" मैं राजनीतिक आदमी नहीं हूँ,समाजी मसलों में दिलचस्पी रखने वाला इंसान
हूँ.किसी भी शख्स को लीजिए – आप पाएंगे कि उसके हालात उसके
परिवार,उसकी शिक्षा और उसकी आर्थिक दशा के कारण हैं.मैं
इंसानियत और उसकी जद्दो-जहद की फ़िल्में बनाता हूँ "
जिस सिने-प्रतिभा ने अपनी बेहतरीन फिल्मों से सारे विश्व में
अपने मुल्क का नाम रोशन किया हो,जिसे
२५ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हों,जो संसार
के शीर्षस्थ फिल्म-समारोहों में नियमित रूप से आमंत्रित होता हो,उसे उसके देश का निजाम उसके ५०वें जन्म-वर्ष के दौरान कैसे नवाजेगा ?
ईरान के विख्यात और निस्बतन कम उम्र फिल्म-निदेशक जफ़र पनाही ( ज.
११ जुलाई १९६० ) को महमूद अहमदीनिजाद सरकार ने अव्वल तो इस वर्ष की शुरूआत में बर्लिन
फिल्मोत्सव में नहीं जाने दिया,फिर मार्च में गिरफ्तार कर
लिया जिससे वे कान फिल्मोत्सव की ज्यूरी में शामिल नहीं हो सके,१५ मई से वे जेल में भूख-हड़ताल पर चले गए और अंततः २५ मई को करीब १ करोड़
रुपये के बराबर ज़मानत पर रिहा किए गए.
जफ़र पनाही के असली गुनाह की बात तो बाद में होगी – उनका ताज़ा अपराध यह है कि वे ईरान में पिछले
वर्ष हुए चुनाव को,जिसमें अहमदीनिजाद फिर सत्तारूढ़ हुए,ईरान के लाखों नागरिकों और संसार के हज़ारों तटस्थ प्रेक्षकों और
विश्लेषकों की तरह एक धोखाधड़ी मानते हैं.वे पराजित विपक्षी “ग्रीन” पार्टी नेता मीर हुसैन मूसवी के सक्रिय
समर्थक हैं और चुनाव के बाद प्रदर्शनों में शहीद हुए एक युवक निदा आगा सुल्तान की
कब्र पर फातिहा पढ़ने भी गए थे.उनके अहमदीनिजाद-विरोधी वक्तव्यों और मंतव्यों में
कोई बदलाव नहीं आया है.जब जफ़र पनाही जैसा विश्वविख्यात फिल्म-निर्माता अपनी सरकार
के खिलाफ कुछ कहता है तो सारी दुनिया उसे सुनती है और ईरान-जैसे शासन के पास उसकी
जुबान बंद करने का पहला तरीका उसे गिरफ्तार कर लेने का ही होता है.विडम्बना यह है
कि ऐसा करने के बाद कान महोत्सव के लिए इकठ्ठा हुई विश्व सिने-बिरादरी और फ़्रांस के
कुछ मंत्रियों ने पनाही का इतना ज़बरदस्त समर्थन और अहमदीनिजाद सरकार की ऐसी
बेपनाह मजम्मत की कि फिलहाल उन्हें ज़मानत पर छोड़ना पड़ा.
लेकिन यह पनाही के पुराने संघर्ष का ‘इंटरवल’ कतई नहीं है
बल्कि उसके ‘रिपीट शो’ की नई शुरूआत
है.१९७९ की आयतुल्लाही “क्रान्ति” के
बाद ईरान में प्रतिक्रियावादी मजहबी दकियानूसियत रह-रह कर हावी होती रही है और
आधुनिकता,प्रबुद्धता और प्रगतिकामिता से लेशमात्र भी सम्बन्ध
रखनेवाली हर तहरीक और कला पर वहाँ सिर्फ मुसीबतें नाजिल होती हैं – सिनेमा इनमें सबसे खतरनाक और सेंधमार समझा जाता है.भारत में भी सेंसर
बोर्ड की जहालतें और ‘किस्सा कुर्सी का’, ‘आंधी’ और ताज़ा ‘राजनीति’ जैसे कमतर उदाहरण हैं लेकिन ईरान सरीखे
मुल्क अपने सिनेमा और अन्य कलाओं और उनके सर्जकों के साथ जो करते हैं उसके सामने
भारतीय हरकतें तो खटमल-मच्छरों की तरह हैं,यद्यपि ऐसे जंतुओं
से भी निपटा जाना चाहिए.
पनाही ने बहुत ज्यादा फ़िल्में नहीं बनाई हैं.’घायल माथे’ ( ‘वूंडेड
हैड्स’,फारसी में शायद ‘यराली बश्लार’,१९८८ ) उनकी पहली स्वतंत्र कृति थी और २००६ में आई,अब
तक की उनकी आख़िरी,फिल्म ‘ऑफसाइड’
(फुटबॉल आदि का सुपरिचित शब्द,२००६ ) नवीं
है.पनाही जैसा फिल्मकार पिछले चार वर्षों में कुछ नहीं बना सका,यही ईरानी हालात पर एक खुली टिप्पणी है.बहरहाल,पनाही
अपने आज के समाज पर फ़िल्में बनाते हैं,जो दुर्भाग्यवश ‘देशभक्ति’ से ओतप्रोत ,’सकारात्मक’,दीनपरस्त और आशावादी नहीं हो सकतीं.वे घोर यथार्थवादी होती हैं जिनमें
अमानवीय धार्मिक-राजनीतिक प्रतिबंधों में घुटते-पिसते,किसी
तरह ज़िंदा रहते मर्द,औरतें,बच्चे और
परिवार दिखाई देते हैं.यह कोई संयोग नहीं कि उनकी एक फिल्म का शीर्षक ही ‘आईना’ (२०००) है.
मुक्ति चाहती औरतों का भयावह जीवन और गिरफ्तारियां उनकी फिल्मों
में बार-बार लौटते हैं.स्त्रियाँ स्टेडियम में मर्दों के साथ फुटबाल नहीं देख
सकतीं ,लिहाजा कुछ दुस्साहसी
किशोरियां मर्दों के भेस में वहाँ घुस जाती हैं लेकिन पकड़ी जाती हैं – वे वहाँ ‘ऑफसाइड’ हैं !इसी तरह
अपना-अपना ‘दायरा’ (२०००) तोड़ने की
कोशिश में अलग-अलग कहानियों वाली औरतों को रात में कैदखाना ही एक करता है. फिल्म
का वह दृश्य,जिसमें एक अनब्याही गरीब माँ अपनी चार बरस की
प्यारी बेटी को अच्छी ‘ड्रेस’ पहनाकर
अजनबियों की रहमदिली के भरोसे एक नुक्कड़ पर त्याग देती है,अपनी
मार्मिकता में कभी भुलाया नहीं जा सकता.
दस वर्ष की उम्र से ही लेखन और फिल्म-निर्माण में सक्रिय रुचि
रखनेवाले पनाही ने १९८०-९० के ईरान-इराक युद्ध में शिरकत की थी और उस पर एक
वृत्तचित्र भी बनाया था.लाम से लौट कर वे ईरान के सिने-विश्वविद्यालय में पढ़े, जहां उन्होंने चोरी-छिपे रात-रात भर ‘गैरकानूनी’ फ़िल्में देखीं और सुप्रसिद्ध निदेशक
अब्बास किआरुस्तमी की फिल्म ‘जैतून के दरख्तों के बीच से’
(१९९४) में उनके सहायक रहे.’सफ़ेद गुब्बारे’
शीर्षक अपनी जिस फिल्म से उन्हें ख्याति मिली उसकी पटकथा उस्ताद
किआरुस्तमी ने ही लिखी थी और १९९५ में उसे कान का ‘स्वर्ण
कैमरा’ सम्मान मिला.’दायरा’ को २००० में वेनिस का ‘गोल्डन लायन’, २००३ में ’तिलाए-सुर्ख’ (‘लाल
सोना’) को कान का ‘अं सेर्तैं रेगार्द’
और २००६ में ‘ऑफसाइड’ को
बर्लिन का ‘सिल्वर बेअर’ सम्मान दिए
गए.इनके बाद भी उन्हें कई पुरस्कार हासिल हुए हैं.
पनाही कहते हैं कि मैं राजनीतिक आदमी नहीं हूँ,समाजी मसलों में दिलचस्पी रखने वाला इंसान
हूँ.किसी भी शख्स को लीजिए – आप पाएंगे कि उसके हालात उसके
परिवार,उसकी शिक्षा और उसकी आर्थिक दशा के कारण हैं.मैं
इंसानियत और उसकी जद्दो-जहद की फ़िल्में बनाता हूँ.जहां तक मेरे सिनेमा में इतालवी
नव-यथार्थवाद का सवाल है तो जो कुछ भी बहुत कलात्मक तरीके से समाज के सच को दिखाता
है वह अपना नव-यथार्थवाद खुद खोज लेगा.मेरी फिल्मों में इंसानी बर्ताव और
किस्सागोई मिले-जुले रहते हैं.सरकारी ज़ुल्मों को लेकर उनका छोटा-सा वक्तव्य है : “कोई भी निजाम मुस्तकिल तो होता नहीं.मैं इंतज़ार कर सकता हूँ”.
दुर्भाग्य यह है कि पनाही अकेले ईरानी फिल्मकार नहीं हैं जो
निजाम के बदलने का इंतज़ार कर रहे हैं.एक और निदेशक,मुहम्मद नूरीजाद, पिछले कोई चार महीनों से गिरफ्तार
हैं.ज़लावतन निदेशक दर्यूश शोकोफ़ हाल ही में जर्मनी में रहस्यमय ढंग से लापता हो
गए हैं.खुद अब्बास किआरुस्तमी की सारी फ़िल्में ईरान में प्रतिबंधित हैं.इनके
अलावा पिता-पुत्री मोहसिन और समीरा मखमलबाफ,अमीर नादिरी,दर्यूश मेह्र्जुई,बहराम बेईजाई,रख्शान बनी-एतमाद आदि मशहूर-ओ-मारूफ सिनेकारों पर ईरान में फ़िल्में बनाने
या दिखाने पर सख्त रोक लगी हुई है.इनकी फ़िल्में आयतुल्लाहों और हुक्मरान को रास
नहीं आतीं.वैसे सार्थक सिनेमा इतना सशक्त जन-माध्यम है कि उस पर हर धर्म और हर
सरकार की शनि-दृष्टि रहती ही है.
मिलीभगत हो,कायरता
हो या खालिस जहालत,ईरान के सिनेमाकारों के संकट को हम भारतीय
नहीं जानते-स्वीकारते.कुछ महीनों पहले एक वजीह लेखक-पटकथाकार ईरान की मेहमाननवाजी
से इस क़दर निहाल थे कि उन्होंने लौटकर फतवा दिया कि वहाँ सब-कुछ बढ़िया चल रहा
है.हाल में एक प्रबुद्ध दैनिक के बहुपाठी फिल्म-समीक्षक ने एलान किया कि शिया
मुल्क होने के बावजूद ईरान में उम्दा फ़िल्में बन रही हैं.इधर हिंदी-पट्टी में कुछ
घुमंतू स्वयम्भू “फिल्म-समारोह-निदेशक” कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो अपने फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी
पाइरेटेड चिंदी सीडिओं के बल पर निरीह दर्शकों को बहका कर कस्बाई सिने-बजाज बने
कमा-खा रहे हैं.उनसे आप कभी समसामयिक विश्व-सिनेमा की उम्मीद नहीं कर सकते.आज जब
डीवीडी और उनके प्लेयर इतने सस्ते हो चुके हैं और एक-दो प्रबुद्ध टीवी चैनलें भी
हैं जो दिन-भर बेहतर सिनेमा दिखा रही हैं,हम जफर पनाही ही
नहीं,संसार-भर के उन जैसे फिल्मकारों के साथ अपनी एकात्मता
कम-से-कम इस तरह तो व्यक्त कर सकते हैं कि यथासंभव उनकी श्रेष्ठ फ़िल्में देखें और
खुद को बेहतर,जुझारू इंसान बनाने की कोशिश करें.
(कादम्बिनी के जुलाई,2010. अंक से साभार)
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