Tuesday, June 25, 2013

सच्ची वास्तविक मित्रता क्या है?


तुम्हारा जो यह प्रश्न है, वह बड़ा जटिल है। इससे पहले कि तुम यह समझ सको कि सच्ची प्रामाणिक मित्रता क्या है, तुम्हें कुछ अन्य चीजें समझनी होंगी।

सबसे पहले है मित्रता। मित्रता वह प्रेम है जो बिना जैविक कारणों से होता है। यह  वैसी मित्रता नहीं है जैसा कि तुम सामान्य रूप से समझते हो--प्रेमी या प्रेमिका की तरह। यह जो शब्द--मित्रता है, उसे किसी भी तरह यौनाकर्षण से संयुक्त कर देखना निरी मूर्खता है। यह सम्मोहन और पागलपन है। जैविकता प्रजनन के लिए तुम्हारा उपयोग कर रही है।


 अगर तुम यह सोचते हो कि तुम प्रेम में हो, तो तुम गलती में हो, यह केवल हार्मोन का आकर्षण है। तुम्हारे शरीर का रसायन बदला जा सकता है और तुम्हारा प्रेम नदारद हो जाएगा। हार्मोंस का केवल एक इंजेशन, और पुरुष स्त्री बन सकता है और स्त्री पुरुष बन सकती है ।

मित्रता है बिना यौनाकर्षण का प्रेम। यह एक दुर्लभ घटना बन गई है। अतीत में यह महत्वपूर्ण घटना रही है, पर अतीत की कुछ महान अवधारणाएं बिलकुल खो गई हैं। यह बहुत आश्चर्यजनक है कि कुरूप चीजें हमेशा  जिद्दी होती हैं,वे आसानी से नहीं मरतीं; और सुंदर चीजें बहुत कोमल होती हैं, वे आसानी से मर जाती हैं और गुम हो जाती हैं।

आज कल मित्रता को केवल यौनाकर्षण के संबंध में या आर्थिक स्तर पर या सामाजिकता के तौर पर ही समझा जाता है, वह महज परिचय है या जान-पहचान है। मित्रता का मतलब है कि आवश्यकता पड़ने पर तुम स्वयं का बलिदान करने को भी तत्पर हो । मित्रता का मतलब है कि तुमने किसी अन्य व्यक्ति को स्वयं से ज्यादा महत्वपूर्ण माना। यह व्यापार नहीं है। यह अपने आप में पवित्र प्रेम है।

जिस तरह से तुम अभी हो, वैसे ही इस तरह की मित्रता संभव है। अचेतन व्यक्ति भी इस तरह की मित्रता रख सकते हैं। लेकिन जब तुम स्वयं के प्रति ज्यादा सजग होने लगते हो तब मित्रता मैत्री में बदलने लगती है। मैत्री का आशय ज्यादा व्यापक, ज्यादा बडा आकाश है। मैत्री के मुकाबले मित्रता छोटी चीज है। मित्रता टूट सकती है और मित्र शत्रु बन सकता है। मित्रता में इस तरह की स्थिति बदलने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

इस संबंध में मुझे मैक्यावली का स्मरण होता है, जिसने विश्व के राजकुमारों को मार्गदर्शन किया है उसकी महान किताब " दि प्रिन्स' में। उनमे से एक परामर्श यह था: ऐसी कोई बात अपने मित्र को मत बताओ जो कि तुम अपने शत्रु को नहीं बता सकते क्योंकि वह व्यक्ति जो आज मित्र है, कल शत्रु बन सकता है। और उन परामर्शों में से एक परामर्श यह भी था कि अपने शत्रु के संबंध में भी ऐसा मत बोलो, जो उसके विरोध में हो, क्योंकि शत्रु भी कल मित्र बन सकता है। तब तुम्हारे लिए स्थिति काफी अजीब होगी।

मैक्यावली की यह साफ अंतर्दृष्टि है कि हमारा साधारण प्रेम नफरत में बदल सकता है, हमारी मित्रता किसी भी क्षण शत्रुता में बदल सकती है। यह आदमी के मन की अचेतन दशा है, यहां प्रेम के पीछे नफरत छिपी होती है। यहां तुम उस व्यक्ति को भी घृणा करते हो, जिनसे तुम्हें प्रेम है; पर इसके प्रति अभी तुम्हारी सजगता नहीं है।

मैत्री केवल तब ही संभव बन सकती है जब तुम वास्तविक और प्रामाणिक होते हो और जब तुम स्वयं के प्रति पूर्ण रूप से सजग होते हो। और इस सजगता में से यदि प्रेम निकलता है तो वह मैत्री है। और यह जो मैत्री है वह कभी भी विपरीत में नहीं बदलती। ध्यान रहे, यह कसौटी है, जीवन के महानतम मूल्य है केवल वे ही हैं जो विपरीत में नहीं बदलते; सच तो यह है कि यहां कुछ भी विपरीत नहीं है।

तुमने पूछा है कि वास्तविक प्रामाणिक मैत्री क्या है? तुम मैत्री का स्वाद चख सको इसके लिए तुम्हारे अंदर महान रूपांतरण की आवश्यकता है। जैसे अभी तुम हो, उसमें तो मैत्री एक दूर का सितारा है। तुम दूर के सितारे को देख तो सकते हो, तुम इस संबंध में बौद्धिक समझ भी रख सकते हो, पर यह समझ केवल बौद्धिक समझ ही बनी रहेगी, यह कभी अस्तित्वगत स्वाद नहीं बन सकता।

जब तक तुम मैत्री  का अस्तित्वगत स्वाद न लो, तब तक यह बड़ा मुश्किल होगा, लगभग असंभव कि तुम मित्रता और मैत्री में अंतर कर सको। तुम ऐसा समझ सकते हो कि मैत्री प्रेम का सबसे पवित्र रूप है। यह इतना पवित्र है कि तुम इसे फूल भी नहीं कह सकते, तुम ऐसा कह सकते हो कि यह एक ऐसी सुगंध है जिसको केवल अनुभव किया जा सकता है, और महसूस किया जा सकता है। पर इसे तुम पकड़ नहीं सकते। यह मौजूद है, तुम्हारे नासापुट इसे महसूस कर सकते हैं, तुम चारों ओर इससे घिरे हुए हो, तुम इसकी तंरगें महसूस कर सकते हो पर इसको पकड़े रखे रहने का कोई मार्ग नहीं है; इसका अनुभव इतना बड़ा और व्यापक है, जिसके मुकाबले तुम्हारे हाथ इतने छोटे पड़ जाते हैं।

मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारा प्रश्न बड़ा जटिल है--ऐसा तुम्हारे प्रश्न के कारण नहीं, पर तुम्हारे कारण कहा था। अभी तुम ऐसे बिंदु पर नहीं हो जहां मैत्री एक अनुभव बन सके। स्वाभाविक और प्रामाणिक बनो, तब तुम प्रेम की सबसे विशुद्ध गुणवत्ता को जान सकते हो: प्रेम की एक सुगंध जो हमेशा चारों ओर से घेरे हो। और इस विशुद्ध प्रेम की गुणवत्ता मैत्री है। मित्रता किसी व्यक्ति से संबंधित होती है, कोई व्यक्ति तुम्हारा मित्र होता है।

एक बार किसी व्यक्ति ने गौतम बुद्ध से पूछा कि क्या बुद्धपुरुष के भी मित्र होते हैं? उन्होंने जवाब दिया: नहीं। प्रश्नकर्ता अचंभित रह गया, क्योंकि वह सोच रहा था कि जो व्यक्ति स्वयं बुद्ध हो चुका--उसके लिए सारा संसार मित्र होना चाहिए। चाहे तुम्हें यह जानकर धक्का लगा हो या न लगा हो, पर गौतम बुद्ध बिलकुल सही कह रहे हैं। जब वे कह रहे हैं कि बुद्धपुरुष के मित्र नहीं होते, तब वे कह रहे हैं कि उनका कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि उनका कोई शत्रु नहीं होता। ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं। हां, वे मैत्री रख सकते हैं, पर मित्रता नहीं।

मैत्री ऐसा प्रेम  है जो किसी अन्य से संबंधित या किसी अन्य को संबोधित नहीं है। न ही यह किसी तरह का लिखित या अलिखित समझौता है, न ही किसी व्यक्ति का व्यक्ति विशेष के प्रति प्रेम  है। यह व्यक्ति का समस्त अस्तित्व के प्रति प्रेम है, जिसमें मनुष्य केवल छोटा सा भाग है, क्योंकि इसमें पेड़ भी सम्मिलित हैं, इसमें पशु भी सम्मिलित हैं,नदियां भी सम्मिलित हैं, पहाड़ भी सम्मिलित हैं और तारे भी सम्मिलित हैं--मैत्री में प्रत्येक चीज सम्मिलित है।
मैत्री तुम्हारे स्वयं के सच्चे और प्रामाणिक होने का तरीका है। तुम्हारे अंदर से मैत्री की किरणें निकलने लगती हैं। यह अपने से होता है, इसको लाने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। जो कोई भी तुम्हारे संपर्क में आता है, वह इस मैत्री को महसूस कर सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारा कोई शत्रु नहीं होगा, पर जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम किसी के भी शत्रु नहीं होते, क्योंकि अब तुम किसी  के  मित्र भी नहीं हो। तुम्हारा शिखर, तुम्हारा जागरण, तुम्हारा आनंद, तुम्हारा मौन बहुतों को परेशान करेगा और बहुतों में जलन पैदा करेगा, यह सब होगा, और यह सब बिना तुम्हें समझे होगा।
   
वास्तव में बुद्धपुरुष के शत्रु ज्यादा होते हैं बजाय अज्ञानी के। साधारण जन के कुछ ही शत्रु होते हैं और कुछ ही मित्र। पर इसके विपरीत लगभग सारा विश्व ही बुद्धपुरुष के विरोध में दिखाई देता है, क्योंकि अंधे लोग किसी आंख वाले को क्षमा नहीं कर सकते। और अज्ञानी उसे माफ नहीं कर सकते जो ज्ञानी हैं। वे उस आदमी से प्रेम नहीं कर सकते जो आत्यंतिक कृतार्थता को उपलब्ध हो गया है क्योंकि उनके अहं को चोट लगती है।

अभी हाल ही में मुझे चार पत्र मिले, जो विभिन्न अमेरिकन कैदियों के थे। जिसमें चारों कैदियों ने संन्यास लेने की इच्छा प्रगट की थी।इनमें से एक अमेरिकन कैदी पहले से ही मेरी पुस्तकें पढ़ता रहा था। जब मैं एक दिन के लिए जेल में था, तब से ही जेल के अधिकारियों के साथ-साथ कैदी भी मुझमें इच्छुक होने लगे थे। इसलिए उन्होंने मेरी पुस्तकें मंगवायी होंगी।

कैदी वे पुस्तकें पढ़ने लगा। हालांकि वह अमेरिकन था, जो उस जेल में पांच साल से था--उसने मुझे लिखा: "ओशो, आपकी पुस्तकें पढ़ते हुए, आपको टेलीविजन पर बोलते हुए देखना बहुत ही आंनद का अनुभव रहा है, और जब आप एक दिन के लिए जेल में थे, तब मैं भी उसी जेल में था और मैं उस दिन को कभी नहीं भूल सकता, जिस दिन मैं आपके साथ एक ही बैरक में था; वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन बन गया। तब से ही मैं अपने  भीतर बहुत कुछ ऐसा लेकर चल रहां हूं जो आपके सामने व्यक्त करना चाहता हूं:आपने कोई अपराध नहीं किया और जिस क्षण मैंने आपको देखा तब से ही इस बात के लिए मैं पूरी तरह से आश्वस्त रहा हूं। पर ऐसा लगता है कि बिलकुल निर्दोष होना ही सबसे भंयकर अपराध है। क्योंकि जिस तरह से पूरे देश में आपको रेडियो और टेलीविजन पर बोलते हुए सब सुनने लगे थे और आपकी पुस्तकें पढ़ने लगे थे तब ऐसा लगने लगा कि आप पूरे अमेरिका में उसके राष्ट्रपति से भी अधिक महत्वपूर्ण बन गए हैं और इसी कारण से वे आपका कम्यून नष्ट करने को प्रेरित हुए और आपको बंदी बनाया, सिर्फ आपको अपमानित करने के लिए ।'

मैं यह जानकर आश्चर्यचकित रह गया कि किसी कैदी के पास भी इस तरह की अंतर्दृष्टि है।
वह यह कह रहा है कि आप जैसे व्यक्ति को निंदित किया जाना नियति है, क्योंकि आपके जैसे चैतन्य और शिखर पर पहुंचे व्यक्ति के सामने, कुछ महान और ताकतवर व्यक्ति भी बौने दिखाई देते है। यह आपकी गलती है--वह कह रहा है। अगर आप इतने सफल नहीं होते तो आपको अनदेखा किया जा सकता था और अगर आपका कम्यून इतना सफल नही होता तो कोई भी आपकी परवाह नहीं करता।

बुद्धपुरुष का कोई मित्र नहीं होता, कोई शत्रु नहीं होता, केवल शुद्ध प्रेम होता है, जो किसी एक से संबंधित नहीं होता। और वह यह प्रेम हर उस हृदय में उंड़ेलने  लगता है, जो उपलब्ध है। यही प्रामाणिक मैत्री है।

पर इस तरह का व्यक्ति बहुत से  अहंकारों को चोट पहुंचाएगा, उन्हें आहत करेगा जो सोचते हैं कि वे बहुत ताकतवर और महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। इनमें हर वह व्यक्ति जिनमें बहुत से राष्टपति, प्रधानमंत्री, राजा और रानियों जैसे ताकतवर और महत्वपूर्ण व्यक्ति भी होंगे, वे तुरंत चिंतित और परेशान होंगे। कैसे एक साधारण व्यक्ति जिसके पास किसी भी तरह की ताकत नहीं है, अचानक ही लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया, उन व्यक्तियों से भी ज्यादा जिनके पास पद-प्रतिष्ठा और पैसा है। इस तरह के व्यक्ति को क्षमा नहीं किया जा सकता। उसे दंडित किया ही जाना चाहिए--चाहे उसने कोई अपराध किया हो अथवा नहीं। बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति से कोई अपराध नहीं होता--यह बिलकुल असंभव है। लेकिन निर्दोष होना, मैत्रीपूर्ण होना, अकारण सबके प्रति प्रेम का भाव रखना और स्वयं होना ही बहुत व्यक्तियों के अहं को आपके प्रति उकसाने के लिए प्रर्याप्त है।

तो जब मैं कहता हूं कि बुद्धपुरुष के शत्रु नहीं होते, तो मेरा मतलब है कि उसकी ओर से उसका कोई शत्रु नहीं। पर दूसरी ओर से, जितनी उसकी ऊंचाई होगी उतनी ज्यादा लोगों की शत्रुता होगी, उतना ज्यादा द्वेष होगा, उतनी ज्यादा निंदा होगी। ऐसा सदियों से होता रहा है।

अभी निर्वाणो मुझे कह रही थी कि जिस दिन मुझे चालीस लाख डालर का दंड किया गया, लगभग आधे करोड़ रुपयों से भी ज्यादा, और यह भलीभांति जानते हुए कि मेरे पास एक पैसा भी नहीं है... निर्वाणो को अपने पक्ष में काम कर रहे वकील ने कहा-उन्होंने फिर ऐसा किया। उसने पूछा, " यह तुम क्या कह रहे हो? और उसने कहा: हां, उन्होंने दुबारा ऐसा किया। उन्होंने फिर जीसस को सूली पर लटकाया, उन्होने दुबारा उसे दंडित किया जो बिलकुल ही निर्दोष है, पर उसकी निर्दोषता से उनके अहं को चोट पहुंचती है।

केवल बौद्धिक समझ ही पर्याप्त नहीं होगी, हां, थोड़ी बहुत बौद्धिक समझ ठीक है, क्योंकि   इससे तुम्हें अस्तित्वगत अनुभव मिलेगा। लेकिन तुम्हें प्रेम की उस अपरिसीम मिठास, सौंदर्य, भगवत्ता और सत्य का पूर्ण स्वाद केवल अनुभव से ही मिलेगा।

- ओशो 

Sunday, June 23, 2013

Outtakes: Alfred Hitchcock

WHO is he?
Legendary Hollywood director known as “the master of suspense” who worked in Britain during the 20s and the 30s and then in Hollywood till the early 70s. Widely celebrated as a pre-eminent artist of the 20th century, Hitchcock’s body of work is regarded as a clinching evidence for the possibility of incorporating a strong authorial voice into popular genre cinema.
WHAT are his films about?
Themes
The films of Hitchcock regularly deal with themes such as loss of masculine ideals, the incessant quest for control to remedy that loss (a desire for control that was reflected in the director’s working methods), the need for narratives in our lives and the fear of domesticity. But, most importantly, they are about the banality of evil, the commonplaceness of cruelty and the violent forces that simmer beneath the glossy veneer of everyday, civilised life. They are a demonstration of fascism’s sustained existence.
Style
A pioneer of filmic suspense, Hitchcock frequently employed what could be called the “bomb theory” — the idea that the tension an audience experiences is multiplied when an impending catastrophe is disclosed only to them beforehand. This makes way for several cross cutting sequences in his films, where spatial or temporal tensions are accentuated by way of delaying resolution. Hitchcock is also known for his exemplary use of two classic narrative devices: the MacGuffin and the Red Herring.
WHY is he of interest?
John Frankenheimer once said, “Any American director who says he hasn't been influenced by him is out of his mind”. There is arguably no other director whose films have been so exhaustively analysed under the microscope as Hitchcock’s. These films have been studied and critiqued from Marxist, Feminist, Queer theorist, psychoanalytic and purely aesthetic and narratological perspectives and what makes Hitchcock’s cinema so special is that it still remains enchanting even when these analyses reveal its working.
WHERE to discover him?
Imitated, parodied and paid tribute to over the ages, Psycho (1960) is nothing less than a watershed in the history of cinema. Hitchcock’s endlessly fascinating and seemingly timeless movie that revolves around a bachelor named Norman Bates who lives with his mother on an isolated motel is a masterpiece of narration, in which deviation becomes both the central theme and the structuring principle. Few sequences in cinema have been as thoroughly dissected as the shower scene in this film.

courtesy,The Hindu.

Outtakes Mani Kaul

WHO is he?
Indian filmmaker, film theorist and teacher who graduated from the FTII at Pune in 1966 and made films from the late Sixties to the 2000s. He was mentored by renowned Bengali director Ritwik Ghatak and he assisted French filmmaker Robert Bresson on one of his films. He won a National Award each for Duvidha (1973) and Siddheshwari (1989).
WHAT are his films about?
Themes
More often than not, the subject that Kaul’s films deal with extensively is art itself. These films work against the aesthetic principles and the ideas about beauty set forth by the artists and theorists of European Renaissance. Convergence of perspective lines in painting, the three act structure of literature and the climaxing of motifs in music — all baggage from the Renaissance — are notions that Kaul’s cinema experiment against and through which its left leaning politics is refracted.
Style
Kaul’s rigorously formalist cinema draws both from the traditional arts of Indian subcontinent such as the Dhrupad form of music and Mughal miniature paintings as well as the paintings of Paul Cezanne and the films of Robert Bresson. Kaul’s cinema embodies an aesthetic of fragmentation in which shots of isolated hands and feet dominate. The acting in these films is not realistic, the faces of the actors blank and expressionless. The narrative perspective is dispersed, which do not converge towards the end of the film, as they would in traditional filmmaking.
WHY is he of interest?
Arguably the most avant-garde of Indian filmmakers, Mani Kaul has done, perhaps more than anyone else, to open up the cinematic form and to explore the deep ties that cinema has with other classical arts. His cinema is wholly different from the social filmmaking of Parallel cinema, which sometimes sacrifices cinematic examination for partisan politics. Kaul is also one of the few filmmakers from the country who has backed his filmography with a published theoretical framework.
WHERE to discover him?
On paper, Siddheshwari, like so many films commissioned by the Films Division, is a cine-profile, of the Hindustani singer Siddheshwari Devi. However, Kaul turns the genre inside out, and amalgamates literary, theatrical, musical and cinematic forms together to construct an experience of music, instead of simply presenting biographical details or passively documenting the singer’s artistry. The sprawling film blends multiple timelines, realities and geographies to sketch a unique portrait of the artist. 

Courtesy,The Hindu.

Outtakes: Girish Kasaravalli

 
WHO is he?
Kannada film director and screenwriter widely considered a major figure in Indian Parallel Cinema. Kasaravalli graduated from the FTII in Pune in 1975 and has made about 15 feature films to date since his debut work, Ghatashraddha. He has won the National Award for Best Feature Film four times, for Ghatashraddha (1977), Tabarana Kathe (1986), Thaayi Saheba (1997) and Dweepa (2001).
WHY is he of interest?
Unlike many Parallel Cinema films that limit themselves to social criticism and sacrifice genuine exploration for narrow partisan politics, Kasaravalli’s films reveal themselves to be remarkably fertile and rich for sustained examination. The characters in his films are not simply helpless people oppressed by overpowering structures, but very dynamic elements that straddle multiple social contours, wherein the ideas of freedom and entrapment become difficult to define.
WHERE to discover him?
An uncharacteristic film, yet arguably the director’s finest work, Mane (1993) details the life of a newly married couple who move into a newly rented apartment. Made just when India had opened up its markets to the world — a historical move whose impact seems ever increasing — Mane is a Kafkaesque tale about the invasion of the private and the personal by external forces that uses an off-kilter image and sound scheme to generate a otherworldly feeling of despair and downfall.
WHAT are his films about?
Themes
Kasaravalli’s films are firmly situated in the humanist tradition, in which the plight of one individual in a particular social setup is examined with empathy. The protagonist in a Kasaravalli is almost always a woman, who is regularly bound by the rules of a conservative establishment. His films are rife with religious rituals, legal procedures, rules of social conduct and processes of legitimisation, through which the society under consideration justifies and perpetuates itself. These works set themselves apart from the lesser films of Parallel Cinema by steering away from superficial melodrama for an analytical examination.
Style
The style of filmmaking Kasaravalli adopts is generally classicist: static shots, location shooting, low-key lighting, double framing through doors and windows, gradual pans and tilts, a melodic classical score, naturalistic or understated performances and a functional editing pattern that is faithful to the film’s text and continuity. Kasaravalli also regularly employs major ellipses that bypass dramatic segments, which the audience has to fill in mentally, and intertitles that indicate the passage of time. 

Courtesy,The Hindu

Friday, June 21, 2013

जिन्हें अपने वतन में पनाह नहीं / विष्णु खरे



 " मैं राजनीतिक आदमी नहीं हूँ,समाजी मसलों में दिलचस्पी रखने वाला इंसान हूँ.किसी भी शख्स को लीजिए आप पाएंगे कि उसके हालात उसके परिवार,उसकी शिक्षा और उसकी आर्थिक दशा के कारण हैं.मैं इंसानियत और उसकी जद्दो-जहद की फ़िल्में बनाता हूँ "



जिस सिने-प्रतिभा ने अपनी बेहतरीन फिल्मों से सारे विश्व में अपने मुल्क का नाम रोशन किया हो,जिसे २५ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हों,जो संसार के शीर्षस्थ फिल्म-समारोहों में नियमित रूप से आमंत्रित होता हो,उसे उसके देश का निजाम उसके ५०वें जन्म-वर्ष के दौरान कैसे नवाजेगा ? ईरान के विख्यात और निस्बतन कम उम्र फिल्म-निदेशक जफ़र पनाही ( ज. ११ जुलाई १९६० ) को महमूद अहमदीनिजाद सरकार ने अव्वल तो इस वर्ष की शुरूआत में बर्लिन फिल्मोत्सव में नहीं जाने दिया,फिर मार्च में गिरफ्तार कर लिया जिससे वे कान फिल्मोत्सव की ज्यूरी में शामिल नहीं हो सके,१५ मई से वे जेल में भूख-हड़ताल पर चले गए और अंततः २५ मई को करीब १ करोड़ रुपये के बराबर ज़मानत पर रिहा किए गए.
जफ़र पनाही के असली गुनाह की बात तो बाद में होगी उनका ताज़ा अपराध यह है कि वे ईरान में पिछले वर्ष हुए चुनाव को,जिसमें अहमदीनिजाद फिर सत्तारूढ़ हुए,ईरान के लाखों नागरिकों और संसार के हज़ारों तटस्थ प्रेक्षकों और विश्लेषकों की तरह एक धोखाधड़ी मानते हैं.वे पराजित विपक्षी ग्रीनपार्टी नेता मीर हुसैन मूसवी के सक्रिय समर्थक हैं और चुनाव के बाद प्रदर्शनों में शहीद हुए एक युवक निदा आगा सुल्तान की कब्र पर फातिहा पढ़ने भी गए थे.उनके अहमदीनिजाद-विरोधी वक्तव्यों और मंतव्यों में कोई बदलाव नहीं आया है.जब जफ़र पनाही जैसा विश्वविख्यात फिल्म-निर्माता अपनी सरकार के खिलाफ कुछ कहता है तो सारी दुनिया उसे सुनती है और ईरान-जैसे शासन के पास उसकी जुबान बंद करने का पहला तरीका उसे गिरफ्तार कर लेने का ही होता है.विडम्बना यह है कि ऐसा करने के बाद कान महोत्सव के लिए इकठ्ठा हुई विश्व सिने-बिरादरी और फ़्रांस के कुछ मंत्रियों ने पनाही का इतना ज़बरदस्त समर्थन और अहमदीनिजाद सरकार की ऐसी बेपनाह मजम्मत की कि फिलहाल उन्हें ज़मानत पर छोड़ना पड़ा.

लेकिन यह पनाही के पुराने संघर्ष का इंटरवलकतई नहीं है बल्कि उसके रिपीट शोकी नई शुरूआत है.१९७९ की आयतुल्लाही क्रान्तिके बाद ईरान में प्रतिक्रियावादी मजहबी दकियानूसियत रह-रह कर हावी होती रही है और आधुनिकता,प्रबुद्धता और प्रगतिकामिता से लेशमात्र भी सम्बन्ध रखनेवाली हर तहरीक और कला पर वहाँ सिर्फ मुसीबतें नाजिल होती हैं सिनेमा इनमें सबसे खतरनाक और सेंधमार समझा जाता है.भारत में भी सेंसर बोर्ड की जहालतें और किस्सा कुर्सी का’, आंधीऔर ताज़ा राजनीतिजैसे कमतर उदाहरण हैं लेकिन ईरान सरीखे मुल्क अपने सिनेमा और अन्य कलाओं और उनके सर्जकों के साथ जो करते हैं उसके सामने भारतीय हरकतें तो खटमल-मच्छरों की तरह हैं,यद्यपि ऐसे जंतुओं से भी निपटा जाना चाहिए.
पनाही ने बहुत ज्यादा फ़िल्में नहीं बनाई हैं.घायल माथे’ ( ‘वूंडेड हैड्स’,फारसी में शायद यराली बश्लार’,१९८८ ) उनकी पहली स्वतंत्र कृति थी और २००६ में आई,अब तक की उनकी आख़िरी,फिल्म ऑफसाइड’ (फुटबॉल आदि का सुपरिचित शब्द,२००६ ) नवीं है.पनाही जैसा फिल्मकार पिछले चार वर्षों में कुछ नहीं बना सका,यही ईरानी हालात पर एक खुली टिप्पणी है.बहरहाल,पनाही अपने आज के समाज पर फ़िल्में बनाते हैं,जो दुर्भाग्यवश देशभक्तिसे ओतप्रोत ,’सकारात्मक’,दीनपरस्त और आशावादी नहीं हो सकतीं.वे घोर यथार्थवादी होती हैं जिनमें अमानवीय धार्मिक-राजनीतिक प्रतिबंधों में घुटते-पिसते,किसी तरह ज़िंदा रहते मर्द,औरतें,बच्चे और परिवार दिखाई देते हैं.यह कोई संयोग नहीं कि उनकी एक फिल्म का शीर्षक ही आईना’ (२०००) है.
मुक्ति चाहती औरतों का भयावह जीवन और गिरफ्तारियां उनकी फिल्मों में बार-बार लौटते हैं.स्त्रियाँ स्टेडियम में मर्दों के साथ फुटबाल नहीं देख सकतीं ,लिहाजा कुछ दुस्साहसी किशोरियां मर्दों के भेस में वहाँ घुस जाती हैं लेकिन पकड़ी जाती हैं वे वहाँ ऑफसाइडहैं !इसी तरह अपना-अपना दायरा’ (२०००) तोड़ने की कोशिश में अलग-अलग कहानियों वाली औरतों को रात में कैदखाना ही एक करता है. फिल्म का वह दृश्य,जिसमें एक अनब्याही गरीब माँ अपनी चार बरस की प्यारी बेटी को अच्छी ड्रेसपहनाकर अजनबियों की रहमदिली के भरोसे एक नुक्कड़ पर त्याग देती है,अपनी मार्मिकता में कभी भुलाया नहीं जा सकता.

दस वर्ष की उम्र से ही लेखन और फिल्म-निर्माण में सक्रिय रुचि रखनेवाले पनाही ने १९८०-९० के ईरान-इराक युद्ध में शिरकत की थी और उस पर एक वृत्तचित्र भी बनाया था.लाम से लौट कर वे ईरान के सिने-विश्वविद्यालय में पढ़े, जहां उन्होंने चोरी-छिपे रात-रात भर गैरकानूनी फ़िल्में देखीं और सुप्रसिद्ध निदेशक अब्बास किआरुस्तमी की फिल्म जैतून के दरख्तों के बीच से’ (१९९४) में उनके सहायक रहे.सफ़ेद गुब्बारेशीर्षक अपनी जिस फिल्म से उन्हें ख्याति मिली उसकी पटकथा उस्ताद किआरुस्तमी ने ही लिखी थी और १९९५ में उसे कान का स्वर्ण कैमरासम्मान मिला.दायराको २००० में वेनिस का गोल्डन लायन’, २००३ में तिलाए-सुर्ख’ (‘लाल सोना’) को कान का अं सेर्तैं रेगार्दऔर २००६ में ऑफसाइडको बर्लिन का सिल्वर बेअरसम्मान दिए गए.इनके बाद भी उन्हें कई पुरस्कार हासिल हुए हैं.
पनाही कहते हैं कि मैं राजनीतिक आदमी नहीं हूँ,समाजी मसलों में दिलचस्पी रखने वाला इंसान हूँ.किसी भी शख्स को लीजिए आप पाएंगे कि उसके हालात उसके परिवार,उसकी शिक्षा और उसकी आर्थिक दशा के कारण हैं.मैं इंसानियत और उसकी जद्दो-जहद की फ़िल्में बनाता हूँ.जहां तक मेरे सिनेमा में इतालवी नव-यथार्थवाद का सवाल है तो जो कुछ भी बहुत कलात्मक तरीके से समाज के सच को दिखाता है वह अपना नव-यथार्थवाद खुद खोज लेगा.मेरी फिल्मों में इंसानी बर्ताव और किस्सागोई मिले-जुले रहते हैं.सरकारी ज़ुल्मों को लेकर उनका छोटा-सा वक्तव्य है : कोई भी निजाम मुस्तकिल तो होता नहीं.मैं इंतज़ार कर सकता हूँ”.
दुर्भाग्य यह है कि पनाही अकेले ईरानी फिल्मकार नहीं हैं जो निजाम के बदलने का इंतज़ार कर रहे हैं.एक और निदेशक,मुहम्मद नूरीजाद, पिछले कोई चार महीनों से गिरफ्तार हैं.ज़लावतन निदेशक दर्यूश शोकोफ़ हाल ही में जर्मनी में रहस्यमय ढंग से लापता हो गए हैं.खुद अब्बास किआरुस्तमी की सारी फ़िल्में ईरान में प्रतिबंधित हैं.इनके अलावा पिता-पुत्री मोहसिन और समीरा मखमलबाफ,अमीर नादिरी,दर्यूश मेह्र्जुई,बहराम बेईजाई,रख्शान बनी-एतमाद आदि मशहूर-ओ-मारूफ सिनेकारों पर ईरान में फ़िल्में बनाने या दिखाने पर सख्त रोक लगी हुई है.इनकी फ़िल्में आयतुल्लाहों और हुक्मरान को रास नहीं आतीं.वैसे सार्थक सिनेमा इतना सशक्त जन-माध्यम है कि उस पर हर धर्म और हर सरकार की शनि-दृष्टि रहती ही है.

मिलीभगत हो,कायरता हो या खालिस जहालत,ईरान के सिनेमाकारों के संकट को हम भारतीय नहीं जानते-स्वीकारते.कुछ महीनों पहले एक वजीह लेखक-पटकथाकार ईरान की मेहमाननवाजी से इस क़दर निहाल थे कि उन्होंने लौटकर फतवा दिया कि वहाँ सब-कुछ बढ़िया चल रहा है.हाल में एक प्रबुद्ध दैनिक के बहुपाठी फिल्म-समीक्षक ने एलान किया कि शिया मुल्क होने के बावजूद ईरान में उम्दा फ़िल्में बन रही हैं.इधर हिंदी-पट्टी में कुछ घुमंतू स्वयम्भू फिल्म-समारोह-निदेशककुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो अपने फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी पाइरेटेड चिंदी सीडिओं के बल पर निरीह दर्शकों को बहका कर कस्बाई सिने-बजाज बने कमा-खा रहे हैं.उनसे आप कभी समसामयिक विश्व-सिनेमा की उम्मीद नहीं कर सकते.आज जब डीवीडी और उनके प्लेयर इतने सस्ते हो चुके हैं और एक-दो प्रबुद्ध टीवी चैनलें भी हैं जो दिन-भर बेहतर सिनेमा दिखा रही हैं,हम जफर पनाही ही नहीं,संसार-भर के उन जैसे फिल्मकारों के साथ अपनी एकात्मता कम-से-कम इस तरह तो व्यक्त कर सकते हैं कि यथासंभव उनकी श्रेष्ठ फ़िल्में देखें और खुद को बेहतर,जुझारू इंसान बनाने की कोशिश करें.

(कादम्बिनी के जुलाई,2010. अंक से साभार)

Thursday, June 20, 2013

भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर विशेष




व्यावसायिकता और रचनात्मकता का द्वंद्व
 

जवरीमल्ल पारख

भारत में सिनेमा की शुरुआत 1896 में हो गई थी, जब ल्यूमिए बंधुओं ने अपनी लघु फिल्मों का प्रदर्शन बंबई में किया था। इन प्रदर्शनों से प्रभावित होकर कुछ भारतीयों ने भी इस दिशा में काम करने का निर्णय लिया। दादा साहब फाल्के उनमें से एक थे, जिन्होंने एक विदेशी फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखकर यह तय किया था कि उन्हें भी फिल्म बनानी चाहिए और इसके लिए उन्होंने हिंदू पौराणिक चरित्र राजा हरिश्चंद्र के जीवन को पेश करने का निर्णय लिया। फिल्म बनाने के जरूरी संसाधन के लिए वे खुद लंदन गए थे और वहां से कैमरा और दूसरे जरूरी उपकरण लेकर ही नहीं आए बल्कि फिल्म निर्माण का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। भारत आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र फिल्म बनाई। उसका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन 3 मई 1913 को कोरोनेशन थियेटर में हुआ। यानी इस वर्ष 3 मई को इस फिल्म के प्रदर्शन के पूरे सौ साल हो जाएंगे और यही वजह है कि 2013 को सिनेमा की सदी के रूप में मनाया जा रहा है। दादा साहब फाल्के ने अगले पंद्रह साल में 95 फीचर फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाईं। लेकिन उनके द्वारा बनाई प्राय: सभी फीचर फिल्में पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं। उस समय एक फिल्म बनाने पर दस हजार से पंद्रह हजार रुपए खर्च होते थे। लेकिन इन दस-पंद्रह हजार रुपए का इंतजाम करना आसान काम नहीं था। इसलिए फिल्म बनाने और उनके प्रदर्शन के लिए कई कंपनियां स्थापित की गईं। स्वयं दादा साहब फाल्के ने हिंदुस्तान फिल्म्स नाम से एक कंपनी की स्थापना की थी जिसमें उनके अलावा अन्य कई भागीदार थे।
इस दौर में स्थापपित ये कंपनियां फिल्मों का निर्माण उसी तरह से करती थीं जैसे अन्य कंपनीयां माल का उत्पादन करती हैं। अभिनेताओं से लेकर तकनीशियनों तक को नौकरी पर रखा जाता था। फिल्मों को उनके अभिनेताओं या निर्देशकों के आधार पर नहीं बल्कि कंपनी के नाम से ज्यादा जाना जाता था। पौराणिक और चमत्कारिक कहानियां चुनने की एक वजह यह भी थी कि उस समय पश्चिम से जो फिल्में आयातित की जाती थीं और जिन्हें भारतीय सिनेमाघरों में दिखाया जाता था, उनकी तुलना में भारतीय फिल्मों को सफल होने के लिए यह सबसे आसान रास्ता नजर आता था। भारत जैसे देश में जहां नाटक और फिल्में देखना अच्छा नहीं समझा जाता था, वहां धार्मिक और पौराणिक फिल्मों के माध्यम से दर्शकों को सिनेमाघरों तक आसानी से खींचा जा सकता था। इस तरह फिल्मों के प्रति बढ़ते आकर्षण ने ही कुछ फिल्मकारों को सामाजिक विषयों को आधार बनाकर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इनमें बाबूराव पेंटर का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय है जिन्होंने 1925 में सावकारी पाश नामक फिल्म बनाई थी जो किसानों की ऋण समस्या पर आधारित थी। फिल्में देखने के प्रति बढ़ती रुचि ने ही संभवत: ब्रिटिश सरकार को इसके लिए सजग किया कि फिल्मों के लिए सेंसर की व्यवस्था लागू हो। 1918 में फिल्मों के प्रदर्शन संबंधी कानून पारित किया गया जो 1920 से लागू हुआ। शायद यही वजह है कि 1947 से पहले आजादी के आंदोलन को आधार बनाकर कोई फिल्म नहीं बन सकी।
फिर भी, दो दशकों में ही कई ऐसे फिल्मकार सामने आने लगे थे जिनके लिए फिल्में महज मनोरंजन का माध्यम नहीं था। ये फिल्मकार मुख्य रूप से तीन फिल्म कंपनियों से जुड़े थे। 1929 में कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना की गई थी। इसकी स्थापना करने वालों में वी. शांताराम, विष्णुपंत दामले, एस. फत्तेलाल, केशवराव ढेबर आदि शामिल थे। वी. शांताराम, दामले और फत्तेलाल ने मराठी और हिंदी में कई सामाजिक दृष्टि से उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाई थीं। कलकत्ता के न्यू थियेटर्स ने, जिसकी स्थापना 1930 में बी. एन. सरकार ने की थी, बांग्ला और हिंदी में कई महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाईं और कई महान फिल्मकारों को काम करने का अवसर प्रदान किया। न्यू थियेटर्स से नितिन बोस, पी. सी. बरुआ, अमर मलिक, देबकी बोस, के. एल. सहगल, केदार शर्मा, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे महान फिल्मकार और कलाकार जुड़े रहे थे। हिमांशु रॉय द्वारा स्थापित बॉम्बे टॉकीज ने भी 1930 के दशक में कई बड़े फिल्मकार और कलाकार सिनेमा को दिए थे। इसी दौर में हिंदी सिनेमा से हिंदी और उर्दू के कई महत्त्वपूर्ण लेखक भी जुड़े और उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथा, संवाद तथा गीत लिखे। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद संस्कृति के क्षेत्र में जो आंदोलनात्मक स्थितियां पैदा हुईं, उसने भी फिल्मकारों को प्रगतिशील विषयवस्तु लेकर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया।
1930 के दशक तक आते-आते राष्ट्रीय आंदोलन न सिर्फ व्यापक जन आंदोलन में बदल चुका था बल्कि इसमें किसान, मजदूर, दलित और स्त्रियों की भागीदारी भी बढ़ रही थी। यह एहसास भी बढ़ रहा था कि सिर्फ राजनीतिक मुक्ति ही पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वतंत्र भारत कैसा होगा, यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों और दलितों को उनके अधिकार मिल पाएंगे या नहीं? यह बड़ा प्रश्न उठने लगा था। फिल्मकार भले ही राजनीतिक फिल्म न बना पा रहे हों, लेकिन सामाजिक प्रश्न वे फिल्मों के माध्यम से उठा सकते थे और इसे हम उस दौर की फिल्मों में देख सकते हैं। 1932 में ही न्यू थियेटर्स ने देवकी बोस के निर्देशन में बांग्ला में चंडीदास फिल्म बनाई थी जिनमें भक्ति आंदोलन के महान कवि चंडीदास के जीवन को पेश किया गया था। इस फिल्म के माध्यम से जातिगत ऊंच-नीच का सवाल उठाया गया था। इस फिल्म को दो साल बाद ही न्यू थियेटर्स ने नितिन बोस के निर्देशन में हिंदी में भी बनाया था। देवकी बोस ने अगले साल ही बांग्ला और हिंदी में मीराबाई के जीवन पर फिल्म बनाई। हिंदी फिल्म राजरानी मीरा में के.एल. सहगल और दुर्गा खोटे ने काम किया था। 1933 में ही न्यू थियेटर्स ने हिंदी में यहूदी की लड़की फिल्म बनाई, जो आगा हश्र कश्मीरी के नाटक पर आधारित थी और जिसमें सांप्रदायिकता के प्रश्न को उठाया गया था तथा सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश दिया गया था। प्रभात फिल्म्स के बैनर तले 1934 में वी. शांताराम ने अमृतमंथन फिल्म बनाई जिसमें धर्म के नाम पर दी जाने वाली पशुओं की बलि का विरोध किया गया था। 1934 में मोहन भवनानी ने मजदूर फिल्म बनाई थी जिसमें मजदूरों के अधिकारों को विषय बनाया गया था। इस फिल्म की पटकथा प्रेमचंद ने लिखी थी। पूंजीपतियों और व्यापारियों के लोभ-लालच और मजदूरों के शोषण-उत्पीडऩ पर फिल्में बनने का सिलसिला शुरू हो चुका था। देवकी बोस की फिल्म इंकलाब (1935) में भूकंप का लाभ उठाने की व्यवसायी की कोशिशों को दिखाया गया है। बॉम्बे टॉकीज ने 1936 में अछूत कन्या फिल्म के माध्यम से एक ब्राह्मण लड़के और एक दलित लड़की की प्रेम कहानी दिखाई थी। 1936 में ही प्रभात फिल्म्स ने मराठी में संत तुकाराम फिल्म बनाई थी जिसमें ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था की आलोचना की गई थी। इन उदाहरणों से साफ है कि 1930 के बाद भारतीय सिनेमा में ऐसे फिल्मकारों का आगमन बड़ी संख्या में होने लगा था जिनके लिए फिल्म निर्माण उच्च सामाजिक मकसद से प्रेरित था। इन फिल्मकारों ने सिनेमा निर्माण की भारतीय परंपरा का अनुकरण करते हुए भी अपने मकसद को कभी भी आंखों से ओझल नहीं होने दिया।
फिल्म बनाने का यह मकसद 1930 के दशक में स्थापित फिल्म कंपनियों के बिखराव के बाद भी जारी रहा। न्यू थियेटर्स, प्रभात फिल्म्स, बॉम्बे टॉकीज और दूसरी कई कंपनियां या तो बंद हो गईं या उनकी वह सक्रियता नहीं रही जो 1930-40 की अवधि में रही थी। फिल्मकारों ने खुद अपनी छोटी-बड़ी कंपनियां स्थापित कर ली थीं। फिल्म उद्योग का अब काफी विस्तार हो गया था और यह करोड़ों के व्यवसाय में बदल गया था। साथ ही फिल्म बनाना भी काफी महंगा होता जा रहा था। दूसरे विश्वयुद्ध के कारण फिल्मों के लिए जरूरी कच्चा माल भी आसानी से नहीं मिल पा रहा था। इसके बावजूद फिल्मकार बेहतर फिल्में बना रहे थे। 1940-50 के दशक में कई महत्त्वपूर्ण फिल्मकार हिंदी सिनेमा के क्षेत्र में सक्रिय हुए जिनमें बिमल रॉय, केदार शर्मा, महबूब खान, सोहराब मोदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजकपूर, चेतन आनंद, कमाल अमरोही, अमिय चक्रवर्ती, गुरुदत्त, बी.आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा आदि का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। इन सभी फिल्मकारों ने जो भी फिल्में उस दौर में बनाईं उनका कोई-न-कोई सामाजिक मकसद होता था। यह दौर 1960 तक कमोबेश जारी रहा। ये फिल्में भी मेलोड्रामाई शैली में ही बनाई गई थीं लेकिन इस शैली ने फिल्मों के यथार्थवादी कथ्य को कमजोर नहीं किया था बल्कि इसे अधिक संप्रेषणीय बना दिया था। इन फिल्मों में मध्यवर्ग के जीवन में आने वाले बदलावों और संघर्षों को ही नहीं बल्कि समाज के पददलित वर्गों के जीवन को भी विविधता के साथ पेश किया गया था। यह हिंदी सिनेमा का सर्वाधिक रचनात्मक युग था। इस दौर की फिल्में दो तरह के नजरिये को पेश कर रही थीं। एक में आजादी के बाद का आशावाद था (दुख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे, रंग नवजीवन में नया लायो रे’) और दूसरे में स्थितियों की भयावहता के कारण पैदा नैराश्य था (‘जिन्हें नाज हैं हिंद पर वे कहां हैंऔर ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’)। फिर भी, एक तरह की हल्की आशा की किरण बाकी थी: वो सुबह कभी तो आएगी
1940-60 के बीच के दौर में फिल्में उनके निर्देशकों द्वारा पहचानी जाती थीं। अभिनेताओं का भी महत्त्व था और धीरे-धीरे निर्देशक के बाद उनकी ही हस्ती बनती जा रही थी। इस दौर के अभिनेताओं ने पारसी थियेटर के दौर की अतिरंजित और अत्यंत लॉउड अभिनय से नाता तोड़कर यथार्थवादी अभिनय कला को अपनाया। यह परंपरा के. एल. सहगल शुरू कर चुके थे, लेकिन दिलीप कुमार ने इसे उत्कर्षता के शिखर पर पहुंचाया। नायिकाओं की जो नई पीढ़ी इस दौर में सामने आयी जिनमें नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, नूतन, वहीदा रहमान आदि प्रमुख थीं। उन्होंने भी अभिनय की इसी शैली में अपनी क्षमता का परिचय दिया। लेकिन 1960 के बाद की फिल्मों में निर्देशक गौण होता चला गया। फिल्म में सामाजिक उद्देश्य हाशिए पर पहुंचने लगा और फिर वह लुप्त ही हो गया। उसकी जगह प्रेम त्रिकोण वाली कहानियों ने ले ली जिनमें खलनायक की मौजूदगी जरूरी हो गई थी। अधिकतर फिल्में नायक केंद्रित बनने लगीं और उनको जितना संभव ग्लैमराइज किया जा सकता था, किया जाने लगा। शम्मी कपूर, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, शशि कपूर, जितेंद्र इस दौर के नायक थे। 1950-60 के दौरान जो फिल्मकार सामाजिक मकसद वाली फिल्में बना रहे थे, उनमें से कुछ (बिमल रॉय, गुरुदत्त और महबूब) का देहांत हो चुका था। कुछ धीरे-धीरे व्यावसायिकता की ओर मुडऩे लगे थे। और कुछ ने फिल्मी दुनिया से किनारा कर लिया था। बढ़ती व्यावसायिकता ने फिल्मों की कीमतें बढ़ा दीं। अभिनेता मुहंमांगा पैसा मांगने लगे। अब वे फिल्मों में सवैतनिक काम नहीं करते थे बल्कि ज्यादातर कलाकार पूरी फिल्म के लिए निश्चित राशि लेते थे और यह राशि उनकी बाजार मांग से तय होती थी। वैसे तो शुरू से ही फिल्मों पर वितरकों का दबाव रहता था, लेकिन इस दौर में वे फिल्मकार को काफी हद तक डिक्टेटकरने लगे थे। उनकी इच्छा से फिल्म में गाने, अभिनेताओं का चयन, नृत्य और फाइटिंग के दृश्यों का समावेश होने लगा था। यह हिंदी सिनेमा के पतन का दौर था।
इसी दौर में पुणे में प्रभात स्टूडियो के प्रांगण में भारत सरकार ने फिल्म और टेलीविजन संस्थान की स्थापना की। इस संस्थान के माध्यम से फिल्म अभिनेता, निर्देशक, छायाकार, साउंड रिकॉर्डिस्ट और पटकथा लेखकों की एक नई युवा पीढ़ी सामने आयी। इस संस्थान के माध्यम से ये विश्व के उस बेहतरीन सिनेमा से परिचित हो चुके थे जो फ्रांस, इटली, जर्मनी, सोवियत संघ आदि देशों में बन रहा था। वे भारत की भी विभिन्न भाषाओं में बनने वाली उन फिल्मों से भी परिचित हो रहे थे जिनकी ओर व्यावसायिक सिनेमा के शोरगुल के कारण ध्यान नहीं जा रहा था। बांग्ला में सत्यजित रॉय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन; मलयालम में जी. अरविंदन, अडूर गोपालकृष्णन; और दूसरी कई भाषाओं में बनने वाली ऐसी फिल्मों को देखकर उन्हें एहसास हुआ कि फिल्म की रचनात्मकता और कलात्मकता को देखना और उनसे सीखना हो तो यही वे फिल्में हैं। इनमें से कुछ फिल्मकार प्रयोगशीलता पर अधिक बल देते नजर आते थे, लेकिन अधिकतर फिल्मकार किसी न किसी सामाजिक समस्या के इर्दगिर्द अपनी फिल्में बना रहे थे। यह वह दौर भी था जब कांग्रेस शासन के प्रति जनता में मोहभंग बढ़ रहा था। मजदूरों और मध्यवर्गीय पेशे वाले लोगों के आंदोलन बढ़ रहे थे। मध्यवर्गीय किसान पार्टियां और वामपंथी पार्टियां अपने को कांग्रेस के विकल्प के रूप में पेश कर रही थीं। नक्सलबाड़ी आंदोलन का प्रभाव फिल्मकारों पर दिखने लगा था। स्पष्ट ही पूरे माहौल में परिवर्तन की अनुगूंजें सुनाई दे रही थीं।
इस पर भी अधिकतर हिंदी फिल्मों का इस वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं था। इस दृष्टि से 1960 के बाद का हिंदी सिनेमा उन्हें बहुत छिछला, अश्लील और निरर्थक लगा। यही वजह है कि पहली बार व्यावसायिकता और रचनात्मकता का एक स्पष्ट भेद फिल्मों के माध्यम से स्थापित हुआ। वे फिल्मकार जो व्यावसायिक सिनेमा से अलग तरह का सिनेमा बनाना चाहते थे, उन्होंने अपनी फिल्मों को उनसे अलग रखने का स्पष्ट प्रयत्न किया और दर्शकों को भी इस बात का एहसास हुआ कि ये वे फिल्में नहीं हैं जिनको वे अब तक देखते रहे हैं। ये बिल्कुल नए तरह के आस्वाद वाली फिल्में हैं। व्यावसायिक फिल्मों से आम दर्शकों की रुचि काफी हद तक भ्रष्ट हो चुकी थी, इसलिए शहरी और शिक्षित मध्यवर्ग के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर इस नए तरह के सिनेमा को प्राय: दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया। लेकिन पहली बार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में फिल्में स्पष्ट राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक बदलाव के मकसद से बनाई जा रही थीं। वे फिल्मों की मेलोड्रामाई शैली की बजाए यथार्थवादी शैली में फिल्में बना रहे थे। फिल्मों से नाच-गाने और हास्य के अनावश्यक प्रसंग गायब हो गए थे। फिल्मों में रचनात्मक और अभिव्यक्ति के स्तर पर कई तरह के प्रयोग हुए और सबसे बड़ी बात यह है कि वे फिल्म को एक कला माध्यम मानते हुए भी बदलाव के हथियार के रूप में इसे देख रहे थे। मुख्यधारा के सिनेमा से इतर यह एक नई धारा थी और इसी वजह से इसे न्यू वेव सिनेमा या समानांतर सिनेमा नाम दिया गया। इस दौर के प्रमुख फिल्मकारों में बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, बासु चटर्जी, सईद अख्तर मिर्जा, गौतम घोष, प्रकाश झा, कुंदन शाह, मणि कौल, कुमार शहानी आदि कई नाम लिये जा सकते हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा को नई तरह की फिल्में बिल्कुल नए सिनेमाई भाषा में प्रदान कीं।
व्यावसायिक सिनेमा और समानांतर सिनेमा एक ही तरह के यथार्थ की उपज थे, फिर भी उनमें जमीन-आसमान का अंतर था। व्यावसायिक सिनेमा प्राय: यथास्थितिवादी था जबकि समानांतर सिनेमा में यथार्थ के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक दृष्टि नजर आती थी और उनमें से कुछ फिल्मों में सामाजिक बदलाव के संकेत देखे जा सकते थे। इस दौर में जन आक्रोश का इस्तेमाल व्यावसायिक सिनेमा ने भी किया जिसे अमिताभ बच्चन के नायकत्व वाली फिल्मों में देखा जा सकता था जो अपराध के विरुद्ध अकेले संघर्ष करता है और विजयी होता है। निजी प्रतिशोध पर आधारित इस तरह की फिल्मों का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य प्राय: अलोकतांत्रिक होता था। व्यावसायिक सिनेमा बनाने वालों की रुचि जन भावनाओं का दोहन कर उन्हें मनोरंजन प्रदान करना था, इसलिए उनका बजट बहुत ज्यादा होता था। 1975 में बनी शोले फिल्म का बजट दो से तीन करोड़ माना जाता है और उसने 15 करोड़ का व्यवसाय किया था जबकि उसके दो साल बाद प्रदर्शित हुई शतरंज के खिलाड़ी फिल्म का बजट सिर्फ 20 लाख रुपए था जो ऐतिहासिक कथानक पर आधारित फिल्म थी। यह भी रंगीन फिल्म थी और उसमें अपने समय के बड़े-बड़े कलाकार थे। इसलिए इसका बजट अपेक्षाकृत ज्यादा था। उस दौर में चार-पांच लाख रुपए में अच्छी फिल्म आसानी से बनाई जा सकती थी। फिर भी, फिल्म निर्माण पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किये जाते थे। इस दौर में अव्यावसायिक फिल्में बनाने वाले ज्यादातर फिल्मकारों को फिल्म वित्त निगम से या राज्य सरकारों से या किसी-न-किसी सरकारी संस्थान से अनुदान या ऋण मिलता था। इसलिए ऐसी फिल्में बनाना तो संभव हो जाता था लेकिन फिल्मों के प्रदर्शन की व्यवस्था जिन निजी वितरक कंपनियों के हाथ में थीं उनकी इन फिल्मों के प्रदर्शन में कोई रुचि नहीं होती थी। इसलिए ज्यादातर फिल्में देश-विदेश में फिल्म समारोहों में दिखाई जाकर डिब्बे में बंद हो जाती थीं। यही वजह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर ये फिल्में मुख्यधारा पर न प्रभाव छोड़ पाईं और न ही अपने लिए जगह बना पाईं। धीरे-धीरे सरकारी सहायता के अभाव में बहुत से फिल्मकारों ने व्यावसायिकता से समझौता करना शुरू कर दिया। कुछ ही फिल्मकार पुराने रास्ते पर चलते रहे। लेकिन उन्हें फिल्में बनाने के अवसर यदा-कदा ही मिल पाते थे। व्यावसायिकता की मुख्यधारा निरंतर बलशाली होकर प्रवाहित होती रही।
व्यावसायिकता और रचनात्मकता का यह द्वंद्व आज भी कायम है। पिछले एक दशक में एकबार फिर से कई नए फिल्मकार आए हैं जो व्यावसायिक सिनेमा से कुछ भिन्न करना चाहते हैं। विशाल भारद्वाज, आमिर खान, आशुतोष गोवरीकर, राकेश मेहरा, अनुराग कश्यप, सुजॉय घोष, दिवाकर बनर्जी, तिंग्मांशु धुलिया, राजकुमार गुप्ता, नीरज पांडेय, निशीकांत कामत, अमोल गुप्ते, राहुल ढोलकिया, नंदिता दास, शूजित सरकार आदि कई नाम पेश किये जा सकते हैं लेकिन ज्यादातर फिल्मकार एक दो फिल्मों के बाद ही व्यावसायिकता की ओर मुडऩे लगते हैं और व्यावसायिकता से समझौते करने लगते हैं। जो सबसे बड़ा फर्क इन फिल्मकारों और समानांतर सिनेमा के फिल्मकारों में नजर आता है, वह यह कि उनमें से अधिकतर के पास प्रगतिशील राजनीतिक-सामाजिक दृष्टिकोण का अभाव दिखाई देता है। समाज की सच्चाइयों और अंतर्विरोधों को तीखेपन के साथ पेश करने की इच्छा तो नजर आती है लेकिन वैचारिकता के अभाव में कई बार फिल्में दिशाहीन बन जाती हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि सोद्देश्यपूर्ण और रचनात्मक फिल्में बिल्कुल नहीं बन रही हैं। पिछले कुछ सालों में बनी कुछ फिल्मों के उदाहरण से ही इसे आसानी से समझा जा सकता है। विशाल भारद्वाज की ब्लू अंब्रेला, अनवर जमाल की स्वराज: ए लिटिल रिपब्लिक, भावना तलवार की धर्म, ओनीर की आइ एम, राहुल ढोलकिया की परजानिया, नंदिता दास की फिराक, अनुशा रिजवी की पीपली लाइव, बेदब्रत पैन की चट्टगांव, मंगेश हडवाले की देख इंडियन सर्कस, नितिन कक्कड़ की फिल्मिस्तान और इनके अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनी बहुत-सी फिल्मों की सूची यहां पेश की जा सकती हैं जो कम बजट की सौद्देश्यपूर्ण फिल्में कही जा सकती हैं।
यह सही है कि आज व्यावसायिक फिल्मों का बजट 50-60 करोड़ तक पहुंच गया है और एक फिल्म से 100 करोड़ से ज्यादा का व्यवसाय होने लगा है लेकिन यह भी सही है कि आज फिल्म प्रौद्योगिकी में बहुत से ऐसे बदलाव हुए हैं जिनके कारण अच्छी फिल्में बहुत कम बजट में बनाई जा सकती हैं। इस नई प्रौद्योगिकी के कारण ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण वृत्तचित्रों और लघु फिल्मों का बड़ी संख्या में निर्माण होने लगा है, जो कुछ दशक पहले तक बिल्कुल संभव नहीं था। दरअसल, फिल्म बनाना उतना मुश्किल नहीं है जितना कि उनका सार्वजनिक प्रदर्शन। हालांकि इंटरनेट, डीवीडी आदि ने फिल्मों की उपलब्धता को अब पहले की तुलना में आसान बना दिया है। फिर भी, रचनात्मक और परिवर्तनकामी सिनेमा को व्यापक जन समुदाय तक पहुंचाना और व्यावसायिक सिनेमा से भ्रष्ट हुई रुचियों के बावजूद दर्शकों में ऐसी फिल्मों के प्रति रुचि पैदा करना एक जरूरी मकसद है। सिनेमा के सौ साल के सफर के बाद भी यह चुनौती अभी भी बनी हुई है।

- समयांतर पत्रिका से साभार