भारतीय समाज में सिनेमा
जवरीमल्ल
पारख
भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र
जिसका निर्माण और निर्देशन दादा साहब
फालके
ने किया था, उसका सार्वजनिक
प्रदर्शन तीन मई, 1913 को हुआ था। यह मूक फिल्म थी और एक लोकप्रिय हिंदू पौराणिक
कथा पर आधारित थी। 1912-13 से लेकर 1930 तक बनने वाली 1300 से अधिक फिल्में मूक फिल्में थीं। 1931 में आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली सवाक
फिल्म आलम आरा का प्रदर्शन किया। उसी
साल
तमिल की पहली सवाक फिल्म कालिदास और तेलुगु की सवाक फिल्म भक्त प्रह्लाद का प्रदर्शन किया गया। न्यू
थिएटर्स ने बंगला में चंडीदास फिल्म
का
निर्माण 1932 में किया था। इसके
बाद भारत की कई भाषाओं में सवाक फिल्मों के
निर्माण की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो गई। मूक फिल्मों के पूरे दौर में अधिकतर फिल्में या तो पौराणिक या
धार्मिक या ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित
होती
थीं। कुछ फिल्में अरब, यूरोप आदि की
लोकप्रिय कहानियों पर भी बनी थीं। लेकिन सामाजिक विषयों
पर फिल्मों का निर्माण बहुत ही कम हुआ। मूक सिनेमा में ही बाबूराव पेंटर जैसे फिल्मकार उभर
चुके थे, जिनके लिए सिनेमा
सिर्फ मनोरंजन का माध्यम
नहीं था बल्कि वह सामाजिक संदेश देने का माध्यम भी था। 1930 और 1940 के दशक में मराठी और हिंदुस्तानी
फिल्मों को ऊंचाइयों की ओर ले जाने वाले एस.
फत्तेलाल, विष्णुपंत दामले और
वी. शांताराम इन्हीं बाबूराव पेंटर की देन
थे। भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की शुरुआत का श्रेय बाबूराव पेंटर को जाता है।
इसके बावजूद यह कहना सही नहीं होगा कि भारतीय
सिनेमा ने यथार्थवाद को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति
का आधार बनाया था। इसके विपरीत सिनेमा ने अपना संबंध 19वीं सदी के उत्तरार्ध में उभरे लोकप्रिय
रंगमंच पारसी थियेटर से जोड़ा। लोकप्रिय रंगमंच की
यह परंपरा पश्चिम की प्रोसेनियम परंपरा और भारतीय लोक रंग परंपरा का मिश्रण था। रंगमंच और
रंगशाला की बनावट काफी हद तक पश्चिम के अनुकरण
पर आधारित होती थी लेकिन जो नाटक खेले गए और नाटकों को जिस तरह मंच पर पेश किया गया, उस पर भारतीय लोक परंपरा का प्रभाव
ज्यादा था। पौराणिक, ऐतिहासिक, रहस्य-रोमांच और जादुई चमत्कारों से भरपूर
काल्पनिक कथाओं को पेश करने के साथ-साथ
उनमें नृत्य, गीत और संगीत का
समावेश किया जाना भारतीय लोक परंपरा के अनुरूप
था।
पारसी
थियेटर की भूमिका
पारसी थियेटर ने आमतौर पर ऐसे ही नाटक खेले जो
जनता के व्यापक हिस्से के बीच लोकप्रिय हो सकते थे, समाज के किसी भी हिस्से की भावनाओं को
आहत किये बिना उनका मनोरंजन कर सकते
थे। लेकिन वे यह सावधानी जरूर रखते थे कि उन्हें अपने नाटकों के कारण तत्कालीन ब्रिटिश सरकार
के राजनीतिक कोपभाजन का शिकार न होना पड़े। इसने काफी
हद तक नाटकों की अंतर्वस्तु को सीमित कर दिया। धार्मिक, पौराणिक और काल्पनिक कथाओं की भरमार जो
पारसी थियेटर में दिखाई देती है उसके पीछे यह
सोच ही काम कर रही थी। इसके बावजूद यह कहना उचित नहीं है कि पारसी थियेटर ने किसी तरह की
सकारात्मक भूमिका नहीं निभायी। इसके
विपरीत
पारसी थियेटर ने धार्मिक और पौराणिक कथानकों को पेश करते हुए भी धार्मिक संकीर्णता या धार्मिक विद्वेष
की भावनाओं से बचने की कोशिश की। उनके नाटकों से उदार
और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण ही व्यक्त हुआ। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रत्यक्ष और
परोक्ष रूप से बढ़ावा दिया। आगा हश्र
कश्मीरी
(1879-1935) का नाटक ‘यहूदी’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जिस पर कई बार फिल्में बनीं और बिमल राय ने भी इस
नाटक पर फिल्म बनाना जरूरी समझा।
पारसी थियेटर ने
हिंदी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोलचाल की एक ऐसी भाषा की परंपरा स्थापित की जो हिंदी और
उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और
जिसे
बाद में हिंदुस्तानी के नाम से जाना गया। यह भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में
विकसित हुई थी। हिंदी सिनेमा ने आरंभ से ही भाषा के
इसी रूप को अपनाया। इस भाषा ने ही हिंदी सिनेमा को गैर हिंदी भाषी दर्शकों के बीच भी लोकप्रिय
बनाया। यह द्रष्टव्य है कि भाषा का
यह
आदर्श उस दौर में न हिंदी वालों ने अपनाया और न ही उर्दू वालों ने। साहित्य की दुनिया में इसे प्रेमचंद ने
ही न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इस भाषा का रचनात्मक और
कलात्मक परिष्कार भी किया। बाद में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन ने भाषा के इस आदर्श
को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया और
उसका
विकास भी किया। लेकिन यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि हिंदी-उर्दू सिनेमा का भाषायी आदर्श इसी पारसी
थियेटर की परंपरा का विस्तार था और इसी वजह
से जिसे आज हिंदी सिनेमा के नाम से जाना जाता है उसे दरअसल हिंदुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना चाहिए।
1912-13 से भारत की विभिन्न भाषाओं में कथा
फिल्मों का जो निर्माण शुरू हुआ, इन सौ सालों में एक बहुत बड़ा उद्योग बन
चुका है। प्रत्येक वर्ष भारत में पचीस से अधिक
भाषाओं में औसतन 1100 से अधिक फिल्मों का
निर्माण होता है। यह संख्या
हॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों से लगभग 40 प्रतिशत
ज्यादा है। फिल्म उद्योग में
प्रति वर्ष बीस हजार करोड़ का व्यवसाय होता है। लगभग 20 लाख लोगों का रोजगार इस उद्योग पर
निर्भर है। हिंदी फिल्में कुल बनने
वाली
फिल्मों के एक तिहाई से अधिक नहीं होती लेकिन व्यवसाय में उनकी भागीदारी लगभग दो तिहाई है। वैसे तो
भारतीय (विशेषत: हिंदी) फिल्में चौथे-पांचवे दशक से
ही भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी देखी जाती थीं, खासतौर पर अफ्रीका के उन देशों में जहां भारतीय
बड़ी संख्या में काम के सिलसिले में जाकर बस गए थे।
लेकिन पिछले दो दशकों में भारतीय फिल्मों ने अमेरिका, यूरोप और एशिया के दूसरे क्षेत्रों में
भी अपना बाजार का विस्तार किया है।
यह
भी गौरतलब है कि भारत में अब भी हॉलीवुड की फिल्मों की हिस्सेदारी चार प्रतिशत ही है जबकि यूरोप, जापान और दक्षिण अमरीकी देशों में यह
हिस्सा कम-से-कम चालीस
प्रतिशत है। भारत की कथा फिल्मों ने कहानी कहने की जो शैली विकसित की और जिसे प्राय: बाजारू, अरचनात्मक और अकलात्मक कहकर तिरस्कृत किया जाता रहा उसी ने भारतीय फिल्मों को
हॉलीवुड के वर्चस्व में जाने से बचाये रखा।
बदलाव
की शुरूआत
कुछ अपवादों को
छोड़कर अधिकतर मूक फिल्मों को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता था कि भारत में देश की आजादी का
संघर्ष चल रहा है। फिल्म माध्यम की
शक्ति
को तो रवींद्रनाथ, प्रेमचंद आदि आरंभ
में ही पहचान गए थे, इसके बावजूद यह मुमकिन नहीं हो पा रहा था कि
साहित्य की तरह सिनेमा के द्वारा भी
लोगों
को राजनीतिक और सामाजिक रूप से जागरूक बनाया जा सकता है। लेकिन सवाक फिल्मों की शुरुआत के साथ बदलाव के
संकेत दिखने लगे थे। फिल्मों में जो
नयी
पीढ़ी आ रही थी, वह सामाजिक और
राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक थी। 1930 के
दशक में वी. शांताराम, एस. फत्तेलाल, वी. दामले, बाबूराव पेंढेरकर, नितिन बोस, देवकी बोस, पी.सी.बरुआ, ज्योतिप्रसाद अगरवाला, अमिय चक्रवर्ती, धीरेंद्र नाथ गांगुली, सोहराब मोदी, हिमांशु राय, ज्ञान मुखर्जी, अमिय चक्रवर्ती, गजानन जागीरदार, पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान, ख्वाजा अहमद अब्बास, बी.एन. रेड्डी, एच. एम. रेड्डी, केदार शर्मा, जिया सरहदी, के. सुब्रह्मण्यम, आदि कई फिल्मकार उभर कर आये। 1930 तक आते-आते आजादी का संघर्ष जनता के व्यापक हिस्सों तक पहुंच
गया था। गांधी-नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस व्यापक
जन आंदोलनों की तरफ बढ़ रही थी,
तो
दूसरी तरफ रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि सैंकड़ों युवा देश को आजाद कराने के लिए
क्रांतिकारी मार्ग अपना रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी
की स्थापना हो चुकी थी और प्रतिबंध के बावजूद उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ रहा था। अब आजादी का आंदोलन सिर्फ
मध्यवर्ग तक सीमित नहीं था। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, विद्यार्थियों और युवाओं की समस्याएं भी राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन रही थीं।
ऐसे में यह मुमकिन नहीं था कि फिल्मों पर इसका असर
न हो।
औपनिवेशिक राजसत्ता
की अधीनता और सेंसर बोर्ड के नियंत्रण के कारण फिल्मकार खुलकर राजनीतिक जागरूकता वाली
फिल्में नहीं बना सकते थे। इसलिए उन्होंने अपनी
राष्ट्रीय और जनोन्मुखी भावनाओं को सांकेतिक रूप में व्यक्त करने की कोशिश की। सवाक फिल्मों के इस
आरंभिक दौर की फिल्मों को तीन श्रेणियों में
विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी उन फिल्मों की है जिनमें किसी मध्ययुगीन संत या शासक के
जीवन को पेश किया गया था। दूसरी श्रेणी उन फिल्मों की
है जो किसी-न-किसी सामाजिक समस्या से प्रेरित थीं। इन दोनों तरह की फिल्मों का मकसद सिर्फ
मनोरंजन नहीं था। इनके अलावा अधिकतर
फिल्में
वे थीं जो मनोरंजन के लिए बनायी गई थीं और पैसा बनाना ही जिनका मकसद था। पहली श्रेणी की फिल्मों का
मकसद भारत के मध्ययुग की गौरवपूर्ण
तस्वीर
पेश करना था। अंग्रेजी राजसत्ता के अंतर्गत औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीय मध्ययुग का इतिहास जिस रूप
में निर्मित किया था, ये फिल्में उससे भिन्न ढंग का इतिहास रच रही थीं।
राष्ट्रवादी प्रभाव इन पर भी था,
लेकिन वे मध्ययुग को अंधकार युग के रूप में
पेश नहीं कर रहे थे जैसाकि औपनिवेशिक
इतिहासकार
कर रहे थे। इस दौर के शासकों पर बनी फिल्मों का मकसद उनकी वीरता और अपराजेयता का गुणगान करना नहीं वरन
समानता और सहिष्णुता की भावना पर आधारित एक न्यायकारी
व्यवस्था पर बल देना था। महत्त्वपूर्ण यह है कि हुमायूं, अकबर, शाहजहां आदि मुगल शासकों को वे विदेशी
शासकों के रूप में नहीं वरन भारतीय
शासकों के रूप में ही पेश कर रहे थे। चंडीदास, विद्यापति, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, मीरा, संत पोतना आदि पर बनी फिल्मों का मकसद धर्म का प्रचार करना नहीं था बल्कि
धार्मिक कट्टरता और रूढि़वाद के विरुद्ध धार्मिक
सहिष्णुता, जाति और धर्म की
संकीर्णता से ऊपर उठकर मानवीय एकता और
भाईचारे
की भावना पर बल देना था। निश्चय ही 1930 से
पहले की पौराणिक फिल्मों से भिन्न यह
महत्त्वपूर्ण बदलाव था और इस दृष्टि से यह प्रगतिशील कदम भी था।
सामाजिक
समस्याओं की अभिव्यक्ति
इस दौर में सामाजिक
समस्याओं पर भी कई फिल्में बनीं,
जिनका
मूक सिनेमा के दौर में लगभग अभाव
था। अछूत समस्या, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति आदि समस्याओं पर साहसपूर्ण
फिल्में बनायी गईं। किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों आदि के जीवन की समस्याओं को
भी फिल्मों का विषय बनाया। पहली बार
साहित्य की कई रचनाओं का फिल्मांतरण किया गया। रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, प्रेमचंद आदि लेखकों की रचनाओं पर
फिल्में बनीं। प्रेमचंद के उपन्यास पर 1938 में
तमिल में सेवासदन के नाम से फिल्म बनायी गई। हिंदी और उर्दू के कई लेखक फिल्मों से जुड़े। यह भी उल्लेखनीय
है कि मराठी और बांग्ला में बनने वाली बहुत सी फिल्में
साथ ही साथ हिंदी में भी बनती थीं। यहां तक कि 1945 में तमिल में बनी मीरा फिल्म को साथ ही
साथ हिंदी में भी बनाया गया था। इसी
दौर
में कई ऐसे फिल्मकार भी सामने आये जिन्होंने सामाजिक समस्याओं पर फिल्म बनाना ही अपना लक्ष्य बनाया। 1930 के दशक में होने वाले इन परिवर्तनों ने ही कई गंभीर लेखकों को
फिल्मों के लिए लिखने को प्रेरित किया। हिंदी-उर्दू के
महान लेखक प्रेमचंद 1934 में इस आशा से मुंबई
पहुंचे थे कि वे स्वतंत्र
लेखन और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन द्वारा जिन आर्थिक दुश्वारियों में फंसे रहते हैं, उन्हें उससे कुछ हद तक मुक्ति मिलेगी। उन्होंने मुंबई में रहकर मोहन भवनानी की
फिल्म मजदूर की पटकथा लिखी। लेकिन फिल्मों का यह अनुभव
प्रेमचंद को ज्यादा रास नहीं आया। प्रेमचंद ने थोड़े समय में ही फिल्मी दुनिया की बुनियादी
कमजोरियों को पहचान लिया था। बलराज
साहनी
सहित कई अन्य लेखकों का अनुभव भी फिल्मी दुनिया के बारे में इससे कुछ अलग नहीं था। प्रेमचंद के इन कटु
अनुभवों के बावजूद फिल्मों से साहित्यकारों के
जुडऩे का सिलसिला लगातार चलता रहा। जिस वजह से प्रेमचंद फिल्मों से जुड़े थे, वह वजह लेखकों को फिल्मों की तरफ आकृष्ट
करती रही लेकिन सिर्फ यही कारण
नहीं था। इस माध्यम में निहित रचनात्मक संभावना और व्यापक समुदाय तक पहुंचने की क्षमता ने
भी लेखकों को इसकी ओर खींचा। दृश्य
माध्यम
होने के कारण सिनेमा उन लोगों तक भी पहुंच सकता था जो पढऩा-लिखना नहीं जानते थे। लेकिन इस माध्यम के साथ
कठिनाई यह थी कि इसका निर्माण और प्रदर्शन साहित्य
लेखन और उसके प्रकाशन की तुलना में कहीं ज्यादा महंगा था। यहां तक कि नाटकों की तुलना में भी यह
बहुत महंगा था। फिल्म बनाने के लिए
जितने
निवेश की जरूरत थी, उसका प्रबंध करना आसान
नहीं था।ऐसी स्थिति में यह बहुत जरूरी था कि
फिल्मकार मनोरंजक फिल्म के जरिए ही उन संदेशों को अभिव्यक्त करने का रास्ता भी ढूंढे
जिन्हें साहित्य अपने ढंग से अभिव्यक्त कर
रहा था।
वामपंथ
का उदय और इप्टा का योगदान
1930 के बाद के दौर में राजनीति में ही नहीं
साहित्य में भी परिवर्तन हो रहा था। समाज सुधार
और देशभक्ति की जिन भावनाओं को साहित्य अभिव्यक्ति दे रहा था, उसे वामपंथ के उदय ने एक ठोस वैचारिक
आधार प्रदान किया। अब तक मुक्ति की इच्छा बहुत
कुछ अमूर्त रूप में ही व्यक्त हो रही थी। राजनीतिक मुक्ति के बाद का भारत कैसा होगा, यह अभी न राजनीति का और न साहित्य रचना का ठोस मुद्दा बना था। लेकिन जनता की
बढ़ती भागीदारी के साथ ये प्रश्न भी
आकार
लेने लगे थे और साहित्य में भी इन्हें विषय बनाया जाने लगा था। 1917 की बोल्शेविक क्रांति और उसके बाद की
विश्व घटनाओं का असर भारत पर भी पडऩा
स्वाभाविक
था। क्रांति के बाद सोवियत संघ जिस तरह के बदलाव के दौर से गुजर रहा था, उसकी ओर भी भारत जैसे देश उत्सुकता से
देख रहे थे। भारतीय लेखकों के वामपंथ की ओर
बढ़ते झुकाव ने ही 1936 में प्रगतिशील लेखक
संघ की स्थापना के लिए पृष्ठभूमि
तैयार की थी। प्रगतिशील लेखक संघ लेखकों का एक ऐसा व्यापक संगठन था जिसमें उन सब लेखकों के
लिए गुंजाइश थी जो स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में
विश्वास करते थे और जो किसी भी तरह के शोषण और
उत्पीडऩ का विरोध करना अपना कर्तव्य समझते थे।यह संगठन किसी भाषा विशेष या क्षेत्र विशेष तक
सीमित नहीं था। भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं के
लेखक इससे जुड़े थे। अगले कुछ सालों में देश के हर हिस्से में लेखक संगठन की गतिविधियों का
विस्तार हुआ। यह विस्तार सिर्फ लेखकों तक सीमित
नहीं था बल्कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों में भी इसका असर देखा जा सकता था। संगठन के इसी विस्तार ने
नाटकों के मंचन के लिए एक सहयोगी संगठन बनाने
की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। 1943
में
मुंबई में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की
स्थापना की गई। इप्टा की गतिविधियों का भी विस्तार हुआ और कई लेखक और रंगकर्मी इप्टा की
गतिविधियों से जुड़ते चले गए थे। इन
गतिविधियों
के विस्तार के साथ ही इप्टा के संस्कृतिकर्मियों ने महसूस किया कि इप्टा को फिल्म निर्माण की ओर भी
गतिशील होना चाहिए।
इप्टा के साथ बहुत
गहरे रूप से जुड़े उर्दू के कथाकार ख्वाजा अहमद अब्बास 1940-41 से फिल्मों से भी जुड़े थे। वे पहले से
ही पत्रकार के रूप में फिल्मों की
समीक्षा लिखते रहे थे और उन्होंने 1941
में
बांबे टॉकीज की फिल्म नया संसार के
लिए ज्ञान मुखर्जी के साथ मिलकर पटकथा लिखी थी। इसी तरह उर्दू के प्रख्यात कथाकार सआदत हसन मंटो
ने 1937 में किसान कन्या फिल्म
की पटकथा और संवाद लिखे
थे। पृथ्वीराज कपूर जो 1929 से फिल्मों में अभिनय
कर रहे थे और जिन्होंने
पहली सवाक फिल्म आलमआरा में भी काम किया था, अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए 1944 में पृथ्वी थियेटर्स के नाम से नाटकों के मंचन की संस्था बनायी। पृथ्वी थियेटर्स
के साथ इप्टा के भी कलाकार जुड़े थे। उन्होंने
पठान, किसान, गद्दार, दीवार आदि कई नाटक खेले जो काफी प्रसिद्ध हुए इस तरह के कई संगठन देश के
और क्षेत्रों में भी काम कर रहे थे।
इप्टा के अपने प्रयत्नों से 1946 में धरती के लाल फिल्म का निर्माण हुआ।
इसी साल इप्टा से जुड़े चेतन
आनंद ने इप्टा के सहयोग से ही नीचा नगर फिल्म बनायी। यह फिल्म उसी साल केन्स फिल्म समारोह
में दिखाई गई और उसे दो अन्य फिल्मों
के
साथ सर्वोत्तम फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। विश्व के किसी भी समारोह में पुरस्कृत होने वाली यह पहली भारतीय
फिल्म थी। इसके अतिरिक्त इसी साल प्रदर्शित होने वाली
वी. शांताराम की फिल्म डॉ. कोटनीस की अमर कहानी में भी इप्टा से जुड़े कलाकारों का सहयोग था।
हिंदी सिनेमा की प्रगतिशील और यथार्थवादी धारा से
इन फिल्मों का बहुत गहरा संबंध है। इन फिल्मों से पहले भी कई फिल्में किसानों और मजदूरों की
समस्याओं पर और समाज में व्याप्त वर्ग
विभाजन
पर बन चुकी थीं। लेकिन स्पष्ट राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के साथ बनने वाली पहली फिल्में धरती के लाल और नीचा
नगर ही थीं। इस दृष्टि से इन दोनों
फिल्मों
का ऐतिहासिक महत्त्व है। दोनों फिल्मों पर पश्चिम के यथार्थवाद का असर साफतौर पर देखा जा सकता है। लेकिन
ये फिल्में उनका अनुकरण नहीं हैं। इसके विपरीत भारत की
लोकनाट्य परंपरा के अनुरूप इनमें नृत्य और गीतों का सहारा भी लिया गया है। कुछ हद तक
फिल्मों की मेलोड्रामाई शैली को इन
फिल्मकारों
ने भी अपनाया।
बदले हुए दौर में
प्रगतिशील
आजादी के बाद की बदली
परिस्थितियों ने फिल्म क्षेत्र में इप्टा की संगठित भूमिका को हमेशा के लिए खत्म कर
दिया। लेकिन इस दौरान जो लेखक और कलाकार प्रलेस और इप्टा
से जुड़े थे, उनमें से कइयों ने
सिनेमा को आजीविका का ऐसा क्षेत्र मानकर
अपनाना शुरू कर दिया जहां कुछ हद तक उनकी रचनात्मक जरूरतें भी पूरी होने की उम्मीद थी।
इप्टा से जुड़े ऐसे लेखकों और कलाकारों की
लंबी सूची है जिन्होंने फिल्मों से अपने को जोड़ लिया। प्रगतिशील सोच के लेखकों और कलाकारों के फिल्मों में
जाने ने फिल्मों पर क्या असर डाला इसका विवेचन होना
बाकी है। क्या ये लोग फिल्मों के व्यावसायिक रंग में पूरी तरह डूब गए और प्रगतिशीलता की उस परंपरा
से पूरी तरह नाता तोड़ लिया था जिसने उनके अंदर के
लेखक और कलाकार का निर्माण किया था और उसे संवारा था, या इन्होंने अपनी वैचारिक, रचनात्मक और कलात्मक परंपराओं से
फिल्मों को भी प्रभावित किया। 1950-60 का दौर जिसे भारतीय
सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जाता है, क्या यह इन प्रगतिशील लेखकों और
कलाकारों की भागीदारी के बिना मुमकिन
हो
पाता? इस दौर की हिंदी, बांग्ला, मराठी, असमिया, तमिल, मलयालम आदि भाषाओं की उल्लेखनीय फिल्मों से ही यह
जाना जा सकता है कि इप्टा के कलाकारों ने सिनेमा
को किस हद तक प्रभावित किया होगा। इन फिल्मों से इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों
और कलाकारों ने काम किया था। इस पूरे दौर में वी.
शांताराम, मेहबूब खान, ख्वाजा अहमद अब्बास, बिमल रॉय, राजकपूर, गुरुदत्त, के. बालांचदर, ऋषिकेश मुखर्जी, जिया सरहदी, मोहन सहगल, रमेश सहगल, चेतन आनंद, कमाल अमरोही, आदि कई फिल्मकारों ने सामाजिक दृष्टि से सोद्देश्यपूर्ण और कलात्मक दृष्टि से
उत्कृष्ट फिल्मों का निर्माण किया।
इस
दौर के फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि फिल्मों द्वारा जो संदेश वे दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, उन्हें लोकप्रिय ढंग से पहुंचाया जाए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद और पहले से
चली आ रही मेलोड्रामाई शैली का संयोजन किया।
उन्होंने फिल्म की भाषा, गीत, संगीत और संवादों पर भी खास ध्यान दिया। इसके लिए उन्होंने
शास्त्रीय और लोक परंपराओं का मिश्रण किया। इस
बात का ध्यान रखा कि भारत एक बहुसांस्कृतिक और बहु भाषायी देश है इसलिए उन्होंने भारत की विभिन्न जातीय और
सांस्कृतिक परंपराओं को अपनी फिल्मों
में
समाहित करने का प्रयास किया। यह अवश्य है कि साठ के दशक के बाद सिनेमा की यह परंपरा कमजोर होने लगी और
व्यावसायिकता और सतही लोकप्रियता फिल्मों पर
हावी होने लगी। इसी ने संभवत: नए फिल्मकारों को प्रेरित किया होगा कि वे पूरी तरह से सिनेमा की लोकप्रिय शैली का
त्याग करें और एक नया मार्ग अपनाएं। यह और बात है
कि नब्बे के दशक तक आते-आते न्यू वेव सिनेमा की यह परंपरा भी कई बाहरी और अंदरूनी कारणों
से लुप्त हो गई। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा
सकता कि लोकप्रियता और कलात्मकता की बहसों में पड़े बिना सामाजिक सोद्देश्यता से परिपूर्ण
कलात्मक और साथ ही लोकरंजनकारी फिल्म
बनाने
की परंपरा आज भी पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है।
सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है। इसमें सब तरह के फिल्मकार
सक्रिय हैं। सिनेमा को साहित्य की तरह कला मानने वाले फिल्मकार भी हैं, तो ऐसे फिल्मकार
भी हैं जिनके लिए यह महज पैसा बनाने और
अमीर बनने का जरिया है। ऐसे लोगों
के लिए फिल्म न तो एक कला माध्यम है और
न ही वे यह मानते हैं कि मनोरंजन के
अलावा भी सिनेमा का कोई सामाजिक
उद्देश्य हो सकता है। सिनेमा यदि कला है
और यदि उसका कोई सामाजिक उद्देश्य है तो
यह मुमकिन नहीं है कि फिल्मकार
उसके रचनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर
विचार न करे। साहित्य की तरह सिनेमा भी
अपनी प्राणशक्ति समाज से ही प्राप्त
करता है। लोकप्रिय सिनेमा शुरू से ही
मूलगामी सिनेमा नहीं रहा। लेकिन इसने
लोकप्रियता के ढांचे में रहते हुए ही
उन जरूरी कार्यभारों को अंजाम देने की
कोशिश की जिससे कि धर्मनिरपेक्ष और
लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में देश को
बनाये रखने में मदद मिले। भारतीय
गणतंत्र की स्थापना के समय जो फिल्मकार
सक्रिय थे उन्होंने अपने-अपने ढंग
से न सिर्फ उस समय के यथार्थ को अपनी
फिल्मों का विषय बनाया है बल्कि उस
भविष्य की भी चिंता की है जो इस वर्तमान
से ही बनेगा। इसलिए वे अपनी
फिल्मों को ऐसे भारत के निर्माण में
हिस्सेदार बनाना चाहते थे जो काफी हद
तक उन्हीं आदर्शों और मूल्यों पर टिका
था जिनका उल्लेख भारतीय संविधान में
किया गया था और जिसका स्वरूप आजादी की
लड़ाई के दौरान बना था। इन्होंने कोई
क्रांतिकारी एजेंडा हाथ में नहीं लिया
था लेकिन इन फिल्मकारों को यह महसूस
हो रहा था कि समतावादी भारत के बनने में
भी कई मुश्किलें हैं जिनको दूर
करना जरूरी है। इनमें गरीबी, भुखमरी,
औरतों की आजादी, दलितों का उत्पीडऩ, मुनाफाखोरी और लोभ-लालच के लिए गैरकानूनी कामों में लिप्त रहना
और धार्मिक और सांप्रदायिक वैमनस्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है। भारतीय
सिनेमा ने आजादी के बाद के दो दशकों तक इन सभी सवालों को अपने खास अंदाज
में उठाया है। वे किसी एक समस्या को केंद्र में रखते हुए दूसरे मसलों को
भी मूल कथा से इस तरह जोड़ देते हैं कि वे उनसे अलग और पैबंद की तरह नजर न
आए। यहां तक कि इनमें से कुछ ने फिल्म रूढि़ का रूप ले लिया था। मसलन हिंदू
और मुसलमान या अन्य किसी धार्मिक अल्पसंख्यक की आत्मीय मित्रता। फिल्म की
कथा कोई भी क्यों न हो इसमें धार्मिक सहिष्णुता और सद्भाव को जरूर शामिल
किया जाता था। यथार्थवाद और मेलोड्रामाई शैली के कलात्मक संयोजन की यह परंपरा
1960 के बाद कमजोर हुई।
नई लहर
1960 के दशक तक सिनेमा में व्यावसायिकता और अव्यवसायिकता या
कलात्मकता और अकलात्मकता जैसा भेद नहीं था। इस भेद की शुरुआत खासतौर पर
उस न्यूवेव सिनेमा से हुई जिसने सजग रूप से फिल्मों की लोकप्रिय परंपरा से
अपने को अलगाने की कोशिश की। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल
सेन ने छठे दशक में और बाद में अदूर गोपालकृष्णन, जी. अरविंदन, एम. एस. सथ्यु,
श्याम बेनेगल, कुमार शहानी, मणि कौल,
सईद अख्तर मिर्जा, गिरीश कासरवल्ली आदि फिल्मकारों ने सचेत रूप से
फिल्मों में यथार्थवाद और नवयथार्थवाद की उन परंपराओं को अपनाया जो यूरोप में
पांचवें और छठे दशक में प्रतिष्ठित हुई थी। हॉलीवुड की अतिरंजनकारी शैली को
इन फिल्मकारों ने भी नहीं अपनाया। इस शैली का असर सिर्फ मनोरंजन के लिए
फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों पर ही अधिक दिखा जिन्होंने
मेलोड्रामाई शैली को हॉलीवुडीय शैली के साथ मिलाकर अपराध प्रधान फिल्मों का निर्माण किया था। इनमें से अधिकतर फिल्में फिल्म
इतिहास के कूड़ेदान में पहुंच चुकी हैं।
अपनी व्यापक पहुंच ने सिनेमा को भारत जैसे बहुभाषी और
बहुसांस्कृतिक परंपरा वाले देश के लोगों के लोकरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय
माध्यम बना दिया है। जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है भारत में पचीस से अधिक
भाषाओं में फिल्में बनती हैं जिनमें एक चौथाई फिल्में हिंदी की होती है
जिनके दर्शक सिर्फ हिंदी-उर्दूू क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। यहां यह
प्रश्न जरूर उठता है कि क्या बांग्ला,
तमिल, तेलुगु, मराठी आदि की तरह हिंदी सिनेमा भी क्षेत्रीय सिनेमा है? जब भी हिंदी सिनेमा की बात की जाती है तो हमारे सामने वह सिनेमा आता है जिसमें पात्रों की बातचीत हिंदी में होती है, लेकिन
जरूरी नहीं कि बात करने वाले पात्र भी
हिंदी भाषी भी हों। यह भी जरूरी नहीं
कि कहानी का संबंध हिंदी भाषी क्षेत्र
से हो और यह भी जरूरी नहीं कि उस
फिल्म का निर्माता, निर्देशक,
पटकथा लेखक, अभिनेता-अभिनेत्री, संगीतकार आदि
भी हिंदी भाषी हों। अगर हम किसी भी दौर
की महत्त्वपूर्ण हिंदी फिल्मों के
बारे में विचार करें चाहे वे लोकप्रिय
सिनेमा के अंतर्गत आती हों या
कलात्मक सिनेमा के अंतर्गत उनमें से
अधिकतर के फिल्मकार हिंदी भाषी नहीं
हैं। यह भी चौंकाने वाला तथ्य है कि ज्यादातर
हिंदी भाषी क्षेत्र के फिल्मकार उर्दू पृष्ठभूमि से आये हुए हैं। यदि किसी एक क्षेत्र
में हिंदी-उर्दू भाषियों का बाहुल्य है तो वह है संवाद और गीत लेखन
में। यहां भी ज्यादातर लेखक उर्दू परंपरा से आये हुए हैं हिंदी परंपरा से
कम। यह भी गौरतलब है कि हिंदी के वे ही लेखक फिल्मों में कामयाब हुए
जिन्होंने फिल्मों की भाषायी परंपरा को अपनाकर ही अपनी पहचान बनायी।
नरेंद्र शर्मा, शैलेंद्र,
सरस्वती कुमार दीपक, प्रदीप,
नीरज, राही मासूम रजा, कमलेश्वर आदि
फिल्मों में सफल रहे तो इसी वजह से।
सिनेमा की भाषा
इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है कि हिंदी सिनेमा की भाषा
उर्दू के निकट है। इसके विपरीत यह उस बोलचाल की भाषा के निकट है जिसे आसानी
से हिंदी या उर्दू कहा जा सकता है और जिसे ही हिंदुस्तानी जबान नाम भी दिया
गया। यही नहीं इसने न सिर्फ हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के शब्दों
को जरूरत के अनुसार अपनाया बल्कि अन्य भाषायी क्षेत्रों के शब्दों को
अपनाने में भी कोई कोताही नहीं की। कहानी और पात्रों की जरूरत के अनुसार
सिनेमाई भाषा अपने को ढालती रही है। श्याम बेनेगल की फिल्में इसका सर्वोत्तम
उदाहरण हैं जिनकी फिल्में प्राय: भारत के अलग-अलग प्रांतों के जीवन यथार्थ
से संबंधित होती हैं। उनकी फिल्मों की भाषा और पात्रों का हिंदी बोलने का
ढंग भी उसी के अनुरूप बदल जाता है।
हिंदी फिल्मों ने अपने को क्षेत्रीय और भाषायी संकीर्णता से
दूर रखा। उन्होंने फिल्मों की कहानी को ऐसे रूप में प्रस्तुत किया कि वे
किसी एक क्षेत्र तक सीमित न दिखाई दें और यदि वे किसी क्षेत्र विशेष से
संबद्ध दिखाई भी दें तो उसकी अपील अवश्य सार्वभौमिक हो। प्रसिद्ध
फिल्मकार महबूब की अत्यंत लोकप्रिय फिल्म मदर इंडिया का उदाहरण लिया जा सकता
है जो गुजराती पृष्ठभूमि में बनी है जिसे पात्रों की वेशभूषा से आसानी से
पहचाना जा सकता है,
लेकिन फिल्म के किसी भी अंश में कोई
पात्र या प्रसंग इस बात का संकेत
नहीं देता कि उनका संबंध किसी खास क्षेत्र
से है। इस फिल्म के गीत जो शकील
बदायुंनी ने लिखे थे और जिसका संगीत
नौशाद ने दिया था उसका विदाई गीत खड़ी
बोली में लिखा गया है लेकिन ब्रज-अवधी
के शब्दों के मिश्रण ने उसे लोकगीत
का ऐसा गहरा स्पर्श दे दिया है कि वह आज
भी विवाह के अवसर पर गाया-बजाया
जाता है: ‘पी के घर आज प्यारी
दुल्हनिया चली, रोए माता-पिता उनकी दुनिया चली’। इस गीत को लोकमय बनाने में इसके संगीत का योगदान सर्वाधिक
है। यह संगीत ही है जो लोकचेतना के सर्वाधिक नजदीक है। क्या यह महज
संयोग है कि जो गीत अपनी आत्मा और अपनी देह दोनों में पूर्णत: लोकमय है और
इसीलिए पूरी तरह भारतीय भी है,
उस गीत को महबूब की फिल्म के लिए लिखा
शकील बदायुंनी ने, संगीत दिया नौशाद ने,
गाया शमशाद बेगम ने और फिल्माया गया
नरगिस पर। यह वह साझा विरासत है जिसे हिंदू और मुसलमान के खानों में बांटकर
नहीं देखा जा सकता।
फिल्म में संगीत
फिल्म संगीत का सृजन स्वायत्त संगीत कला के रूप में नहीं होता।
इसका सृजन फिल्म के एक अंग के रूप में होता है। इसी वजह से उसे
मौलिक नहीं मानी जाती,
ठीक उसी प्रकार जैसे फिल्म की पटकथा
मौलिक रचना नहीं माना जाता।
फिल्म की जरूरत के मुताबिक ही गीत और
संगीत की रचना की जाती है और सिचुएशन
के अनुसार ही उन्हें प्रस्तुत किया जाता
है। लेकिन इन सीमाओं के बावजूद
भारतीय फिल्म संगीतकारों ने जो मधुर और
कर्णप्रिय संगीत रचा है,
वह अपनी मिसाल खुद है। भारतीय
फिल्म संगीत ने तीन स्रोतों सेे अपने लिए रस ग्रहण किया है-भारतीय
शास्त्रीय संगीत, विभिन्न प्रदेशों का लोक संगीत और पश्चिम का शास्त्रीय और
पॉपुलर संगीत। संगीतकारों ने इनके संयोग से एक ऐसी संगीत परंपरा विकसित की जो
आम आदमी के हृदय को भी स्पर्श करे। पांचवे-छठे दशक में फिल्मी गीत और संगीत
का उत्कर्ष इसलिए दिखाई देता है क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों से ऐसे
प्रतिभावान और प्रगतिशील रचनाकार जुड़े,
जिन्होंने फिल्म की सीमाओं को
स्वीकारते हुए भी उसमें कुछ नया कर गुजरने का साहस दिखाया। इस दौर के संगीतकारों ने प्राय: भारतीय रागों में गीतों को
प्रस्तुत किया। लेेकिन इन रागों को उनके शुद्ध और शास्त्रीय रूपों में कम, बल्कि जरूरत के
अनुसार उनमें इस तरह के परिवर्तन किये, जिससे कि वे राग सामान्यजन की चेतना में आसानी से उतर
सकें। फिल्म संगीत की इस बात के लिए आलोचना की जाती रही है कि उसने हमारे
शास्त्रीय रागों की शुद्धता को नष्ट किया है। लेकिन ऐसा कहने वाले यह भूल
जाते हैं कि ये शास्त्रीय राग भी कभी लोक संगीत का हिस्सा रहे होंगे(यह भारतीय
रागों के नामों से साफ है) जिन्हें कालांतर में परिनिष्ठित रूप दिया
गया और इस तरह वे शास्त्रीय रूप धारण कर सके। इस तरह वह लोक संगीत जो
शास्त्रीय होकर जनता से दूर हो गया था,
वही फिल्मों के माध्यम से वापस उसी
जनता तक पहुंच रहा था। निश्चय ही अपने पुराने रूप में नहीं, बल्कि नितांत नए रूप में। एक तरह से फिल्मों ने प्राय: लुप्त
होती लोक परंपराओं को कुछ हद तक बचाये रखने और नया जीवन प्रदान करने
का काम किया। एक अन्य अर्थ में भी फिल्मी गीतों ने लोकगीतों का स्थान
ले लिया है, वह यह कि लोकगीतों की तरह फिल्मी गीत भी मनुष्य की विभिन्न
स्थितियों और प्रसंगों से जुड़ी सामूहिक भावनाओं और वैयक्तिक संवेदनाओं को
अभिव्यक्त करते हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप की फिल्मों की विशेषता रही है
कि फिल्म के खास प्रसंग के लिए लिखे गए गीत उससे स्वतंत्र होकर भी दशकों तक
लोगों की स्मृतियों का हिस्सा बने रहते हैं।
पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा ने अपनी जातीय और लोक परंपरा
को काफी हद तक भुला दिया है। पहले की तरह अब भारतीय फिल्मों का संबंध
ग्रामीण यथार्थ से लगभग खत्म हो गया है। इसके साथ यह भी सच है कि आज
बनने वाली अधिकतर फिल्मों में उस मध्यवर्ग का जीवन प्रस्तुत किया जाता है
जो महानगरों या विदेशों में रहता है। इस महानगरीय मध्यवर्ग का संबंध उस
भारत से खत्म होता जा रहा है जो आज भी देश की कुल आबादी का 80-85 प्रतिशत है। लेकिन
फिल्मों में यह बहुसंख्यक जनता लुप्त
होती जा रही है। इसका स्थान जिस
मध्यवर्ग ने लिया है, उसके लिए भारत की विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं का महत्त्व उतना ही है,
जितना कि फैशन की दुनिया में एथनिक
पोशाकों का होता है। इस वर्ग के लिए न साझा सांस्कृतिक परंपरा की कोई
प्रासंगिकता है, न हिंदुस्तानी जबान की और न ही लोक परंपराओं की। भूमंडलीकरण और
आर्थिक उदारीकरण की जन विरोधी नीतियों के वर्चस्व और साझा संस्कृति और
लोक परंपराओं के विरुद्ध सक्रिय ताकतों के दबाव ने भारतीय सिनेमा
की बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय परंपरा के सामने चुनौतियां खड़ी कर
दी हैं। साहित्य और अन्य कला माध्यमों के सामने भी ये चुनौतियां मौजूद
हैं। साहित्य और अन्य कला माध्यमों की तरह सिनेमा में भी इनसे संघर्ष करने
वाली प्रवृत्तियां आज भी सक्रिय हैं।
- समयांतर पत्रिका से साभार
- समयांतर पत्रिका से साभार
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