर
मानो बीथोवन की कोई धुन हो

अचानक उठ गए हैं सोना प्रेरणाओं के कंधे
झेंप रहे हैं रोहित अमित सब

नुज़हत जब चुप हुई
जाने क्यों

बहुसंख्यकों ने बजाई ताली
जाने किस खुशी में ??

सिर्फ तुम्हारे लिए... सिमोन
(1)
तुमने मुझे क्या बना दिया, सिमोन ?
सधे कदमों से चल रही थी मैं

उस रास्ते पर
जहाँ

जल-फूल चढ़ाने लायक
'पवित्रता'
मेरे इंतजार में थी

ठीक नहीं किया तुमने...
ऐन बीच रस्ते धक्का दे कर
गलीज भाषा में इस्तमाल होने के लिए

बोलो ना सिमोन, क्यों किया तुमने ऐसा ?

(2)

'तुम
मेरे भीतर शब्द बन कर
बह रहे हो

तिर रहा है प्यास-सा एहसास
बज रही है
एक कोई ख़ूबसूरत धुन'

काश ऐसी कविता लिख पाती
तुमसे मिलने के बाद

मैंने तो लिखा है
सिर्फ
सिमोन का नाम

पूरे पन्ने पर
आड़े तिरछे

(3)

मुझे पता है
तुम देरिदा से बात शुरू करोगे

अचानक वर्जीनिया कौंधेगी दिमाग में
बर्ट्रेंड रसेल को कोट करते करते

वात्स्यायन की व्याख्याएँ करोगे
महिला आरक्षण की बहस से

मेरी आजादी तक
दर्जन भर सिगरेटें होंगी राख

तुम्हारी जाति से घृणा करते हुए भी
तुमसे मैं प्यार करूँगी

मुझे पता है
बराबरी के अधिकार का मतलब
नौकरी, आरक्षण या सत्ता नहीं है
बिस्तर पर होना है
मेरा जीवंत शरीर

जानती हूँ...

कुछ अंतरंग पल चाहिए
'सचमुच आधुनिक' होने की मुहर लगवाने के लिए

एक 'एलीट' और 'इंटेलेक्चुअल' सेक्स के बाद
जब मैं सोचूँगी

मैं आजाद हूँ
सचमुच आधुनिक भी...
तब

मुझे पता है
तुम एक ही शब्द सोचोगे
'चरित्रहीन'

(4)

जानती हो सिमोन,

मैं अकसर सोचती हूँ
सोचती क्या, चाहती हूँ

पहुँचाऊँ
कुछ प्रतियाँ 'द सेकंड सेक्स' की

उन तक नहीं
जो अपना ब्लॉग अपडेट कर रही हैं

मीटिंग की जल्दी में हैं
बहस में मशगूल हैं

'सोचनेवाली औरतों' तक नहीं

उन तक

जो एक अदद दूल्हा खरीदे जाने के इंतजार में

बैठी हैं

कई साल हो आए जिन्हें
अपनी उम्र उन्नीस बताते हुए

चाहती हूँ

किसी दिन कढ़ाई करते
क्रोशिया चलते, सीरियल देखते

चुपके से थमा दूँ एक प्रति
छठे वेतन आयोग के बाद

महँगे हो गए हैं लड़के
पूरा नहीं पड़ेगा लोन

प्रार्थना कर रही हैं वे
सोलह सोमवार

पाँच मंगलवार सात शनिवार
निर्जल...निराहार...


चाहती हूँ

वे पढ़ें

बृहस्पति व्रत कथा के बदले
तुम्हें, तुम्हारे शब्दों को
जानती हो
डर लगता है
पता नहीं

जब तक वे खाना बनाने
सिलाई करने, साड़ियों पर फूल बनाने के बीच

वक्त निकालें
तब तक

संयोग से कहीं सौदा पट जाए
और
तीस साल की उम्र में

इक्कीस वर्षीय आयुष्मती कुमारी क
परिणय सूत्र में बँधने के बाद

'द सेकंड सेक्स' के पन्नों में
लपेट कर रखने लगें अपनी चूड़ियाँ

तब क्या होगा, सिमोन ?

No comments:

Post a Comment