Saturday, November 2, 2013

राजेंद्र यादव (28 अगस्त,1929 – 28 अक्टूबर, 2013)

राजेन्द्र यादव के जाने से न सिर्फ हिंदी की कथा-विधा को आघात पहुंचा है, बल्कि साहसिक साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा भी धुंधलके में खो गई लगती है।



उनके जैसे जिंदादिल, यारबाश, संजीदा और प्रखर रचनाकार-संपादक कम देखने को मिलते हैं। स्त्री विमर्श, दलित आंदोलन, सांप्रदायिकता जैसे विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक मुद्दों पर अपनी टिप्पणियों और वक्तव्यों में वे जितने जुझारू थे, निजी जिंदगी में उतने ही विनोदी और खुले स्वभाव के। यही वजह है कि राजेंद्र यादव ने जब अपने उत्तर-काल में हंस पत्रिका का संपादन शुरू किया तो उन्हें बहुत बार विवादों का सामना करना पड़ा। मगर इसे भी वे सहज भाव से लेते थे। वे ऐसे संपादक थे जिन्होंने अपने विरोध में आई टिप्पणियों को सबसे अधिक जगह दी। हालांकि बाद के दिनों में उनकी पहचान हंस पत्रिका से अधिक जुड़ गई थी, पर आधुनिक हिंदी साहित्य में उनका अवदान इतना भर नहीं था। नई कहानी आंदोलन शुरू करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव नई कहानी आंदोलन के अगुआ माने जाते हैं। जैनेंद्र और अज्ञेय ने स्त्री-पुरुष संबंधों पर कहानी की जो धारा विकसित की थी, मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की त्रयी ने उसे नए कलेवर, नए कोणों और नए शिल्प के साथ आगे बढ़ाया। स्त्री-स्वातंत्र्य राजेंद्र यादव की कहानियों और उपन्यासों का मुख्य स्वर था। इसके साथ-साथ उन्होंने भारतीय समाज और भारतीय संस्कृति की रूढ़िवादिता और विसंगतियों पर निर्भीकतापूर्वक चोट की। ‘सारा आकाश’ उपन्यास, जिस पर बासु चटर्जी ने इसी नाम से फिल्म बनाई, इसका पुख्ता प्रमाण है। उनका कथा साहित्य विपुल है। ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘अनदेखे अनजान पुल’, ‘मंत्रविद्ध’, ‘कुलटा’ आदि उपन्यासों और ‘खेल-खिलौने’, ‘छोटे-छोटे ताजमहल’, ‘जहां लक्ष्मी कैद है’, ‘किनारे से किनारे तक’ आदि कहानी संग्रहों के जरिए उन्होंने न सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों को नई नजर से देखा, बल्कि समाज के हाशिये पर पड़े लोगों के जीवन से जुड़ी समस्याओं को भी संजीदगी से रेखांकित किया। चेखव, तुर्गनेव, अल्बेयर कामू आदि रचनाकारों की कृतियों का अनुवाद कर उन्होंने हिंदी कथा साहित्य को नई दिशा देने का प्रयास किया।
राजेंद्र यादव ने न सिर्फ खुद लिख कर कहानी विधा को समृद्ध किया, बल्कि वे नए रचनाकारों को भी इस दिशा में प्रोत्साहित करते थे। खासकर हंस का संपादन संभालने के बाद उन्होंने अनेक नवोदित कथाकारों में संभावनाओं की तलाश की, उन्हें तराशा, प्रोत्साहित किया और पहचान बनाने का मौका मुहैया कराया। उनके लिए नई कहानी आंदोलन को आगे बढ़ाने का यह भी एक रास्ता था। हंस के माध्यम से उन्होंने हिंदी में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का सिलसिला शुरू किया। अस्सी का दशक बीतते न बीतते उन्होंने पहली बार हिंदी साहित्य में दलित विमर्श की आहट सुनी थी। अब उनके उठाए दोनों विमर्श आंदोलन का रूप ले चुके हैं। साहित्य, समाज, राजनीति, अर्थनीति आदि विषयों पर वे बड़े दृढ़ और लोकतांत्रिक तरीके से सबकी सुनते और अपनी बात कहते थे। हंस में संपादकीय टिप्पणियां जहां विचारोत्तेजक होती थीं, वहीं उनकी प्रतिबद्धता और साहस की परिचायक भी। कई बार वे चीजों को नए ढंग से देखने के  लिए हिंदी के आलोचना जगत को उकसाते भी थे। ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’, ‘औरत: उत्तरकथा’, ‘कथाजगत की बागी मुसलिम औरतें’, ‘वह सुबह कभी तो आएगी’ आदि पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने हिंदी समीक्षा को नई राह दिखाई, जो किन्हीं वजहों से संकुचित थी। उनके जाने से न सिर्फ हिंदी की कथा-विधा को आघात पहुंचा है, बल्कि साहसिक साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा भी धुंधलके में खो गई लगती है।


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