Tuesday, June 25, 2013

सच्ची वास्तविक मित्रता क्या है?


तुम्हारा जो यह प्रश्न है, वह बड़ा जटिल है। इससे पहले कि तुम यह समझ सको कि सच्ची प्रामाणिक मित्रता क्या है, तुम्हें कुछ अन्य चीजें समझनी होंगी।

सबसे पहले है मित्रता। मित्रता वह प्रेम है जो बिना जैविक कारणों से होता है। यह  वैसी मित्रता नहीं है जैसा कि तुम सामान्य रूप से समझते हो--प्रेमी या प्रेमिका की तरह। यह जो शब्द--मित्रता है, उसे किसी भी तरह यौनाकर्षण से संयुक्त कर देखना निरी मूर्खता है। यह सम्मोहन और पागलपन है। जैविकता प्रजनन के लिए तुम्हारा उपयोग कर रही है।


 अगर तुम यह सोचते हो कि तुम प्रेम में हो, तो तुम गलती में हो, यह केवल हार्मोन का आकर्षण है। तुम्हारे शरीर का रसायन बदला जा सकता है और तुम्हारा प्रेम नदारद हो जाएगा। हार्मोंस का केवल एक इंजेशन, और पुरुष स्त्री बन सकता है और स्त्री पुरुष बन सकती है ।

मित्रता है बिना यौनाकर्षण का प्रेम। यह एक दुर्लभ घटना बन गई है। अतीत में यह महत्वपूर्ण घटना रही है, पर अतीत की कुछ महान अवधारणाएं बिलकुल खो गई हैं। यह बहुत आश्चर्यजनक है कि कुरूप चीजें हमेशा  जिद्दी होती हैं,वे आसानी से नहीं मरतीं; और सुंदर चीजें बहुत कोमल होती हैं, वे आसानी से मर जाती हैं और गुम हो जाती हैं।

आज कल मित्रता को केवल यौनाकर्षण के संबंध में या आर्थिक स्तर पर या सामाजिकता के तौर पर ही समझा जाता है, वह महज परिचय है या जान-पहचान है। मित्रता का मतलब है कि आवश्यकता पड़ने पर तुम स्वयं का बलिदान करने को भी तत्पर हो । मित्रता का मतलब है कि तुमने किसी अन्य व्यक्ति को स्वयं से ज्यादा महत्वपूर्ण माना। यह व्यापार नहीं है। यह अपने आप में पवित्र प्रेम है।

जिस तरह से तुम अभी हो, वैसे ही इस तरह की मित्रता संभव है। अचेतन व्यक्ति भी इस तरह की मित्रता रख सकते हैं। लेकिन जब तुम स्वयं के प्रति ज्यादा सजग होने लगते हो तब मित्रता मैत्री में बदलने लगती है। मैत्री का आशय ज्यादा व्यापक, ज्यादा बडा आकाश है। मैत्री के मुकाबले मित्रता छोटी चीज है। मित्रता टूट सकती है और मित्र शत्रु बन सकता है। मित्रता में इस तरह की स्थिति बदलने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

इस संबंध में मुझे मैक्यावली का स्मरण होता है, जिसने विश्व के राजकुमारों को मार्गदर्शन किया है उसकी महान किताब " दि प्रिन्स' में। उनमे से एक परामर्श यह था: ऐसी कोई बात अपने मित्र को मत बताओ जो कि तुम अपने शत्रु को नहीं बता सकते क्योंकि वह व्यक्ति जो आज मित्र है, कल शत्रु बन सकता है। और उन परामर्शों में से एक परामर्श यह भी था कि अपने शत्रु के संबंध में भी ऐसा मत बोलो, जो उसके विरोध में हो, क्योंकि शत्रु भी कल मित्र बन सकता है। तब तुम्हारे लिए स्थिति काफी अजीब होगी।

मैक्यावली की यह साफ अंतर्दृष्टि है कि हमारा साधारण प्रेम नफरत में बदल सकता है, हमारी मित्रता किसी भी क्षण शत्रुता में बदल सकती है। यह आदमी के मन की अचेतन दशा है, यहां प्रेम के पीछे नफरत छिपी होती है। यहां तुम उस व्यक्ति को भी घृणा करते हो, जिनसे तुम्हें प्रेम है; पर इसके प्रति अभी तुम्हारी सजगता नहीं है।

मैत्री केवल तब ही संभव बन सकती है जब तुम वास्तविक और प्रामाणिक होते हो और जब तुम स्वयं के प्रति पूर्ण रूप से सजग होते हो। और इस सजगता में से यदि प्रेम निकलता है तो वह मैत्री है। और यह जो मैत्री है वह कभी भी विपरीत में नहीं बदलती। ध्यान रहे, यह कसौटी है, जीवन के महानतम मूल्य है केवल वे ही हैं जो विपरीत में नहीं बदलते; सच तो यह है कि यहां कुछ भी विपरीत नहीं है।

तुमने पूछा है कि वास्तविक प्रामाणिक मैत्री क्या है? तुम मैत्री का स्वाद चख सको इसके लिए तुम्हारे अंदर महान रूपांतरण की आवश्यकता है। जैसे अभी तुम हो, उसमें तो मैत्री एक दूर का सितारा है। तुम दूर के सितारे को देख तो सकते हो, तुम इस संबंध में बौद्धिक समझ भी रख सकते हो, पर यह समझ केवल बौद्धिक समझ ही बनी रहेगी, यह कभी अस्तित्वगत स्वाद नहीं बन सकता।

जब तक तुम मैत्री  का अस्तित्वगत स्वाद न लो, तब तक यह बड़ा मुश्किल होगा, लगभग असंभव कि तुम मित्रता और मैत्री में अंतर कर सको। तुम ऐसा समझ सकते हो कि मैत्री प्रेम का सबसे पवित्र रूप है। यह इतना पवित्र है कि तुम इसे फूल भी नहीं कह सकते, तुम ऐसा कह सकते हो कि यह एक ऐसी सुगंध है जिसको केवल अनुभव किया जा सकता है, और महसूस किया जा सकता है। पर इसे तुम पकड़ नहीं सकते। यह मौजूद है, तुम्हारे नासापुट इसे महसूस कर सकते हैं, तुम चारों ओर इससे घिरे हुए हो, तुम इसकी तंरगें महसूस कर सकते हो पर इसको पकड़े रखे रहने का कोई मार्ग नहीं है; इसका अनुभव इतना बड़ा और व्यापक है, जिसके मुकाबले तुम्हारे हाथ इतने छोटे पड़ जाते हैं।

मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारा प्रश्न बड़ा जटिल है--ऐसा तुम्हारे प्रश्न के कारण नहीं, पर तुम्हारे कारण कहा था। अभी तुम ऐसे बिंदु पर नहीं हो जहां मैत्री एक अनुभव बन सके। स्वाभाविक और प्रामाणिक बनो, तब तुम प्रेम की सबसे विशुद्ध गुणवत्ता को जान सकते हो: प्रेम की एक सुगंध जो हमेशा चारों ओर से घेरे हो। और इस विशुद्ध प्रेम की गुणवत्ता मैत्री है। मित्रता किसी व्यक्ति से संबंधित होती है, कोई व्यक्ति तुम्हारा मित्र होता है।

एक बार किसी व्यक्ति ने गौतम बुद्ध से पूछा कि क्या बुद्धपुरुष के भी मित्र होते हैं? उन्होंने जवाब दिया: नहीं। प्रश्नकर्ता अचंभित रह गया, क्योंकि वह सोच रहा था कि जो व्यक्ति स्वयं बुद्ध हो चुका--उसके लिए सारा संसार मित्र होना चाहिए। चाहे तुम्हें यह जानकर धक्का लगा हो या न लगा हो, पर गौतम बुद्ध बिलकुल सही कह रहे हैं। जब वे कह रहे हैं कि बुद्धपुरुष के मित्र नहीं होते, तब वे कह रहे हैं कि उनका कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि उनका कोई शत्रु नहीं होता। ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं। हां, वे मैत्री रख सकते हैं, पर मित्रता नहीं।

मैत्री ऐसा प्रेम  है जो किसी अन्य से संबंधित या किसी अन्य को संबोधित नहीं है। न ही यह किसी तरह का लिखित या अलिखित समझौता है, न ही किसी व्यक्ति का व्यक्ति विशेष के प्रति प्रेम  है। यह व्यक्ति का समस्त अस्तित्व के प्रति प्रेम है, जिसमें मनुष्य केवल छोटा सा भाग है, क्योंकि इसमें पेड़ भी सम्मिलित हैं, इसमें पशु भी सम्मिलित हैं,नदियां भी सम्मिलित हैं, पहाड़ भी सम्मिलित हैं और तारे भी सम्मिलित हैं--मैत्री में प्रत्येक चीज सम्मिलित है।
मैत्री तुम्हारे स्वयं के सच्चे और प्रामाणिक होने का तरीका है। तुम्हारे अंदर से मैत्री की किरणें निकलने लगती हैं। यह अपने से होता है, इसको लाने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। जो कोई भी तुम्हारे संपर्क में आता है, वह इस मैत्री को महसूस कर सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारा कोई शत्रु नहीं होगा, पर जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम किसी के भी शत्रु नहीं होते, क्योंकि अब तुम किसी  के  मित्र भी नहीं हो। तुम्हारा शिखर, तुम्हारा जागरण, तुम्हारा आनंद, तुम्हारा मौन बहुतों को परेशान करेगा और बहुतों में जलन पैदा करेगा, यह सब होगा, और यह सब बिना तुम्हें समझे होगा।
   
वास्तव में बुद्धपुरुष के शत्रु ज्यादा होते हैं बजाय अज्ञानी के। साधारण जन के कुछ ही शत्रु होते हैं और कुछ ही मित्र। पर इसके विपरीत लगभग सारा विश्व ही बुद्धपुरुष के विरोध में दिखाई देता है, क्योंकि अंधे लोग किसी आंख वाले को क्षमा नहीं कर सकते। और अज्ञानी उसे माफ नहीं कर सकते जो ज्ञानी हैं। वे उस आदमी से प्रेम नहीं कर सकते जो आत्यंतिक कृतार्थता को उपलब्ध हो गया है क्योंकि उनके अहं को चोट लगती है।

अभी हाल ही में मुझे चार पत्र मिले, जो विभिन्न अमेरिकन कैदियों के थे। जिसमें चारों कैदियों ने संन्यास लेने की इच्छा प्रगट की थी।इनमें से एक अमेरिकन कैदी पहले से ही मेरी पुस्तकें पढ़ता रहा था। जब मैं एक दिन के लिए जेल में था, तब से ही जेल के अधिकारियों के साथ-साथ कैदी भी मुझमें इच्छुक होने लगे थे। इसलिए उन्होंने मेरी पुस्तकें मंगवायी होंगी।

कैदी वे पुस्तकें पढ़ने लगा। हालांकि वह अमेरिकन था, जो उस जेल में पांच साल से था--उसने मुझे लिखा: "ओशो, आपकी पुस्तकें पढ़ते हुए, आपको टेलीविजन पर बोलते हुए देखना बहुत ही आंनद का अनुभव रहा है, और जब आप एक दिन के लिए जेल में थे, तब मैं भी उसी जेल में था और मैं उस दिन को कभी नहीं भूल सकता, जिस दिन मैं आपके साथ एक ही बैरक में था; वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन बन गया। तब से ही मैं अपने  भीतर बहुत कुछ ऐसा लेकर चल रहां हूं जो आपके सामने व्यक्त करना चाहता हूं:आपने कोई अपराध नहीं किया और जिस क्षण मैंने आपको देखा तब से ही इस बात के लिए मैं पूरी तरह से आश्वस्त रहा हूं। पर ऐसा लगता है कि बिलकुल निर्दोष होना ही सबसे भंयकर अपराध है। क्योंकि जिस तरह से पूरे देश में आपको रेडियो और टेलीविजन पर बोलते हुए सब सुनने लगे थे और आपकी पुस्तकें पढ़ने लगे थे तब ऐसा लगने लगा कि आप पूरे अमेरिका में उसके राष्ट्रपति से भी अधिक महत्वपूर्ण बन गए हैं और इसी कारण से वे आपका कम्यून नष्ट करने को प्रेरित हुए और आपको बंदी बनाया, सिर्फ आपको अपमानित करने के लिए ।'

मैं यह जानकर आश्चर्यचकित रह गया कि किसी कैदी के पास भी इस तरह की अंतर्दृष्टि है।
वह यह कह रहा है कि आप जैसे व्यक्ति को निंदित किया जाना नियति है, क्योंकि आपके जैसे चैतन्य और शिखर पर पहुंचे व्यक्ति के सामने, कुछ महान और ताकतवर व्यक्ति भी बौने दिखाई देते है। यह आपकी गलती है--वह कह रहा है। अगर आप इतने सफल नहीं होते तो आपको अनदेखा किया जा सकता था और अगर आपका कम्यून इतना सफल नही होता तो कोई भी आपकी परवाह नहीं करता।

बुद्धपुरुष का कोई मित्र नहीं होता, कोई शत्रु नहीं होता, केवल शुद्ध प्रेम होता है, जो किसी एक से संबंधित नहीं होता। और वह यह प्रेम हर उस हृदय में उंड़ेलने  लगता है, जो उपलब्ध है। यही प्रामाणिक मैत्री है।

पर इस तरह का व्यक्ति बहुत से  अहंकारों को चोट पहुंचाएगा, उन्हें आहत करेगा जो सोचते हैं कि वे बहुत ताकतवर और महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। इनमें हर वह व्यक्ति जिनमें बहुत से राष्टपति, प्रधानमंत्री, राजा और रानियों जैसे ताकतवर और महत्वपूर्ण व्यक्ति भी होंगे, वे तुरंत चिंतित और परेशान होंगे। कैसे एक साधारण व्यक्ति जिसके पास किसी भी तरह की ताकत नहीं है, अचानक ही लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया, उन व्यक्तियों से भी ज्यादा जिनके पास पद-प्रतिष्ठा और पैसा है। इस तरह के व्यक्ति को क्षमा नहीं किया जा सकता। उसे दंडित किया ही जाना चाहिए--चाहे उसने कोई अपराध किया हो अथवा नहीं। बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति से कोई अपराध नहीं होता--यह बिलकुल असंभव है। लेकिन निर्दोष होना, मैत्रीपूर्ण होना, अकारण सबके प्रति प्रेम का भाव रखना और स्वयं होना ही बहुत व्यक्तियों के अहं को आपके प्रति उकसाने के लिए प्रर्याप्त है।

तो जब मैं कहता हूं कि बुद्धपुरुष के शत्रु नहीं होते, तो मेरा मतलब है कि उसकी ओर से उसका कोई शत्रु नहीं। पर दूसरी ओर से, जितनी उसकी ऊंचाई होगी उतनी ज्यादा लोगों की शत्रुता होगी, उतना ज्यादा द्वेष होगा, उतनी ज्यादा निंदा होगी। ऐसा सदियों से होता रहा है।

अभी निर्वाणो मुझे कह रही थी कि जिस दिन मुझे चालीस लाख डालर का दंड किया गया, लगभग आधे करोड़ रुपयों से भी ज्यादा, और यह भलीभांति जानते हुए कि मेरे पास एक पैसा भी नहीं है... निर्वाणो को अपने पक्ष में काम कर रहे वकील ने कहा-उन्होंने फिर ऐसा किया। उसने पूछा, " यह तुम क्या कह रहे हो? और उसने कहा: हां, उन्होंने दुबारा ऐसा किया। उन्होंने फिर जीसस को सूली पर लटकाया, उन्होने दुबारा उसे दंडित किया जो बिलकुल ही निर्दोष है, पर उसकी निर्दोषता से उनके अहं को चोट पहुंचती है।

केवल बौद्धिक समझ ही पर्याप्त नहीं होगी, हां, थोड़ी बहुत बौद्धिक समझ ठीक है, क्योंकि   इससे तुम्हें अस्तित्वगत अनुभव मिलेगा। लेकिन तुम्हें प्रेम की उस अपरिसीम मिठास, सौंदर्य, भगवत्ता और सत्य का पूर्ण स्वाद केवल अनुभव से ही मिलेगा।

- ओशो 

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